मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

अब ओबीसी पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति

04:00 AM Apr 12, 2025 IST

कांग्रेस अब महसूस कर रही है कि तमाम कोशिशों के बाद भी वह सपा व आरजेडी जैसे तमाम दलों से अल्पसंख्यकों के आधार को छीन नहीं पा रही है। ऐसे में कांग्रेस की रणनीति ओबीसी को साधने की है।

Advertisement

वेद विलास उनियाल

कांग्रेस के गुजरात के अहमदाबाद में हुए 84वें अधिवेशन के संकेत स्पष्ट हैं। कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के अलावा कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के साथ जहां पार्टी को फिर से सशक्त करे के लिए मंथन हुआ, वहीं चुनावों में पार्टी को सफलता दिलाने हेतु रणनीतियों पर भी गहरी चर्चा हुई।
कांग्रेस के सामने लक्ष्य स्पष्ट हैं कि उसे अपने खोये जनाधार को पाने के लिए खासी मशक्कत करनी है। उसे जहां बीजेपी के सामने सबसे बड़ा विकल्प बना रहना है। वहीं उसे अपने जनाधार के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संघर्ष उन दलों से भी करना है जो उसके साथ अभी इंडिया गठबंधन में खड़े दिखते हैं। ये सारा खेल उस सियासी समीकरण का है जिसमें कांग्रेस अपनी दमदार उपस्थिति दिखाने की जद्दोजहद में जुटी है। इसी दायरे में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने कांग्रेस से ओबीसी के छिटकने की बात कही।
आजादी के बाद से कांग्रेस की सियासी रणऩीति में उच्च जातियों, मुस्लिम और दलितों का ऐसा समीकरण रहा जिसका तोड़ विपक्ष के पास लंबे समय तक नहीं रहा। जनसंघ या तमाम समाजवादी दलों की सियासत मंचों पर तो मुखर रही लेकिन राजनीति के जोड़-घटाने में लगभग डेढ़ दशक तक ये पार्टियां लोकसभा या राज्यों के चुनाव में अंकों की तालिका में बस अपनी उपस्थिति ही जताती रहीं। साठ के दशक के अंत और सत्तर के दशक के शुरुआत में राजनीति के उथल पुथल के दौर में कई बदलाव देखने को मिले। कांग्रेस में खुलकर गुटबाजी और राजनीतिक पैंतरेबाजी देखने को मिली। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कुशल नेतृत्व ने उस समय की स्थितियों को संभाल लिया। उनके नेतृत्व वाले धड़े को ही असली कांग्रेस के रूप में स्वीकार कर लिया गया। लेकिन कांग्रेस का जनाधार पहली बार यहीं से खिसकना शुरू हुआ था। इसी के चलते यूपी, बिहार जैसे राज्यों में विपक्ष की सरकारें बनीं। हालांकि, 71 के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी के करिश्माई नेतृत्व से फिर से कांग्रेस को एक बड़ा आधार मिला। अगर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव परिणामों को छोड़ दें, तो उसके बाद कांग्रेस अपने जनाधार को वापस पाने के लिए लगातार जूझती रही है। 90 के दशक में कांग्रेस के लिए यह लड़ाई और कठिन हो गई। मंडल-कमंडल के बीच कांग्रेस का गलियारा छोटा हो गया। पूर्व पीएम वीपी सिंह ने ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग की सिफारिश लागू की और ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ। तब भविष्य की राजनीति की थाह न ले कांग्रेस ने इसका विरोध किया।
कांग्रेस ने अपनी सियासी रणनीतियों में जिन जातियों को फोकस किया उसमें पिछड़ी जातियां नहीं थीं। लेकिन फिर भी कांग्रेस के प्रभामंडल में पिछड़ी जातियों के वोट कांग्रेस को पड़ते रहे। उसके लिए इन जातियों को अपने साथ जोड़ने की पहल बहुत ज्यादा नहीं हुई। दूसरी तरफ इसी दौर में यूपी में सपा, बिहार में आरजेडी, ओडिशा में बीजू जनता दल, कर्नाटक में जनता दल यू जैसे दल उभरे और अपनी पृष्ठभूमि में सशक्त हुए। राजनीति की बयार को समझने वाले कांशीराम ने 1984 में बसपा को स्थापित किया तो उनके अपने लक्ष्य स्पष्ट थे। ज्यादा वक्त नहीं लगा। एक दशक से भी कम समय में यूपी में सपा-बसपा का एक मजबूत चक्रव्यूह तैयार हुआ।
इसी बारीक सियासी पेंच को समझना होगा कि जहां पिछड़ी अति पिछड़ी जातियां सपा आरजेडी जैसे दलों के साथ जुड़ गईं, वहीं बाबरी मस्जिद ढहने के बाद मुस्लिमों ने कांग्रेस से किनारा कर दिया। कांग्रेस आज तक अपने जनाधार की कोशिश में है।
दूसरी तरफ राममंदिर आंदोलन ने बीजेपी के लिए सत्ता का रास्ता बनाया। इसके साथ ही सामाजिक समीकरणों में बीजेपी ने पिछड़ी जातियों और दलितों के बीच उन समूहों को साधने की कोशिश की जो अपने को कहीं उपेक्षित महसूस कर रहे थे। खासकर 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी ने ओबीसी को प्रभाव में लाने के लिए जतन किए। यही नहीं बीजेपी ने अपनी बिसात बिछाते हुए हरियाणा मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्री दिए वहीं ओडिशा में आदिवासी समाज के नेता को नेतृत्व सौंपा। इसी ओबीसी की पिच पर कांग्रेस अब बीजेपी और दूसरे दलों से जूझना चाहती है। कांग्रेस के अधिवेशन से ठीक पहले राहुल गांधी के इस बयान के अपने मायने हैं कि हम ब्राह्मण, दलित मुस्लिम में ही उलझ गए ओबीसी हमसे दूर हो गया।
कांग्रेस अब महसूस कर रही है कि तमाम कोशिशों के बाद भी वह सपा व आरजेडी जैसे तमाम दलों से अल्पसंख्यकों के आधार को छीन नहीं पा रही है। ऐसे में कांग्रेस की रणनीति ओबीसी को साधने की है। दरअसल, 2017 में ही कांग्रेस ने इस तरफ सोचना शुरू कर दिया था। लेकिन अब वह इस तरफ मुखर होना चाहती है। संसद में भी राहुल गांधी ने ओबीसी पर गंभीर नजर आए हैं। यही वजह कि वह जातीय गणना के मामले को तूल दे रहे हैं।

Advertisement

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

Advertisement