फिरंगियों की कैद में अाज़ादी के संघर्ष का गुमनाम साहित्य
जलियांवाला कांड से लेकर भगत सिंह की शहादत ने पूरे देश को उद्वेलित किया। दमन-क्रूरता के खिलाफ पूरे देश का गुस्सा पत्र-पत्रिकाओं के जरिये फूटा। ये जन अभिव्यक्ति का साहित्य था जिससे भयभीत फिरंगी सरकार ने हजारों पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करके ब्रिटेन भेज दिया। ये साहित्य हमारे आजादी के इतिहास का हिस्सा नहीं बना। इस प्रतिबंधित व उपेक्षित साहित्य को लंदन स्थित इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी से श्रमसाध्य प्रयासों से लेकर आई हैं पुरातत्व व इतिहास विशेषज्ञ राजवंती मान।
कवर स्टोरी
राजवंती मान
अंग्रेजों के भारत में काबिज होते ही प्राच्य ज्ञान, संस्कृति और मूल्यों पर पाश्चात्य असर दृष्टिगोचर होने लगा था। सभ्यताओं के बीच की खाई से जागरूक लोग भारतीय जनता के एक हिस्से के उदीयमान राष्ट्रीय प्रतीक बन रहे थे। परंपरागत चिंतन और पाश्चात्य प्रभाव से राष्ट्रीय चेतना का ढांचा गुना-बुना जाने लगा, जिसको साहित्य, कला, राजनीतिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों और बौद्धिक-साहित्यिक संगठनों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली। अनेक भाषाओं में भारतीय साहित्यकारों ने अंग्रेजों के अन्यायकारी कृत्यों को उजागर करने और जनचेतना जगाने का बीड़ा उठाया। यह साहित्य ब्रितानी हुकूमत के लिए भयभीत करने वाला और असहनीय था। अत: उन्होंने उन रचनाओं को सीआईडी तथा 1860 में बने आईपीसी कानून की धारा 124 ए के तहत प्रतिबंधित या जब्त कर लिया। कलमकारों, प्रकाशकों व मुद्रकों को यातनाएं दी गईं, मुद्रणालयों पर छापे पड़े, जुर्माने और दंड दिये गये पर वे अपने नये नाम-पते के साथ आगे आते रहे।
जनभाषा में जनता का दर्द
जंगे-आजादी में जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) और भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी (1931)- इन दो घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। पंजाब से लेकर कलकत्ता तक अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध वर्नाकुलर और ओरिएंटल साहित्य में तीव्र आक्रोश प्रकट किया गया। इन साहित्यकारों में अधिकतर बुद्धिजीवी लेखक नहीं अपितु जनभाषा में लिखने वाले रचनाकार थे, जो स्थानीय तौर पर बहुत लोकप्रिय थे। अंग्रेजों की इन नृशंस घटनाओं को हिन्दुस्तानियों ने अपनी आंखों से देखा, अपनी आत्माओं पर झेला और साहित्यकारों ने उसे ही अपनी लेखनी से उकेरा। यह साहित्य जनता का साहित्य था, जनता के द्वारा और जनता के लिए लिखा गया साहित्य।
जब्त साहित्य का खजाना
जलियांवाला बाग की नृशंसता पर लेखिका को कई प्रतिबंधित और जब्त हिन्दी पुस्तकें इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी से हासिल हुईं। इनमें बनारस से छपी ‘जलियांवाला बाग का महात्म्य’; जबलपुर से 1922 में प्रकाशित ‘पंजाब का खून’; हाथरस से 1923 में ‘बागे जलियां –सांगीत’; बुलन्दशहर से 1921 में लाला रतनलाल लिखित ‘पंजाब का हत्याकांड’; सूरजभान मटेर राजपूत की अमृतसर से ‘ओडायर शाही यानी मजलूम ए पंजाब’ आदि हैं। लाला किशनचन्द ज़ेबा द्वारा 1922 में लिखा और लाहौर से प्रकाशित एक ड्रामा ‘जख्मी पंजाब’ भी है। इसका एक अंश :-
