एक थे मनोज कुमार, जो अब नहीं!
मनोज कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे, ये सुनना अजीब सा लगता है। मनोज कुमार उन कलाकारों में थे, जिन्हें 60 के बाद से लेकर 90 के दशक से पहले के दर्शक पसंद करते थे। वे सिर्फ एक्टर या डायरेक्टर ही नहीं थे, उससे कुछ अलग थे और उनके जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ। देशभक्ति और सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित फ़िल्में बनाने में वे बेजोड़ थे। उन्हें 7 फिल्म फेयर अवार्ड मिले थे। वर्ष 1968 में पहली बार फिल्म फेयर ‘उपकार’ के लिए मिला। साल 1992 में उन्हें पद्मश्री व 2016 में दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजा गया।
हेमंत पाल
मनोज कुमार के न रहने को आज के दौर से ज्यादा 90 के दशक से पहले के दर्शकों ने गंभीरता से महसूस किया। उस दौर के सिनेमा में जिन अभिनेताओं को पसंद किया जाता रहा, उनमें मनोज कुमार भी एक थे। वे सिर्फ अभिनय ही नहीं करते रहे, उन्होंने फ़िल्में बनाने का जोखिम भी मोल लिया, जो आज के मुकाबले उस समय ज्यादा मुश्किल था। उन्होंने लीक से हटकर विषयों का चुनाव किया। इन्हीं में एक देशभक्ति और सामाजिक समस्याएं था। उनकी फिल्मों के देशभक्ति वाले कथानक की वजह से मनोज कुमार के नाम के साथ ‘भारत कुमार’ चस्पां हो गया। ‘उपकार’ से उन्होंने फिल्म निर्माण में कदम रखा और सामाजिक विषयों को ऐसी पहचान बना लिया कि दर्शक उनसे ऐसी ही फिल्मों की अपेक्षा करने लगे। अपने आधे चेहरे को उंगलियों से ढकने का उनका स्टाइल उनकी पहचान बन गया था। उनकी यादगार फिल्मों में ‘शहीद’ (1965) शामिल है, जो भगत सिंह के जीवन पर बनी थी। पूरब और पश्चिम (1970) की कहानी सांस्कृतिक पहचान पर बनाई गई, रोटी कपड़ा और मकान (1974) जीवन की जरूरतों और सामाजिक मुद्दों को कुरेदती थी और ‘क्रांति’(1981) देश के स्वतंत्रता संग्राम पर बनी एपिक फिल्म रही।
साल 1961 में मनोज कुमार को बतौर हीरो ‘कांच की गुड़िया’ से ब्रेक मिला। इसके अगले साल विजय भट्ट की फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ ने उनकी ज़िंदगी का रास्ता बदल दिया। 40 साल के फिल्म कैरियर में मनोज कुमार ने कई फिल्मों में काम किया और खुद भी फिल्में बनाई। इन सभी फिल्मों में उन्होंने फिल्म के कॉन्टेंट और फ़ॉर्म पर लगातार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। कहानी लिखने में उनकी महारत थी। वो ऐसी कहानियां रचते थे, जिनसे दर्शक आसानी से जुड़ाव महसूस कर सकें। उनकी हर फिल्म में हर दर्शक के लिए कुछ न कुछ होता था। ‘शोर’ एक परिवार की खूबसूरत कहानी थी, जिसने मनोज कुमार को निर्देशक के तौर पर स्थापित किया।
‘हरियाली और रास्ता’ से मिली पहचान
मनोज कुमार के कैरियर की शुरुआत फिल्म फैशन (1957) में एक छोटे से किरदार से हुई। पर, उन्हें असली पहचान 1962 में आई फिल्म ‘हरियाली और रास्ता’ से मिली। अभिनय के बाद उन्होंने निर्देशन में भी हाथ आजमाया और इसकी शुरुआत 1965 में आई फिल्म ‘शहीद’ से की। साल 1967 में मनोज कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर उनके ‘जय जवान जय किसान’ नारे पर ‘उपकार’ बनाई। लेकिन लाल बहादुर शास्त्री इसे देख नहीं सके। 1966 में शास्त्री जी ताशकंद के दौरे पर गए थे जहां 11 जनवरी 1966 को उनकी मौत हो गई। इसके एक साल बाद 11 अगस्त 1967 को फिल्म रिलीज हुई। शास्त्री जी को फिल्म न दिखा पाने का अफसोस ताउम्र मनोज कुमार को रहा। फिल्म हिट रही और इसके गाने ‘ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम’, ‘सरफरोशी की तमन्ना’ और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ काफी पसंद किए गए।
प्रयोगधर्मी पर फार्मूलों से पहचान
