पूर्वोत्तर में सुरक्षा चुनौती को गंभीरता से लेने की जरूरत
बांग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस द्वारा अपनी हालिया चीन यात्रा के दौरान दिया गया बयान देश के पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर पड़ोसी देश के मंसूबों को उजागर करता है। दरअसल, चिकन नैक क्षेत्र के खास जिक्र व देश के इस हिस्से में मौजूदा आंतरिक स्थितियों के मुताबिक बहुपक्षीय सुरक्षा रणनीति तय की जानी चाहिये। जिसमें सीमा पर चौकसी तो चाहिये ही, अंदरूनी हालात पर भी उच्चतम स्तर पर नज़र रखने और निर्णय लेने की जरूरत है।
गुरबचन जगत
आज की मीडिया रिपोर्टों में बांग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस को उद्धृत करते बयान आए हैं, जो उन्होंने कथित तौर पर हाल ही में अपनी चीन यात्रा के दौरान दिए। उन्होंने बांग्लादेश के अलावा ‘सेवन सिस्टर्स’ (हमारे सात पूर्वोत्तर राज्य जिनके पास समुद्र तट नहीं लगता) सहित इस इलाके के विकास की परिकल्पना में इसको चीनी अर्थव्यवस्था और बांग्लादेश के बीच आर्थिक सहयोग का विस्तारित हिस्सा बनाए जाने की बात कही है, जिसमें बांग्लादेश और इसके बंदरगाह मुख्य भूमिका निभा सकते हैं। इस किस्म की टिप्पणियों के साथ वे ‘चिकन नेक’ क्षेत्र (जिसे सिलीगुड़ी कॉरिडोर के रूप में भी जाना जाता है) यानी पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में भूमि की वह संकरी पट्टी जो पूर्वोत्तर के राज्यों को शेष भारत से जोड़ती है, में व्याप्त भौगोलिक परिस्थितियों का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं। यूनुस इस समस्या में एक नया आयाम जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, मुझे यकीन है कि भारत सरकार ने पहले ही इस पर संज्ञान ले लिया होगा और किसी आकस्मिकता से निबटने के लिए रणनीति बनाने में लगी होगी। शेख हसीना शासनकाल के बाद, बांग्लादेश-भारत संबंधों की धुरी का एक दोस्ताना पड़ोसी एवं सहयोगी से बदलकर लगभग बैर वाली स्थिति तक में तब्दील हो जाना उस देश में उभरती राजनीति और पाकिस्तान की आईएसआई का उस पर प्रभाव दर्शाता है। पाकिस्तान न तो 1971 को भूला है (जब उसने पूर्वी पाकिस्तान खोया था) न ही कश्मीर में अपने असफल प्रयासों को।
यहां मेरा उद्देश्य हमारे पूर्वोत्तर क्षेत्र की अंदरूनी स्थिति को उजागर करना है। आज के अखबारों ने मणिपुर के पूर्व मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का कथित बयान भी छापा है, जिसमें उन्होंने दिवंगत पीए संगमा द्वारा संसद में 2014 में दिए एक भाषण का एक वीडियो साझा किया है, संगमा उसमें कथित तौर पर कुकी लैंड और क्षेत्र में अन्य छोटे-छोटे राज्य बनाने का समर्थन कर रहे हैं। बीरेन सिंह ने कहा कि आज भी मणिपुर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए इसी तरह के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि राज्य को अस्थिर किया जा सके। इस बयान पर मेघालय के मुख्यमंत्री और पीए संगमा के बेटे ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपने पिता का बचाव किया है। मैंने भविष्य में बांग्लादेश (और पाकिस्तान) की संभावित भूमिका और हमारी अपनी आंतरिक खींचतान (महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों द्वारा दिए जा रहे असंयमित बयानों को देखते हुए) को सामने लाने के लिए गहरे उतरकर मनन किया है।
2023 तक और मणिपुर में हिंसा की शुरुआत होने तक, दशकों की अशांति और हिंसा के बाद पूर्वोत्तर में शांति कायम थी। नगालैंड में युद्ध विराम था और असम, अरुणाचल, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा और मणिपुर में निर्वाचित सरकारें थीं। भारत सरकार ने सेना, सुरक्षा बलों और पुलिस की मदद से क्षेत्र में शांति बनाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली में सराहनीय काम किया था। पूर्वोत्तर और शेष भारत के बीच संवाद और एकीकरण में सुधार हुआ और क्षेत्र के लोग पढ़ाई और रोजगार के लिए दूसरे हिस्सों में जाने लगे। पर्यटन भी फलने-फूलने लगा। हालांकि, मणिपुर उच्च न्यायालय के एक फैसले में सिफारिश की गई कि राज्य सरकार को इस क्षेत्र के मुख्य समुदाय मैतेई को अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल