Haryana News : समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में रंगमंच सक्षम : रमेश भनवाला
दलेर सिंह/हप्र
जींद (जुलाना), 26 मार्च
रंगमंच मात्र मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का बेहतरीन जरिया है। भारत में रंगमंच की परंपरा आदिकाल से चलती आ रही है। मानव इतिहास में सबसे पुराने कला रूपों में से एक नाटक के महत्व को रेखांकित करने और लोकप्रिय बनाने के लिए 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है। इस दिन की शुरुआत अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान द्वारा मूल रूप से नाटक और ललित कलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 1961 में की गई थी। दुनिया भर में रंगमंच के महत्व को लोगों तक पहुंचाने और इसके प्रति लोगों में रुचि पैदा करने के मकसद से हर वर्ष विश्व रंगमंच दिवस कलाकारों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है।
जींद निवासी रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार रमेश भनवाला ने विश्व रंगमंच दिवस की पूर्व संध्या पर बुधवार को एक विशेष बातचीत में बताया कि भारतीय रंगमंच ने समय के साथ साथ विषय वस्तु में बदलाव भी किया है। यह बदलाव स्वाधीनता संग्राम में भी देखने को मिला। इससे प्रेरित होकर भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके समकालीन लेखकों ने भरपूर मात्रा में नाट्य रचना की। भारतीय रंगमंच का इतिहास 5 हजार साल से भी अधिक पुराना है। रमेश भनवाला ने बताया कि मानवीय भावनाओं के करीब होने के कारण रंगमंच में विचारों को प्रभावित करने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता है। यह दिन हमें मानव जीवन में रंगमंच के महत्व को भी रेखांकित करता है।
जींद में बने ऑडिटोरियम
भनवाला पिछले 25 वर्षों से रंगमंच करते आ रहे हैं। इस दौरान उन्होंने 26 नाटकों का निर्देशन और 19 नाटकों में अभिनय किया है। पिछले 9 वर्षों से राष्ट्रीय नाट्य उत्सव व रंगमंच पर सेमिनार करते आ रहे हैं। चिल्ड्रन थियेटर वर्कशॉप, विभिन्न स्कूलों व संस्थाओं के साथ करते आ रहे हैं। रंगकर्मी रमेश भनवाला का मानना है कि रंगमंच सभी को एक बार जरूर करना चाहिए। क्योंकि इससे हमारे अन्दर आत्म विश्वास का संचार व प्रवाह होता है। इससे हम मुश्किल से मुश्किल कार्य आसानी से कर देते हैं। उन्होंने सरकार से मांग करते हुए कहा कि जींद में भी एक ऑडिटोरियम होना चाहिए, जिसमें कलाकार अपनी नाट्य प्रस्तुति दे सकें।
मानवीय संवेदनाओं के प्रति दृढ़ संकल्प का प्रतिबिंब
रमेश भनवाला ने कहा कि रंगमंच युगों-युगों से समाज के आदर्शों, मानव अस्तित्व, लोकाचार, भावनाओं, मानवीय संवेदनाओं आदि के प्रति दृढ़ संकल्प को प्रतिबिंबित करता आया है। नाटक की सजीव परंपरा का भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रमुख स्थान है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उत्सवों के दौरान पारंपरिक नाट्य रूपों (सांग, नौटंकी, यक्षगान, तमाशा, भवाई, जात्रा) को प्रस्तुत किया जाता है। पारंपरिक रंगमंच के विभिन्न रूप आम आदमी के सामाजिक दृष्टिकोण और धारणाओं को दर्शाते हैं, जो क्षेत्रीय, स्थानीय और लोक कला के रूप में प्रकट होती हैं। पारंपरिक रंगमंच में सादगी के रूप में एक समान विशेषता पाई जाती है। पारंपरिक नाट्य रूपों का विकास ऐसी ही स्थानीय और क्षेत्रीय विशेषताओं पर आधारित है।