मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

अयोध्या की पवित्र परंपराओं और आस्थाओं का उत्सव

04:05 AM Apr 04, 2025 IST

राम मंदिर के निर्माण के बाद अयोध्या में रामनवमी का उत्सव एक नया रूप लेकर सामने आया, लेकिन यह सवाल अब भी बना हुआ है कि इससे पहले रामनवमी कैसे मनाई जाती थी। आज अयोध्या की रामनवमी की परंपराओं और उनके बदलते स्वरूप में क्या बदलाव आया है। रामनवमी के दौरान होने वाले विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान और उत्सवों के माध्यम से अयोध्या की धार्मिक धारा को समझने की आवश्यकता है।

Advertisement

कृष्ण प्रताप सिंह
पिछले साल अयोध्या में निर्मित भव्य राम मंदिर में प्रधानमंत्री द्वारा रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद पहली रामनवमी आई तो देश-विदेश के विभिन्न अंचलों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु वहां पहुंचे। रंग-बिरंगे पुष्पों व प्रकाश पुंजों की जगर-मगर के बीच वे रामलला के अभिषेक व शृंगार के साथ पहली बार हुए सूर्य तिलक और इन सबसे सम्बंधित विशेष अनुष्ठानों के सहभागी बने तो उनकी जिज्ञासा थी कि इस राम मंदिर के निर्माण से पहले अयोध्या में रामनवमी किस तरह मनाई जाती थी?
यह जिज्ञासा इस रामनवमी पर भी जस की तस है क्योंकि अभी तक उसको उस समग्रता से सम्बोधित नहीं किया जा सका है, जैसे किया जाना चाहिए।
यहां उसे सम्बोधित करें तो हम पाते हैं कि मंदिर निर्माण से पहले भी अयोध्या में रामनवमी पर विशाल मेला लगा करता था और उसकी धूमधाम के बीच रामलला के जन्म का मुख्य उत्सव कनक भवन में आयोजित किया जाता था। कनक भवन के बारे में कहा जाता है कि माता कौशल्या ने राम के विवाह के बाद अपनी बहू सीता को उसे मुंह दिखाई में दिया था।
इस भवन में रामनवमी की गहमागहमी होली के फौरन बाद से ही शुरू हो जाया करती है और भक्त व श्रद्धालु चैत्र नवरात्र की प्रतिपदा से ही अपने राम के जन्मोत्सव की प्रतीक्षा में लग जाया करते हैं। वहां रामजन्म का उत्सव पिछले साल भी हुआ, लेकिन उसके प्रति आकर्षण थोड़ा कम होता दिखा, क्योंकि भक्तों व श्रद्धालुओं का मुख्य प्रवाह राममंदिर की ओर हो गया था, जिसके इस साल भी बने रहने के आसार हैं।