अगर चलती रही गोली, यूं ही निर्दोष जानों पर।
तो कोए और कबूतर ही, रहेंगे इन मकानों पर॥
मिटा डालेंगे गर इस तरह, हाकिम अपनी
प्रजा को।
हुकूमत क्या करेंगे फिर वह, मरघट और
मसानों पर॥
(‘जलियां बाग की कराहें’ शीर्षक से यह प्रतिबंधित और जब्त साहित्य शीघ्र ही पुस्तक रूप में पाठकों को उपलब्ध होगा।)
कलम से क्रान्ति-ज्वाला
साहित्य समाज का दर्पण होता है, दीपक भी होता है और मशाल भी होता है। साहित्य समाज की विचारधारा का प्रतीक भी होता है और अक्स भी होता है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में विशेषकर जलियांवाला बाग कांड से लेकर भगतसिंह की शहादत तक गुलाम देश की कलम से जो क्रान्ति-ज्वाला निकली उसने देश की समस्याओं, दुर्गति, अन्यायों, अत्याचारों को उजागर करने, आमजन में जागृति और चेतना उत्पन्न करने के उद्देश्य से जो वृहत, निर्भीक और रक्त-रंजित यथार्थ दर्शाता साहित्य रचा उसने अंग्रेजी सरकार की नींद हराम कर दी। हुकूमत पूरी तत्परता से उसे प्रतिबंधित करने के नोटिफिकेशन जारी करती रही और इन प्रकाशनों को चुन-चुन कर जब्त करती रही।
रचनाओं में गुलामी मिटाने की चाह
यह साहित्य उसी दौर में लिखा जा रहा था जिस दौर में यूरोप के साहित्य क्षेत्र के कला सम्बन्धी सिद्धांतों को लेकर देश में भी मधुमयी कल्पना, अभिव्यंजनावाद और चित्रमयी भाषा में प्रेम की हृदयस्पर्शी कविताएं लिखी जा रही थीं और पसंद भी खूब की जा रही थीं। छायावाद की भूमि नम और उर्वर थी और प्रगतिवाद अपनी उपयोगिता व अर्थवाद के पन्ने खोल रहा था। वहीं दूसरी तरफ कुछ अनजाने-अबूझे साहित्यकार देश में गुलामी की छटपटाहट को गम्भीरता से महसूस कर रहे थे और उन बेड़ी-बंधनों को तोड़ने के लिए हर तरह से प्रयासरत थे। ये रचनाएं क्रान्ति-वीरों की देशप्रेम में हिलोरें मारती जवानियों को हवा दे रही थीं।
साहित्य के इतिहास से नदारद
अगरचे इस प्रतिबंधित और जब्तशुदा साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था जबकि देश की अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी में सबसे अधिक लिखा गया। देश के मुक्ति-आन्दोलन में हिन्दी स्वदेशी की पहचान के तौर पर बरती जा रही थी। लेकिन हिन्दी के इतिहास की कोई पुस्तक उठाकर देख लीजिये इस साहित्य की मात्र निशानदेही मिलती है और कहीं तो वह भी नहीं मिलती। यह अचम्भित करता है। अफ़सोस है कि हम आज भी हिन्दी को उस समावेशी स्वरूप में नहीं देख रहे हैं। हिन्दी-प्रेमियों की ओर से जो थोड़ी-बहुत आवाजें यदा-कदा उठती हैं उनके आशय भी अस्पष्ट हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो क्या इतना विपुल साहित्य भण्डार जिसने ब्रितानी हुकूमत की चूलें हिला दी थी आज तक हिन्दी साहित्य की किताबों, साहित्य के इतिहास, हिन्दी के शोध-प्रबंधों या पाठ्यक्रमों में अपनी महती भूमिका की वजह से सम्मिलित नहीं होता? क्या राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रवाद और हिन्दी का मंचों से गुणगान करने वालों द्वारा उसे खोज कर प्राप्त करने और शिक्षण-संस्थानों व पुस्तकों में राष्ट्रीय-अस्मिता के प्रतीक इस साहित्य को यथा-योग्य स्थान दिया जाना अपेक्षित नहीं है? इसमें लोक है, जन है, जन-भावना है, जन-साहित्य है, जन-चिन्तन है और उत्कट राष्ट्र-भक्ति है।
साहित्य और इतिहास की सीमा रेखा!