फिल्मों में नए-नए प्रयोग करते हुए मनोज कुमार इतने विश्वसनीय हो गए थे कि उनकी फिल्म में वे जो भी प्रयोग करते, सहयोगी कलाकार आंख मूंदकर सब करते जाते। ऐसे में मनोज कुमार ने देशभक्ति के साथ ही अपनी फिल्मों में वह सब शामिल कर लिया, जो आमतौर पर मुश्किल होता है। मनोज कुमार ही थे जिन्होंने ‘रोटी कपडा और मकान’ में ‘हाय हाय यह मजबूरी’ में जीनत अमान को जी भरकर भिगोया। उन्होंने ‘पूरब पश्चिम’ में सायरा को ग्लैमर में ढालकर दिखाया, ‘यादगार’ में नूतन जैसी पारिवारिक अभिनेत्री को स्विमिंग सूट पहनाया और ‘क्रांति’ में हेमा मालिनी को पानी में तरबतर दिखाया। बावजूद उनकी फिल्मों में देशभक्ति का जज्बा जरा भी कम नहीं हुआ।
फिल्मों के तकनीकी पक्ष, कैमरा और फाइटिंग सीन में भी मनोज कुमार की जबरदस्त पकड़ थी। ‘उपकार’ और ‘शोर’ की फाइटिंग सीक्वेंस एकदम वास्तविक लगती है। ‘शोर’ में झूले का प्रयोग और बिजली की लुकाछिपी के दृश्य अद्भुत थे। ‘पूरब पश्चिम’ की पहली कुछ रील ब्लैक एंड व्हाइट थी। लेकिन, ब्रिटिश यूनियन जैक के उतरते ही तिरंगे के चढ़ने के साथ फिल्म का कलर में बदलना ऐसा प्रयोग था, जिसे उस समय करना तो दूर, सोचना भी मुश्किल था। लेकिन भाई की असफलता, पिता की मौत और पारिवारिक विवाद से तंग आकर मनोज कुमार ने फिल्मों से दूरी बनाकर अपने साथ ही दर्शकों का भी भारी नुकसान किया।
दिलीप कुमार से ही उन्हें मिला नाम
बचपन से ही वे दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। दिलीप साहब की फिल्म शबनम (1949) मनोज कुमार को इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसे कई बार देखा। फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था। जब मनोज कुमार फिल्मों में आए तो उन्होंने अपना नाम भी मनोज कुमार कर लिया। बाद में मनोज कुमार ने फिल्म क्रांति (1981) में दिलीप कुमार को डायरेक्ट भी किया। उन्हें फिल्म मिलने की घटना भी किसी फ़िल्मी घटना से कम नहीं थी। एक दिन जब लाइट टेस्टिंग के लिए मनोज कुमार हीरो की जगह खड़े थे तो उनका चेहरा कैमरे में आकर्षक लग रहा था। एक डायरेक्टर ने उन्हें 1957 में आई फिल्म ‘फैशन’ में एक छोटा सा रोल दिया जिसमें कुछ मिनट की एक्टिंग में मनोज कुमार छाप छोड़ने में कामयाब रहे। उसी रोल की बदौलत मनोज कुमार को फिल्म कांच की गुड़िया (1960) में लीड रोल मिला। पहली कामयाब फिल्म देने के बाद मनोज ने रेशमी रुमाल, बनारसी ठग, गृहस्थी, अपने हुए पराए, वो कौन थी जैसी कई फिल्में दीं।
प्राण को अलग भूमिका में लेकर नई पहचान दी
मनोज कुमार को विलेन का किरदार निभाने वाले प्राण की इमेज बदलने का भी श्रेय दिया जाता है। 1966 में आई फिल्म ‘दो बदन’ में मनोज कुमार ने प्राण के साथ काम किया और दोनों दोस्त बन गए। प्राण को तब फिल्मों में निगेटिव रोल मिलते थे। उनकी छवि बदलने के लिए मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म ‘आह’ में पॉजिटिव रोल दिया। पर, ये फिल्म फ्लॉप रही। इसके बाद मनोज कुमार ने अपनी फिल्म ‘उपकार’ में उन्हें मलंग बाबा का रोल देने का फैसला किया। फिल्म में अपना किरदार पढ़ने के बाद प्राण ने कहा कि स्क्रिप्ट और मलंग का किरदार दोनों खूबसूरत हैं। लेकिन, मेरी छवि खूंखार, शराबी, जुआरी और बलात्कारी की है। क्या दर्शक मुझे साधु के रोल में अपना लेंगे। इसके बाद मलंग बाबा का किरदार खूब लोकप्रिय हुआ। ‘पूरब और पश्चिम’ में उन्होंने मदन पुरी के साथ यह फार्मूला अपनाया। प्रेमनाथ से भी उन्होंने ‘शोर’ में दबंग और दयावान पठान की भूमिका करवाकर उनका कायाकल्प कर दिया। इसी तरह प्रेम चोपड़ा, जोगिंदर और मनमोहन की इमेज बदलने में भी कामयाब रहे। वे पहले फिल्मकार थे, जिन्होंने पाकिस्तानी कलाकारों को हिंदी फिल्मों में मौका दिया। लेकिन, अब ये सब बीती बातें हो गई। अब सिर्फ उनकी फ़िल्में ही बची हैं, जो उनकी याद को ताजा करती रहेंगी कि एक थे मनोज कुमार!