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शिक्षा के दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने का समय

07:53 AM Jul 16, 2024 IST
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अविजित पाठक
यह सवाल अकसर सामने आ खड़ा होता है कि क्यों शिक्षा पर लिखना जारी रखा जाये। शायद, इसलिए कि ‘शिक्षा’ को लेकर जो प्रचलित परिभाषाएं समाज ने बना रखी हैं, उनसे सहमत होना मुश्किल है। शिक्षा के अर्थ, वर्तमान युग में आम समझ के अनुसार मुख्यतः तीन हैं : (अ) शिक्षा एक प्रकार का ‘प्रशिक्षण’ है या ‘कौशल सीखने’ का जरिया (ब) शिक्षा एक किस्म से पायदान-दर-पायदान चढ़ते हुए सीखना है या यह वह राह है जिससे होकर कोई एक खास शैक्षणिक विशेषज्ञता वाली विधा में ‘विशेषज्ञ’ बनता है (स) यह किसी छात्र को एक ‘संसाधन’ में परिवर्तित करती है, जिसका उपयोग किसी आर्थिक-सैन्य-तकनीकी प्रयोजन में हो। लेकिन फिर, शिक्षा को लेकर रखे गए ऐसे संकुचित, उपयोगितावादी, तकनीकी रुख से असहज होना स्वाभाविक है। कारण यह कि यदि शिक्षा हमारे अंदर मानवीयता, साैंदर्य बोध, नैतिकता, आध्यात्मिकता की समझ को सक्रिय न कर पाए तो यह खराब एवं खतरनाक बनी रहेगी, भले ही यह देश की आर्थिक वृद्धि दर में बढ़ोतरी के लिए ‘कुशल’ श्रम शक्ति क्यों न पैदा करती हो या तकनीकी-सैन्य क्षेत्र के लिए ‘मानव संसाधन’ पैदा करने वाली हो या फिर किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी को ‘टॉप रैंकिंग’ दिलवाने हेतु हजारों की संख्या में रिसर्च पेपर तैयार करने वाली हो।
इस मामले में सख्त रुख की दरकार है। यह कहना हिचक वाली बात नहीं कि इस किस्म की मशीनी शिक्षा सैन्यीकरण, युद्ध की मानसिकता, पर्यावरणीय आपदाओं, दूसरों से नफरत करने वाले राष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरवाद और अति उपभोक्तावाद से मुक्त नई दुनिया बनाने में पूरी तरह अक्षम साबित हुई है। इन दिनों, हमारे पास भरमार है ऐसे विशेषज्ञों की जो अंतरात्मा विहीन हैं, तकनीक की जो आत्मा से रहित है, बाजार जो नैतिकता मूल्यों से विहीन है, और मानव संसाधन जिसमें समृद्ध अंत:करण और उच्च आदर्श नदारद हैं। शिक्षा का मौजूदा प्रचलित तरीका, शिक्षा प्राप्त कर रहे युवाओं को बेलगाम योद्धा में तबदील कर रहा है, यह स्थिति आगे ऐसी पीढ़ी बना रही है जो आनंद-विहीन एवं आक्रामक है, जिसको जरा चैन नहीं, जिसपर भय, मनोवैज्ञानिक संत्रास और आध्यात्मिक मूर्खता तारी है।
हां, यही मनोव्यथा आलोचना करने को उकसाती है। सफलता का पैमाना बना दी गईं नीट, जेईई, नेट और क्युएट जैसी परीक्षाओं की आलोचना– इम्तिहान जो हमारे विद्यार्थियों का आनंद, विचारशीलता, आत्मबोध, सहजता से सीखना जैसी नैसर्गिकता छीन रहे हैं। ‘कोटा एकेडमी संस्कृति’ का निंदक होना बनता है, राजस्थान का यह शहर जीवन लीलने वाला कोचिंग-उद्योग या किशोर जीवनकाल के जादुई वर्ष छीनने वाली मशीनों का पर्याय बन गया है और उन्हें ‘परीक्षा योद्धा’ सरीखे रोबोट्स में परिवर्तित कर रहा है, जिन्हें केवल एक ही चीज़ पता है– भौतिकी या गणित के सवालों को कैसे जल्द से जल्द अथवा तत्काल हल करना है। गुस्सा आता है, उच्च शिक्षा का कॉर्पोरेटीकरण करने पर या शिक्षा का रुतबा ‘प्राप्त सैलरी पैकेज’ से मापने के भौंडे तरीके पर। और हां, कला एवं मानविकी को हेय गिने जाने पर चिंता उपजती है।