करने के लिए भारत सरकार से कहना चाहिए और इस प्रकार की सकारात्मक कार्रवाई की अनुमति देनी चाहिए (जिसका एक अर्थ बाहरी लोगों द्वारा पहाड़ी इलाके में भूमि खरीद को खोलना भी निकलता है)। इस फैसले से होने वाले नुकसान की संभावना का अंदाजा लगाते हुए राज्य सरकार को न्यायिक साधनों से इस फैसले को चुनौती देने के लिए तुरंत कदम उठाने चाहिए थे (ऐसा वह आसानी से कर सकती थी)। बाहरी लोगों की आमद खुलने की आशंका की वजह से पहाड़ी जनजातियों में अपनी ज़मीन और पहचान खोने का डर बना और उन्होंने बड़े पैमाने पर प्रतिक्रिया, जो कभी-कभी हिंसक भी थी, व्यक्त की। दुर्भाग्यवश, राज्य स्तर पर इस मामले को ठीक से नहीं संभाला गया और स्थिति को अशांति और हिंसा में बदलने दिया गया। बड़ी संख्या में घाटी वासियों और पहाड़ी लोगों के बीच झड़पें हुईं और पुलिस के शस्त्रागार लूट लिए गए और बहुत से हथियार गायब हो गए (जिनमें से अधिकांश बरामद नहीं हो पाए)। सेना और पी.एम.एफ. का समुचित इस्तेमाल नहीं किया गया और पुलिस भी इसके लिए तैयार नहीं थी। अब किसी तरह शांति बहाल हुई है, लेकिन सामाजिक ताना-बाना बिखर चुका है और चुप्पी ही एकमात्र संवाद है। पहाड़ी लोग अपनी पुरानी जीवन शैली में वापस नहीं जा पा रहे।
हम बारूद के ढेर पर बैठे हैं, जिसे एक भड़काऊ बयान विस्फोट में बदल सकता है। समुदायों और सरकार के बीच बातचीत की प्रक्रिया शुरुआती दौर में आरंभ नहीं की गई और राज्य सरकार ने जोर-जबरदस्ती वाले तरीकों का इस्तेमाल करना चुना, जो विफल रहा। पूर्वोत्तर में स्थिति संभालने लिए उच्चतम स्तर की राजनीतिक सूझबूझ और राजनीति कौशल की आवश्यकता है। हमें पहले स्थिति को बिगड़ जाने देना और फिर आग बुझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। मैं अन्य राज्यों पर एक नज़र डालना चाहूंगा- मिजोरम में लंबे समय से शांति है, लेकिन अब कुछ आशंकित करने वाले संकेत दिखाई देने लगे हैं। जैसा कि मीडिया में बताया गया है कि भारत सरकार ने मिजोरम सरकार से कहा है कि वह म्यांमार से आने वाले रोहिंग्याओं को शरण न दे और उनके लिए शिविर न बनाए। हालांकि, बताया जाता है कि मिजोरम ने फिर भी ऐसे शिविरों की स्थापना कर रखी है। इसी तरह, मिजोरम सरकार से मणिपुरी शरणार्थियों को भी न लेने और शिविर न लगाने की हिदायत दी गई। हालांकि, उसने वहां के लोगों को भी आने दिया और शिविर बना दिए- ये अच्छे संकेत नहीं हैं। मेघालय भी मणिपुर की पहाड़ी जनजातियों के हितों के प्रति सहानुभूति रखता है और नगालैंड भी।
पूर्वोत्तर को अब पुनर्विचार, पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है...इन राज्यों में सदा ही जनजातीय और धार्मिक आधार पर मतभेद रहे हैं। ये जनजातियां सात राज्यों में फैली हुई हैं और मणिपुर की इन जनजातियों की चिंताएं मेघालय और नगालैंड में भी गूंजती हैं, इसलिए एक राज्य में जो घटित होता है उसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ता है। ऐतिहासिक रूप से म्यांमार और मणिपुर एवं मिजोरम के बीच हिंसा नीत संबंध रहा है, शरणार्थी संकट के मद्देनजर इसमें और वृद्धि होने की संभावना है। ऐसा लगता है कि बांग्लादेश इस क्षेत्र में एक खिलाड़ी बनने के लिए बेताब है और उस पर रणनीति बनाते समय चीन को ध्यान में रखना होगा। मणिपुर में संघर्ष के मौजूदा दौर में मणिपुर एवं मिजोरम, दोनों जगह, भूमिगत तत्व सक्रिय हो गए हैं, सीमा पार करने और तस्करी में भी वृद्धि हुई है। भूकंप के बाद म्यांमार से लोगों और भूमिगत तत्वों की आवाजाही बढ़ने की संभावना है। सीमा प्रबंधन में सुधार करना होगा। कुल मिलाकर, पूर्वोत्तर में बाहरी और आंतरिक, दोनों ही स्थितियों पर उच्चतम स्तर पर बारीकी से नज़र रखने और निर्णय लेने की आवश्यकता है। इन स्थितियों के नियमित रणनीतिक प्रबंधन को राज्य स्तर पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि उनका नजरिया एक सीमा तक होता है। समय बहुत अहम होता है और ऐसी नीति की आवश्यकता है जिसमें उद्देश्य स्पष्ट हों और उनकी प्राप्ति हेतु रणनीतियाें एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने के तरीके और साधन निर्धारित हों।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।