जनमानस के वर्तमान हैं युगपुरुष श्रीकृष्ण
सरस्वती रमेश
भारतीय संस्कृति में श्री कृष्ण का आकर्षण, उनका सम्मोहन अक्षुण्ण है। कृष्ण जिस ठाठ से हजारों वर्ष पूर्व गोकुल में उपस्थित रहे, उसी ठाठ से आज भी लोगों के दिलों में विराजमान हैं। कृष्ण जैसा नायक कभी इतिहास नहीं हो सकता, उसे जनमानस अपनी स्मृति में संजोकर हमेशा वर्तमान बनाकर रखता है। दरअसल, कृष्ण किसी एक युग के नहीं हैं, वह तो स्वयं एक युग हैं, जिसका विस्तार अनादिकाल से अब तक चला आ रहा है। भारतीय संस्कृति को इस धरोहर को सहेजने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ी। बल्कि, कहा जाना चाहिए कि पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक कृष्ण नाम की संधि है।
विरोधाभासी व्यक्तित्व
श्री कृष्ण का व्यक्तित्व विरोधाभासों का ग्रंथ है। उनका जीवन राजसी सत्ता के करीब बीता, लेकिन उन्हें याद करते समय हमारे मन में ग्वाले कन्हैया की छवि उकरती है। सिंहासन पर बैठे हुए और राजसी आदेशों के पालन की आज्ञा देते हुए भला कितने लोग उन्हें स्मरण करते हैं। उनका माखनचोर बाल्यरूप हमें मोहित करता है और हम वनमाला, मोरपंखी धारी कृष्ण के आराधक हैं। दरअसल, कृष्ण हमेशा ईश्वर होते हुए भी मनुष्य रहे। योगी होते हुए भी प्रेमी रहे। वे विराट व्यक्तित्व के स्वामी हैं लेकिन मनुष्य बनकर जीते रहे। कभी वे धेनु चराते हैं और कभी अर्जुन के रथ पर सवार होकर धर्म का रास्ता दिखाते हैं। कदंब की डार पर बैठकर कभी बांसुरी बजाते हैं, कभी शिशुपाल पर सभा में सुदर्शन चलाते हैं। उनके आचरण की इसी विविधता, इसी स्वरूप की हम उपासना करते हैं।
सार्वभौम हैं कृष्ण
कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें हैं… मैं सब में हूं…। कृष्ण तो सार्वभौम हैं। धरती से लेकर नक्षत्रों तक उनकी पहुंच है। उनका स्वरूप वैश्विक है। उन्हें किसी एक चरित्र, किरदार अथवा रूप में नहीं बांधा जा सकता। वे राधा के प्रेमी हैं, तो रुकमणि के पति भी। सुदामा के मित्र हैं, तो अर्जुन के सखा भी। मगर देखिए, दोनों ही मित्रता में कितना फर्क है। अपने दोनों मित्रों को ही उन्होंने दान दिया। मगर जहां सुदामा को प्रेमवश तीनों लोक हार बैठे, वहीं अर्जुन को गीता के जरिये कर्मयोग का ज्ञान दिया। एक में बिना मांगे सब मिल रहा है और दूसरे में कर्म करने का शाश्वत ज्ञान दिया जा रहा है।
योगी श्री कृष्ण
कृष्ण योगी हैं। मगर उनका योग इसी संसार से उपजा और इसी संसार में किया जाने वाला है। अगर वह राधा के प्रेम में हैं, तो यह प्रेम उनकी मुक्ति का मार्ग है, कोई बंधन नहीं। संसार में होने वाली हर गतिविधि से उनका जुड़ाव है, मगर फिर भी वे सबसे अलग हैं। उन्होंने दुनिया को कर्म के महान ज्ञान से अवगत कराया। कर्म करो, फल की चिंता मत करो। जब हमारा कोई भी काम निष्काम भाव से किया जाता है, तो हम उसके परिणाम पर आनंदित या दुखी नहीं होते। जीवन में मिलने वाली निराशाओं को सहज भाव से लेते हैं। यही तो संसार में रहकर की गयी योग साधना है। उन्होंने अपने हर रूप में अपना कर्म किया। अपने कर्म पर ईश्वरत्व की छाया भी नहीं आने दी। बचपन में अपने गरीब सखाओं के साथ गाय चराने गए। सुदामा के साथ जंगल में लकड़ियां काटी। राधा से प्रेम किया और द्रौपदी की चावल की हांडी से निकाल कर अन्न का एक दाना ग्रहण कर दुनियाभर की भूख मिटा दी।
जब पुत्र वियोग में कलप रही गांधारी ने उन्हें समस्त वंश नाश होने का अभिशाप दिया, तब भी उन्होंने ईश्वर होने के नाते उस अभिशाप का प्रभाव खत्म करने की कोशिश नहीं की। पर जब धर्म की रक्षा करने की बात आई, तो वो हमेशा खुद से भी आगे रहे। पांडवों को अपनी कूटनीति के बल पर जिताया। अपने प्रभाव से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। शिशुपाल का वध किया। दुर्योधन को पूरा लौह बनने से रोक लिया और द्रौपदी के शील की रक्षा की। इस धरती पर कृष्ण अकेले ऐसे योद्धा हैं, जिनके हाथ में बांसुरी विराजती है।
कृष्ण सोलह कलाओं में निपुण हैं। धन, संपत्ति, यश-कीर्ति, सम्मोहन, लीलाधारी, सौंदर्य, मेधा, निश्चल, प्रेरणादायी, कर्मशील, विवेकवान, चित्त को जोतने वाले, विनम्र, प्रभावशाली, उपकारी और कटु सत्य बोलने वाले। इतनी कलाओं से युक्त व्यक्ति असाधारण ही होगा और असाधारण ही युगों-युगों तक जीवित रहते हैं।