मानवीय रचनात्मकता को एआई टूल्स की चुनौती
कार्टून या एनिमेशन स्ट्रिप बनाने में सैकड़ों घंटों की मेहनत खपती है। इसलिए, श्रेय और पैसा सृजनकारों का नैसर्गिक हक है। एआई कंपनियां वह करने में लगी हैं, जिसे आलोचक डाटा-चोरी कहते हैं और ऐसा करके वे सृजनकर्ता के श्रेय और पैसा, दोनों पर डाका डाल रही हैं।
डिजिटल दुनिया में एक नया चलन जोर पकड़ रहा है। उपयोगकर्ताओं ने एक्स, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एआई तकनीक की मदद से प्रसिद्ध जापानी एनिमेटर हयाओ मियाज़ाकी की शैली में निर्मित अपनी, परिजनों और अन्य तस्वीरों की बाढ़-सी ला रखी है। मियाज़ाकी सुप्रसिद्ध घिबली स्टूडियो के संस्थापक हैं, जिसने पिछले चार दशकों में जाने-माने एनिमेशन चरित्रों को पैदा किया है। हल्के, पेस्टल रंगों में पात्रों को चित्रित करने की विशिष्ट शैली को घिबली कला के रूप में जाना जाता है। हालांकि, उपयोगकर्ताओं द्वारा ऑनलाइन पोस्ट की जा रही कला मूल घिबली न होकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) टूल्स का उत्पाद है, जो कि परीक्षण के आधार पर मुफ़्त में उपलब्ध है। राजनेता, फैशन और खेल जगत के स्थापित चेहरे और मशहूर हस्तियों सहित लाखों उपयोगकर्ता इस शैली में चित्र बनाने के लिए एआई टूल्स का उपयोग कर रहे हैं।
हालांकि जेनेरेटिव एआई टूल– जो इस सामग्री को बनाने में उपयोग किए जा रहे हैं - पिछले कुछ सालों से वजूद में हैं, लेकिन वर्तमान चलन की चिंगारी को ओपन एआई द्वारा विकसित एक नए टूल्स ने भड़काया है। चैट जीपीटी हो या बृहद भाषा मॉडल (लार्ज लैंग्वेज मॉडल अर्थात एलएलएम), ये टूल्स चंद शब्दों वाली निर्देशावली (टेक्स्ट) के आधार पर विस्तृत लेख, पुस्तक अध्याय, सोशल मीडिया पोस्ट इत्यादि वांछित सामग्री उत्पन्न कर देते हैं। नवीनतम मल्टीमॉडल जेनेरेटिव एआईटूल इनपुट के रूप में टेक्स्ट, तस्वीर, वीडियो, आवाज और संगीत के नमूने का उपयोग करते हुए वांछित आउटपुट को चित्र और वीडियो के रूप में निर्मित करके दे सकते हैं। मिडजर्नी, स्टेबल डिफ्यूजन और डीएएलएल-ई जैसे टूल इनपुट के रूप में टेक्स्ट से सचित्र आउटपुट पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई डीएएलएल-ईको एमएफ हुसैन या जैमिनी रॉय की शैली में दिल्ली की सड़क की पेंटिंग बनाने का निर्देश दे, तो वह कुछ सेकंड के भीतर बनाकर पेश कर देगा। ‘लेंसा’ जैसे इमेज-टू-इमेज टूल भी हैं जो इनपुट छवियों के बदले छवि या उसका सुधरा संस्करण प्रदान कर सकते हैं। घिबली शैली में उत्पन्न छवियों ने लोगों की कल्पना को इसलिए भी अपनी ओर खींचा है क्योंकि वे बहुत मासूम और मज़ेदार दिखती हैं। हालांकि, इस मासूमियत के तले टेक्स्ट और इमेज-जेनेरेटिव एआई सिस्टम से संबंधित गंभीर नैतिकता के मुद्दे छिपे हुए हैं।
कोई भी एआई सिस्टम विभिन्न स्रोतों से एकत्र किए गए वास्तविक डाटा पर काम करता है। एआई टूल्स को प्रशिक्षित करने में भारी मात्रा में डाटा (टेक्स्ट, इमेज, संगीत इत्यादि) की जरूरत पड़ती है। यदि किसी एलएलएम को अमिताभ घोष या रस्किन बॉन्ड की शैली में एक छोटी-सी कहानी बनाने के लिए कहा जाए तो इसे वह इन लेखकों की तमाम रचना का भारी-भरकम डाटा खंगालने के बाद उत्पन्न करता है। इस सामग्री का अधिकांश हिस्सा कॉपीराइट वाला होता है, और एआई कंपनियों ने अपने सिस्टम को ‘प्रशिक्षित’ करने के लिए लेखकों से इसके लिए समुचित अधिकार खरीदे नहीं होते। यही बात घिबली स्टूडियो सरीखी या हुसैन जैसे उस्तादों की पेंटिंग्स बनाने पर लागू है।
एआई कंपनियां दावा करती हैं कि वे केवल सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध डाटा का ही उपयोग कर रही हैं, लेकिन उनके इस दावे को सृजनकर्ता पचा नहीं पा रहे। कॉपीराइट कानूनों में अंतर्निहित ‘उचित इस्तेमाल’ प्रावधान का दुरुपयोग यह तकनीक बनाने वाली कंपनियां कर रही हैं। इस तरह के उल्लंघन से निपटने के लिए मौजूदा कॉपीराइट ढांचे अपर्याप्त हैं। उत्तरी अमेरिका और यूरोप की अदालतों में तकनीक बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ मामले पहले से चल रहे हैं।