बहरहाल, इस सिलसिले में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य कृष्णदत्त मिश्र ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘गौतम चंद्रिका’ में लिखा है कि उनके गुरु के समय अयोध्या में रामलीलाएं भी रामनवमी के अवसर पर ही आयोजित की जाती थीं।
दरअसल, तुलसी ने रामचरितमानस की रचना शुरू की तो उन दिनों अयोध्या में आम तौर पर होते रहने वाले वाल्मीकि रामायण के पाठ से प्रभावित होकर रामलीलाओं की ओर आकृष्ट हुए। फिर उन्होंने झांकियों व मूक अभिनयों के साथ रामचरितमानस के गायन वाली रामलीलाएं शुरू कराईं, जो ऐसे कार्यक्रम के अनुसार मंचित की जाती थीं ताकि उनका मुख्य उत्सव रामनवमी पर ही हो। लेकिन इनकी परम्परा कुछ वर्ष ही चल पाई और जल्दी ही उनकी जगह दशहरे पर होने वाली रामलीलाओं ने ले ली। अलबत्ता, उन्होंने भी तुलसीदास की भावनाओं के अनुसार भगवान राम की आनंदकंद, प्रजावत्सल, कृपालु, समदर्शी और मूल्यचेता छवि को ही आगे किया। कुछ इस तरह कि जितनी रामलीलाएं, उतनी ही रामकहानियां प्रचलित हो गईं।
थोड़ा पीछे जाकर इन राम कहानियों का उत्स तलाशें तो वह रामानन्दी सम्प्रदाय की मान्यताओं में प्राप्त होता है। ज्ञातव्य है कि नये राममंदिर में इसी सम्प्रदाय की पद्धति से ही रामलला की पूजा और अनुष्ठान वगैरह किये जाते हैं और रामनवमी भी इसकी अपवाद नहीं है।
जानकारों के अनुसार इस सम्प्रदाय के प्रणेता रामानन्द की शिष्य परम्परा की चौथी पीढ़ी में अग्रदास हुए और सोलहवीं शताब्दी में उन्होंने रसिक सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तो अयोध्या पर उसका भरपूर प्रभाव पड़ा। उसके ज्यादातर संत-महंत रसिक सम्प्रदाय के अनुयायी और अनुगामी बन गये।
उनके सम्प्रदाय में भगवान राम रसिक बिहारी और कनक बिहारी तो हैं ही, ‘आनन्दकंद, दशरथनन्द, दीनबंधु और दारुण भवभयहारी’ के साथ ‘नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम‍्’ भी हैं। हां, कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरद सुन्दरम‍् भी। स्वाभाविक ही रामनवमी में होने वाले अनुष्ठानों में उनकी इन्हीं छवियों का बोलबाला होता है।
इन्हीं छवियों के तहत जन्म के बाद वे कभी फूल बंगले में विराजते हैं और कभी हिंडोलों में झूलते हैं। सावन आता है तो अयोध्या में पूरा एक महीना उनके झूलनोत्सव के नाम हो जाता है। इसी क्रम में श्रीरामपंचायतन की परम्परा से चली आती तस्वीरों में वे महारानी सीता, अपने तीनों भाइयों और हनुमान के साथ सबके लिए आश्वस्तिकारक मुद्रा में दिखाई देते हैं।
अयोध्या में एक सखी सम्प्रदाय भी है, जो भगवान राम से अपना वह रिश्ता मानकर उनसे खूब हंसी-ठिठोली करता है। इस सम्प्रदाय के भक्त अपने गीतों में भगवान राम को अपना बहनोई मानकर मीठी-मीठी गालियों से नवाजते हैं तो श्रद्धालु भी उसमें भरपूर रस लेते हैं।
प्रसंगवश, अयोध्या की रामनवमी की एक झलक आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने 1871 के आस-पास किसी रामनवमी के अवसर पर की गई अपनी सरयू पार की यात्रा में भी दिखाई है। इस यात्रा से लौटकर अपनी पत्रिका ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ में उन्होंने ‘सरयूपार की यात्रा’ शीर्षक से ही एक निबंध लिखा तो उसमें अनेक कठिनाइयों के बीच अयोध्या पहुंचने और रामनवमी की रात अयोध्या में काटने का जिक्र किया।
कुछ इस तरह कि अयोध्या के लोगों की गरीबी को भी बेपर्दा कर डाला और रसिकता का भी। उन्हीं के शब्दों में : (अयोध्या में) भीड़ बहुत है। (लेकिन) मेला दरिद्र और मैले लोगों का। ...राह में (भी) मेला ख़ूब... जगह-जगह पर... चूल्हे जल रहे हैं। सैकड़ों अहरे लगे हुए हैं, कोई गाता है, कोई बजाता है, कोई गप हांकता है। ...मेले में अवध प्रांत के लोगों के स्वभाव, रेल और अयोध्या (के बारे में) ...इधर राह में मिलने से ख़ूब मालूम हुआ।
अब समय के साथ इस मेले में बहुत कुछ बदल गया है तो रामनवमी के उत्सव में भी बहुत-सी नवीनताएं जुड़ गई हैं। लेकिन अभी भी रामनवमी पर भगवान राम के नाम और उनसे जुड़े स्थलों का महात्म्य बताने वालों की बहार पहले की ही तरह आती है।

Advertisement
Advertisement