बेशक इसके कई कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि इस साहित्य को प्रकाशित होते ही जब्त करके या तो देश के चंद अभिलेखागारों में बन्द कर दिया गया या फिर देश में छोड़ा ही नहीं गया तो क्योंकर ऐसे साहित्य को इतिहास का हिस्सा बनाया जाता! दूसरे यह कि हिन्दी-प्रेमियों ने इस क्रांन्तिकारी-साहित्य को इतिहास का हिस्सा मान कर हाथ नहीं डाला, उधर इतिहासकारों ने इसे साहित्य मान कर अपने पारम्परिक स्रोत में बहुत अधिक स्पेस नहीं दिया। अगर साहित्य समाज का दर्पण, दीप, या मशाल है तो समाज, साहित्य और इतिहास आपस में जुड़े हुए हैं। वे एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं, अपितु पूरक हैं। इतिहास के बगैर साहित्य अधूरा है और साहित्य के बगैर इतिहास अध्ययन सम्पूर्ण नहीं।
इंडिया आफिस लाइब्रेरी लंदन
अगर देखा जाए तो 1905 से लेकर और विशेषकर 1919-21 व 1931-32 में राजनीतिक सरगर्मियों पर सबसे अधिक साहित्य रचा गया। इसने आजादी के संघर्ष को धार देने में विशिष्ट भूमिका निभाई। उस समय देश के भिन्न- भिन्न क्षेत्रों से सरकार के विरुद्ध जो भी साहित्यिक पुस्तिकाएं और पेम्फलेट छपे, ब्रितानी हुकूमत द्वारा उन्हें आपत्तिजनक मान कर जब्त करके इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लंदन में स्थानांतरित कर दिया गया था। विभिन्न भाषाओं का विस्तृत संग्रह दशकों तक उनकी अलमारियों में तालाबंद रखा गया। साल 1947 के बाद ही इसे अलमारियों से निकाला गया और इसके विस्तृत कैटलॉग तैयार करने का सिलसिला शुरू किया गया। परन्तु 1967 तक इसको अलग ही ‘गोपनीय संग्रह’ के तौर पर रखा गया। अस्सी के दशक में यह सारा साहित्य ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन में शिफ्ट कर दिया गया जो अब शोधकर्ताओं के लिए खुला है। यहां पूरे भारतवर्ष से जब्त किये गये हिन्दी भाषा के उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में प्रकाशित तथा प्रतिबंधित प्रकाशनों, दस्तावेजों- पुस्तिकाओं की संख्या अट्ठाईस हजार से भी अधिक है।
एक दस्तावेज से लगी भंडार खोजने की ललक
लेखिका ने 1930 से 1932 की अल्पकालावधि में लिखी गईं पांच सौ से अधिक काव्य-रचनाएं, तीस प्रतिबंधित एवं जब्त पुस्तकें और दुर्लभ पोस्टर्स / चित्रों का विपुल भंडार सद्य: प्रकाशित ‘कलम की आंच’ में समाहित किया है। क्रान्तिकारी हिंदी साहित्य को खोजने-जुटाने का सिलसिला तीन दशक पहले से चल रहा है। वह उन्नीस सौ नब्बे का दशक था जब हम देशभक्ति से ओतप्रोत और रोमांचित करने वाले दस्तावेजों की प्रदर्शनियां लगाते थे। उन्हीं प्रदर्शों में एक दस्तावेज 26 जनवरी 1930 को ‘स्वतन्त्रता दिवस’ के रूप में मनाने के सम्बन्ध में था। सोनीपत (हरियाणा) के तत्कालीन म्यूनिसिपल कमिश्नर, लाला कांशीराम जुलूस के साथ उस आयोजन में शामिल होते हैं, तिरंगा फहराते हैं और एक नज्म गाते हैं :-
‘शहीदों के खूं का असर देख लेना,
मिटायेंगे जालिम का घर देख लेना।
किसी के इशारे के मुन्तजिर हैं,
बहा देंगे खूं की नहर देख लेना।’
इस कार्यक्रम से ब्रितानी हुकूमत की भवें तन जाती हैं। कांशीराम को नज्म पढ़ने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता है। इल्जाम लगाया जाता है कि यह नज्म राष्ट्र-विरोधी है जिसे प्रतिबंधित किया जा चुका है। कांशीराम अपनी सफाई में कहते हैं कि यह नज्म सिर्फ ‘जोशीली’ है, राष्ट्र विरोधी नहीं और जिस पुस्तिका से पढ़ी गई है वह अभी तक प्रतिबंधित या जब्त नहीं की गई है। परन्तु उनकी कोई दरख्वास्त नहीं सुनी गई और उन्हें तुरंत पद से बर्खास्त कर दिया गया। तभी से एक अनियोजित सा विचार इस साहित्य की खोज का बीज-तत्व बनकर मानसपटल की उष्ण भूमि में रोपित हो गया। कौन हैं इस नज्म के रचयिता? कहां है वह पुस्तक जिसमें संगृहीत एक नज्म पढ़ने से अंग्रेजी हुकूमत इस कदर आक्रोशित और भयभीत हो गई। क्या यह केवल एक प्रशासनिक या राजनीतिक घटना थी या फिर यह समझा जाये कि अंग्रेजी ऐतिहासिक सन्दर्भों और दस्तावेजों के इतर ‘कलम’ का यह देशी नैरेटिव या देशी साहित्य अधिक मुखर और अधिक जन-पक्षीय था जिसे अधिकांशत: अविलम्ब प्रतिबंधित और जब्त करके देश की सीमाओं से बाहर अर्थात इंग्लैंड ले जाकर पटक दिया गया। इतिहास लेखन के लिए अंग्रेजी स्रोत के अंग संग देशी सन्दर्भों की अन्वीक्षा भी लाजमी है तभी वह समावेशी, निष्पक्ष एवं सम्पूर्ण इतिहास होगा!