इस संदर्भ में, शिक्षा के भुला दिए कुछ आदर्शों की याद आना समीचीन है। मसलन, संवेदनशीलता, जिस पर जिद‍्दू कृष्णमूर्ति बारम्बार जोर देते थे, वह जो बौद्धिकता का उच्चतम स्वरूप है– संवेदनशीलता जिंदगी के प्रति या प्रकृति के लिए। कृष्णमूर्ति युवा छात्रों को प्रेरित किया करते थे कि वे सूरज डूबने के विस्मयकारी दृश्य को पूर्ण चेतनता और समाधिस्थ अवस्था से निहारे। यह दिवास्वप्न देखने वाला निठल्लापन नहीं है, न ही समय की बर्बादी, यह भौतिकी और गणित से अल्पकालिक निजात भी नहीं है, इसकी बजाय यह सजग बनने, जागृत बौद्धिकता विकसित करने और उस स्वः को पोषित करने के लिए है, जो दुनिया से खुद का जुड़ाव बनाए। एक तरह से, यह शिक्षा का बोधात्मक, आध्यात्मिक पहलू है जो रबिन्द्रनाथ टैगोर द्वारा महज विद्यार्थियों की फौज खड़ी करने और दमनकारी शिक्षा संस्कृति की आलोचना में झलकता है और उनकी चाहत थी कि शिक्षार्थी युवाओं में कलात्मकता, सौंदर्यबोध का विकास हो। देवी प्रसाद के बारे में सोचें– एक महान कलाकार और गांधी एवं टैगोर के शिष्य! अंतर्दृष्टि जागृत करने वाली उनकी लिखी किताब ः ‘आर्ट : द बेसिस ऑफ एजुकेशन’ मुझे बच्चे में अंदरूनी सृजनशीलता पैदा करने की जरूरत की याद दिलाती है। जरा उस नुकसान की तीव्रता के बारे में सोचें, जो हम अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को पहुंचाते हैं, जब हम उन्हें अंतस से जुड़ने का खूबसूरत बोध विकसित करने से महरूम करते हैं। तब वे भय, तनाव और अति-प्रतिस्पर्धात्मकता के साथ बड़े होते हैं।
ऐसे में अक्सर अमेरिकी नारीवादी विदुषी बेल हुक्स से प्रेरणा मिलती है। जबतक वे जीवित रहीं, वे अपने विद्यार्थियों को आलोचनात्मक शिक्षण एवं दूसरों का ख्याल रखने की नैतिकता के खूबसूरत मिश्रण से प्रेरित करती रहीं। पाअलो फ्रेरे, इरिक फ्रॉम और थिच हाट हान से हुए शैक्षणिक संवाद उन्हें नस्लवाद, पुरुष वर्चस्व और तमाम किस्म के दबदबों से सवाल करने की मजबूती प्रदान करते थे। और शिक्षा, जैसा कि उन्होंने अपने पढ़ाने और लिखने के ढंग से दर्शाया, वह है जो प्रेम की क्षमता पैदा करे और हिंसा से त्रस्त संसार के जख्मों पर मरहम लगाए। लेकिन फिर हमारे सामूहिक ह्रास और अधोपतन पर नज़र डालें। बतौर अभिभावक एवं शिक्षक, हम अपनी इस पीढ़ी को सिर्फ और सिर्फ अपने कैरियर पर ध्यान केंद्रित करने को कहते हैं यानी ‘मोटी पगार’। हम उन्हें पागल घोड़े की तरह भागने और दूसरों के बारे में न सोचने को कह रहे हैं– जिसमें उनकी पीड़ा, संत्रास और मुश्किलें शामिल हैं। जिसे हम इन दिनों ‘शिक्षा’ मान रहे हैं, कदाचित‍् केवल हिंसात्मक, श्रेणीबद्ध, शोषणकारी समाज के विचार को फिर से जीवित कर रही है।
और अंत में, ख्यात राजनीतिक सिद्धांतकर्ता एवं दार्शनिक मार्था नुशबॉम का कथन दोहराया जाये : ‘हर चीज़ लाभ कमाने के वास्ते नहीं होती, लोकतंत्र को मानवीयता की आवश्यकता है’। हम अपने कॉलेज-यूनिवर्सिटियों को मुख्यतः तकनीकी-वैज्ञानिक-अर्थशास्त्र पढ़ाने के स्थल की तरह देखते हैं और परिणामवश कला एवं मानवशास्त्र का अवमूल्यन हो रहा है। जैसे कि नुशबॉम की दलील है, यह वह सोच है जिसमें शिक्षा का मुख्य ध्येय छात्रों को आर्थिक रूप से उत्पादक होना सिखाना है, न कि आलोचनात्मक रूप से सोचने वाला, ज्ञानवान, उत्पादक किंतु सहृदय प्राणी बनाना। नुशबॉम का कहना है, ‘मुनाफादायक कौशल’ पर इस प्रकार एकतरफा ध्यान से वंचितों के प्रति सहानुभूति और आलोचनात्मक समझ बनने की क्षमता का ह्रास हो रहा है। शिक्षा को महज कुल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि करने का औजार बनाने से परे देखते हुए, नुशबॉम शिक्षा को मानवीयता से जोड़ना चाहती हैं ताकि विद्यार्थी असल मायने में लोकतांत्रिक नागरिक बनने को प्रोत्साहित हों।
वाकई यही वक्त है, शिक्षा का असल अर्थ क्या है, इस बारे में पुनर्विचार करने का। यदि शिक्षा को घोर बाजारीकरण, तकनीकी-मशीनी तार्किकता और अस्तित्व के लिए खतरा बनी होड़ के वायरस से न बचाया, तो हम नई पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य को बहुत अधिक नुकसान पहुंचा बैठेंगे। इस अपराध के लिए हमें कतई माफी नहीं मिल पाएगी।

लेखक समाजशास्त्री हैं।

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