ये कैसी हेराफेरी, पैसे की लगी है ढेरी
सहीराम
देखो जी, वैसे तो कहा ही है कि बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया। और मानने वाले तो यह तक मानते हैं कि पैसा भगवान होता है। शायद इसीलिए वह सबको मिलता भी नहीं। अभागों और गरीबों को तो बिल्कुल नहीं मिलता। बल्कि कुछ लोग तो पैसे को भगवान से भी ऊपर मानते हैं। शायद इसीलिए उन्हें इफरात में मिलता भी है। इतना सम्मान छोड़कर भला रुपया जाएगा भी कहां। पर इधर रुपया-पैसा एकदम ही कूड़े में रुलता फिरता दिखा जी। पहले रुपयों की ढेरी में आग लगी, धू-धू करके जला और फिर कूड़े के ढेर में पहुंच गया।
अब यह कोई सरकारी दफ्तर की फाइलों का ढेर तो था नहीं कि धू-धू करके जल गया और सारे राज अपने साथ ले गया। यह कोई गोपनीय कागज तो थे नहीं कि जल जाएं तो गोपनीयता बनी रहे। यह किसी पुराने प्रेमी की चिट्ठियां तो थी नहीं कि नयी जिंदगी शुरू करने के लिए जला दी गयी होंगी। यह तो रुपया था। रुपये की ढेरी थी। यह ठीक है कि भगवान भी कई बार मिट्टी में ही दबे मिलते हैं। लेकिन वह तो चमत्कार होता है और फिर उनका तो मंदिर भी बना दिया जाता है और प्राण-प्रतिष्ठा भी हो जाती है। लेकिन जला हुआ रुपया तो फिर टीवी की फुटेज में दिखाने के ही काम आता है।
खैर जी, यह रुपयों की ढेरी कोई झुग्गी-बस्ती नहीं थी कि जल गयी तो किसी बिल्डर को अपना सुपर मार्केट खड़ा करने की जगह मिल जाएगी। यह रुपया किसी पुलिस वाले, किसी दरोगा, किसी थानेदार के यहां भी नहीं मिला, जिन पर अक्सर उगाही के आरोप लगते रहते हैं। उनसे मालदार तो अक्सर मध्यप्रदेश के तृतीय श्रेणी के कर्मचारी निकलते हैं, जो दबंग माने जाने वाले पुलिस वालों के लिए शर्म का सबब बन जाते हैं। यह रुपया किसी आईएएस अधिकारी के यहां भी नहीं मिला। उनके यहां वैसे भी दस-बीस करोड़ नहीं मिला करते हैं। दो सौ-तीन सौ करोड़ मिला करते हैं। फिर यह रुपया किसी नेता के यहां भी नहीं मिला। क्योंकि यह माना जाता है कि रुपयों की ढेरियां नेताओं के अलावा और कहां मिलेंगी। उनके तो गद्दों-तकियों तक में भरे होते हैं।
इस मामले में सुखरामजी अभी भी मानक बने हुए हैं। यह रुपये तो एक न्यायाधीश महोदय के यहां मिले हैं। लोग यह मानते हैं कि न्यायालयों के पेशकारों, कारकूनों के यहां तो रुपयों के ढेर मिल सकते हैं। लेकिन न्यायाधीशों के यहां तो न्याय ही मिलता है। भले ही बाद में उन्हें सांसदी और गवर्नरी मिलती हो। लेकिन देखो जी, न्यायाधीशों के यहां भी रुपयों की ढेरी मिलने लगी। वे कोई फिल्मों के लफंडर हीरो नहीं होते कि उछल-उछलकर गाते फिरें कि क्या पैसा-पैसा करती है, पैसों की लगा दूं ढेरी।