दरअसल, जेनेरेटिव एआई रचनात्मकता के मूल विचार पर हमला कर रहा है। पेंटिंग हो या कोई किताब, कार्टून चरित्र या फिर संगीत का मुखड़ा, यह सब किसी कलाकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति के स्वरूप हैं। यह सभी सांस्कृतिक उत्पाद हैं, जो व्यक्तिगत अनुभव और संदर्भ से उत्पन्न हुए होते हैं। उदाहरण के लिए, घिबली स्टूडियो का काम जापानी समाज और संस्कृति का एक नमूना है, यह ठीक वैसा है जैसा कि वॉल्ट डिज़नी स्टूडियो की रचनाएं अमेरिकी संस्कृति को दर्शाती हैं।
ऐसे रचनात्मक कार्यों को किसी मशीन या एआई सिस्टम को बनाने के लिए सौंप देना मानवीय रचनात्मकता और जुनून के मूल विचार के विरुद्ध है। एक कलाकार को एक पेंटिंग पूरी करने में महीनों लग सकते हैं या एक लेखक को एक उपन्यास अथवा गैर-काल्पनिक किताब लिखने में कई साल लग सकते हैं। कार्टून या एनिमेशन स्ट्रिप बनाने में सैकड़ों घंटों की मेहनत खपती है। इसलिए, श्रेय और पैसा सृजनकारों का नैसर्गिक हक है। एआई कंपनियां वह करने में लगी हैं, जिसे आलोचक डाटा-चोरी कहते हैं और यह करके वे सृजनकर्ता के श्रेय और पैसा, दोनों पर डाका डाल रही हैं। प्रत्येक नए जेनेरेटिव मॉडल बनने के साथ– जो सृजनकर्ताओं के अनगिनत काम और मेहनत पर आधारित होता है– एआई कंपनियों की दौलत में खरबों डॉलर का इजाफा हो जाता है। वे इन मॉडलों को प्रति संस्करण हज़ारों डॉलर मूल्य में दुनिया भर के उपयोगकर्ताओं को बेच रही हैं, जबकि मूल सृजनकर्ता के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। इमेज जेनेरेटर खुद कलाकार नहीं हैं, लेकिन कलाकारों के लिए एक चुनौती हैं।
एआई टूल के मुफ़्त संस्करणों के उपयोग से निर्मित छवियों के साथ डिजिटल दुनिया में मची रेलमपेल, जैसा कि घिबली कला के मामले में हुआ पड़ा है, प्रौद्योगिकी कंपनियां ऐसी मशीन-जेनेरेटेड कला को सामान्य बनाना चाहती हैं। व्यावसायिक फिल्म स्टूडियो और नेटवर्क उन्हें सिर्फ श्रम लागत बचाने की गर्ज से अपना रहे हैं। वे एनिमेटरों की फौज को काम पर रखने की बजाय एआई तकनीक में पारंगत चंद लोगों से काम चलाने लगी हैं। इस प्रवृत्ति से भारत में भी खतरे की घंटी बज जानी चाहिए, क्योंकि हजारों भारतीय तकनीकी विशेषज्ञ हॉलीवुड स्टूडियो के लिए आउटसोर्स ठेके पर एनिमेशन कार्य में लगे हुए हैं। हालांकि, वे भी कंप्यूटर ग्राफिक्स और अन्य टूल्स का उपयोग करते हैं। लेकिन जेनेरेटिव एआईटूल स्वचालित होने की वजह से सब कुछ बनाना किसी दूसरे ही स्तर पर पहुंच चुका है।
इस समस्या का हल आसान नहीं है। कॉपीराइट को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ना विकल्पों में से एक हो सकता है। डाटा सुरक्षा कानून और एआई नियंत्रक धाराओं को हर नए विकास के साथ सामंजस्य बिठाने में खपना पड़ रहा है। किताबों और संगीत जैसे रचनात्मक कार्यों के कुछ प्रकाशक एवं कॉपीराइट धारक एआई कंपनियों के साथ औपचारिक समझौते करने में लगे हैं ताकि एआई सिस्टम को ‘प्रशिक्षित’ करने में उनकी किताबों और अन्य काम का इस्तेमाल करने की अनुमति देने के एवज में राजस्व-साझाकरण सुनिश्चित हो सके। उन्हें लगता है कि जब तकनीक बनाने वाली कंपनियां डाटा प्रशिक्षण के लिए उनके काम का उपयोग पहले ही बिना पूछे कर रही हैं, तो क्यों न इसे औपचारिक रूप दे दिया जाए और उनकी कमाई में हिस्सा बांट लिया जाए। डाटा प्रशिक्षण के लिए किसी के काम का इस्तेमाल करने की अनुमति आपसी सहमति से देना भी एक अन्य विकल्प है, खासकर जब मामला व्यक्तिगत कलाकारों के काम का हो। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों को भी उपयोगकर्ताओं को एआई-जनरेटेड छवियों, वीडियो और एनिमेशन बनाने की खुली छूट देने के प्रति अधिक संवेदनशील होना पड़ेगा। घिबली ट्रेंड हानिरहित और प्यारा लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हम सभी के लिए एक चेतावनी है।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के विशेषज्ञ हैं।