लेखिका की पुस्तक ‘कलम की आंच’ जो भगत सिंह और साथियों से सम्बन्धित जब्त साहित्य पर आधारित है उसमें समाहित कुछ टाइटल : बलिवेदी पर ‘सरदार’, 1931; आजादी की तोप 1930; अंग्रेजों की बोलती बंद 1931; चंद्रशेखर आजाद,1931 ; राष्ट्रीय आल्हा यानी भगतसिंह की लड़ाई 1931; कजली बमकेस उर्फ भगतसिंह की फांसी 1931; क्रांति का पुजारी 1931 ; मर्दाना भगत सिंह 1931; वीरों का झूला 1931; फांसी के शहीद 1931; सरदार भगतसिंह की नई कजरी 1931; खून के आंसू 1931; अंग्रेजों की अकड़फूं निकल गई 1931; शहीदे पंजाब 1931; जिगर के टुकड़े 1931; लाहौर की सूली 1931; लाहौर की फांसी अर्थात भगतसिंह का तराना 1931; शहीदों की गर्जना 1931 आदि हैं।
साहित्यिक धरोहर के प्रति उदासीनता
यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि हम अपनी साहित्यिक धरोहर के प्रति अति उदासीन हैं। यहां एक उल्लेख पाठकों के समक्ष रखना चाहूंगी। आपको शायद याद हो कि निर्मल वर्मा ने उनके यात्रावृत्तांत ‘चीड़ों पर चांदनी’ में सागा-ग्रन्थों का जिक्र किया है। इन ग्रन्थों का सम्बन्ध आइसलैंड से है। यहां उस छोटे से देश आइसलैंड की मिसाल देना प्रासंगिक है। उनके 11-13वीं सदी के दौरान रचे गये सागा-ग्रन्थों को 17वीं सदी में डेनमार्क ले गया। आइसलैंड के बाशिंदों के लिए उनके साहित्यिक धरोहर से बिछोड़ा टीस की तरह था। तथ्यात्मक जानकारी जुटाने की गरज से लेखिका ने इस सम्बन्ध में आइसलैंड के पांडुलिपि विभाग से पत्राचार किया। मेरी ईमेल के उत्तर में (जिसे मैं यहां अनुदित कर प्रस्तुत कर रही हूं) उन्होंने लिखा– ‘आइसलैंड की मध्यकालीन पांडुलिपियां डेनिश किंग के कहने पर 17वीं शताब्दी में डेनमार्क ले जाई गईं। एक आइसलैंडी व्यक्ति अर्नी मग्नुसन द्वारा इन्हें 17वीं सदी के आखिर और 18वीं सदी के शुरू में अवाप्त (प्राप्त) भी कर लिया था परन्तु यहां कोई ऐसी संस्था न थी (जो उन्हें संरक्षित कर पाती) सो यह संग्रह उनकी इच्छानुसार कोपेनहेगेन यूनिवर्सिटी को दान कर दिया। परन्तु 20वीं सदी के प्रारम्भ से ही आइसलैंडियों द्वारा बारम्बार यह मामला उठाया जाता रहा और अंततः उनका प्रयास सफल हुआ। 1971-1996 के बीच सारी तो नहीं लेकिन अधिकतर पांडुलिपियां उन्हें मिल ही गईं’। सारांश यह कि उन्होंने अपने निरंतर प्रयासों से बीसवीं शताब्दी में इन्हें पुन: प्राप्त करके ही चैन लिया। हम अपनी स्वतन्त्रता की 75वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव मना रहे हैं, क्या अभी तक किसी सरकारी संस्था, विश्वविद्यालय के हिन्दी या इतिहास विभागों या अन्य संगठन द्वारा ऐसी कोई कोशिश हुई है कि गुलामी के दौर में तलवार की धार पर चलकर रचनाकारों ने जो चेतनता का मूल-साहित्य रचा जिसमें आमजन की छटपटाहट है, आकांक्षाएं हैं, दुःख-दर्द हैं उन हजारों जब्त पुस्तकों को खोज निकाला जाए? वहीं जो प्रकाशन ब्रिटिश हुकूमत यहां से ढोकर ले गई उन्हें वापस लाने के प्रयास किसी स्तर पर किये जाएं? क्या यह हमारी सोच, इतिहास-बोध, परम्परा, साहित्यिक-दृष्टि पर प्रश्न चिन्ह नहीं है कि आज तक हम उन कलम-साधकों के नामों और रचनाओं से अनभिज्ञ हैं?