वर्चुअल ऑटिज़्म के शिकंजे में बच्चे
बहुत छोटे बच्चों का भी फोन या टीवी स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताना उनमें इन इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के इस्तेमाल की लत पैदा कर रहा है। जिससे वर्चुअल ऑटिज़्म का जोखिम बढ़ जाता है। बेहतर है अभिभावक उन्हें गैजेट्स से दूर रखें। बच्चों को वर्चुअल नहीं बल्कि असली संसार से जोड़ना चाहिये। ताकि उनका प्राकृतिक सामाजिक-भावनात्मक तौर पर संतुलित विकास हो।
डॉ. मोनिका शर्मा
स्मा र्ट गैजेट्स को दिया जा रहा समय बच्चों के समग्र विकास पर दुष्प्रभाव डाल रहा है। बोलने-समझने की उम्र से पहले ही स्क्रीन में झांकते रहने की आदत तो संवाद और सामाजिकता के मोर्चे पर मासूमों के सहज विकास में बड़ी बाधा बन गई है। कभी गेम, कभी कार्टून। पलक तक झपकाना भूल जाने वाले छोटे-छोटे बच्चों का स्क्रीन के संसार में गुम रहना बहुत सी व्याधियों को न्योता देने वाला है। परवरिश के परम्परागत रंग-ढंग की जगह ले रहा तकनीकी जाल बच्चों को वर्चुअल ऑटिज़्म का शिकार बना रहा है। बहुत छोटे बच्चों में स्क्रीन यानि टेलीविजन, स्मार्ट फोन, टैबलेट जैसे गैजेट्स के अत्यधिक इस्तेमाल से वर्चुअल ऑटिज़्म की समस्या पैदा होती है। आभासी संसार में खोये रहने वाले बच्चे सामाजिक संपर्क बनाने में असहज महसूस करते हैं। देरी से बोलना सीखते हैं। दूसरी की बात समझने में कठिनाई होने लगती है। कई मामलों में दोहराव पूर्ण व्यवहार जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ऐसे में अभिभावक मोबाइल आदि की स्क्रीन से बच्चों को दूर रखें। बता दें कि अप्रैल माह ऑटिज़्म की समस्या कोई लेकर अवेयरनेस लाने से जुड़ा है।
समस्याओं का घेरा
हालिया वर्षों में परवरिश के मोर्चे पर टेक्निकल गैजेट्स के इस्तेमाल की अति से बच्चों को बचाने की ज़िम्मेदारी भी जुड़ गई है। यह डिजिटल व्यस्तता बालमन को कमोबेश हर मामले में नुकसान पहुंचाने वाली है। बच्चों के मानसिक-मनोवैज्ञानिक विकास को प्रभावित करने वाली वर्चुअल ऑटिज़्म समस्या कई दूसरी व्याधियों की भी जड़ है। चिंतनीय है कि जीवन के शुरुआती पड़ाव पर ही स्क्रीन को देखते रहने से वर्चुअल ऑटिज़्म के घेरे में आ रहे बच्चों का अटेन्शन स्पैन भी कम हो जाता है। बर्ताव में चिड़चिड़ापन और विचारों में उलझन-अस्पष्टता जगह बना लेती है। अपना नाम सुनकर भी रिएक्ट नहीं करते। बोलते समय हकलाते हैं। ऐसे बच्चे हाइपरएक्टिव हो जाते हैं। अकेलेपन और अनिद्रा की समस्या घेर लेती है। बहुत से बच्चे अपने पसंदीदा कार्टून चरित्र या किसी ऑनलाइन खेल के कैरेटर की तरह बोलने-बतियाने लगते हैं। कम उम्र में बढ़ते स्क्रीन टाइम से न्यूरोलॉजिकल बीमारियों के घेरे में आ रहे हैं। आम जीवन से कट जाने वाले ऐसे बच्चे फोकस्ड नहीं रह पाते। किसी भी बात या काम पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाना आगे चलकर व्यक्तिगत ही नहीं, अकादमिक जीवन को भी प्रभावित करता है। यही वजह है कि बच्चों के प्राकृतिक विकास को बाधित करने वाली इस समस्या को लेकर सजगता आवश्यक है।
गैजेट एक्सपोज़र घटायें अभिभावक
अभिभावक कभी अपनी सहूलियत के लिए तो कभी तकनीकी उपकरणों को मनोरंजन का माध्यम भर मानने के चलते बहुत छोटे बच्चों को भी स्क्रीन की दुनिया में व्यस्त कर देते हैं। धीरे-धीरे मासूमों को कुछ न कुछ देखते रहने की लत लग जाती है। ऐसे मामले भी विशेषज्ञों के पास पहुंचे हैं कि मात्र छह महीने के बच्चे भी स्क्रीन में देखे बिना खाना नहीं खाते। सालभर के बच्चे अपनों की आवाज़ को भी नहीं पहचानते। गैजेट्स के साथ बहुत अधिक समय बिताने वाले बच्चों को हरदम स्क्रीन पर दिखते कंटेन्ट से एकतरफा संवाद सुनने की आदत हो जाती है। जिसके चलते सहजता से कुछ बोल नहीं पाते। बातचीत के सहज हावभाव नहीं सीखते। पहले बहुत छोटे बच्चों का समय घर के बड़े बुजुर्गों या पेरेंट्स के साथ बीतता था। सहज इंसानी बातचीत सुनते हुए बड़े होने वाले बच्चे भी आसानी से बोलना सीख जाते थे। हर तरह के मनोभाव को जताना आ जाता था। बच्चों के बढ़ते स्क्रीन टाइम ने दूसरों की बातों को सुनना-समझना भुला दिया है। बालमन सहज प्रतिक्रिया भूल गया है। इतना ही नहीं बच्चे दूसरों से मेलजोल में भी असहज महसूस करते हैं। इन सभी समस्याओं का हल गैजेट्स से दूरी बरतना ही है। अभिभावक ही बच्चों का स्क्रीन टाइम कम कर सकते हैं। संभव हो तो 5 साल की उम्र तक के बच्चों को डिजिटल उपकरणों से पूरी तरह दूर ही रखें। वर्चुअल ऑटिज़्म पांच-सात वर्ष से छोटे बच्चों में ही अधिक होता है। इस आयुवर्ग तक के बच्चों के साथ समय बिताने में अभिभावक भी रुचि लें। पेरेंट्स खुद भी स्क्रीन स्क्रॉलिंग से दूरी बनाएं।
समय रहते चेतें
बच्चों के प्राकृतिक सामाजिक-भावनात्मक विकास में बाधा बनने वाली स्वास्थ्य समस्या को समझने में भी देरी हो जाती है। आज तकनीकी दौर में परवरिश के मोर्चे पर सामने आ रही वर्चुअल ऑटिज़्म समस्या को लेकर समय रहते चेतना जरूरी है। बच्चों को वर्चुअल दुनिया नहीं बल्कि असली संसार से जोड़ना आवश्यक है। मनोरंजन के परंपरागत माध्यमों का चुनाव, घर के बुजुर्गों का साथ-संवाद और गैर-डिजिटल गतिविधियों को बढ़ावा देना ही इस समस्या से बचा सकता है। बच्चों को वास्तविक संसार से जोड़ने की समझ भी समय रहते ही दिखानी होगी। अधिकतर मामलों में अपनी सहूलियत देखने वाले अभिभावक बहुत देरी से चेतते हैं। बच्चों को पार्क या प्ले एरिया ले जाएं। अप्रैल का यह महीना ऑटिज़्म की समस्या कोई लेकर अवेयरनेस लाने से जुड़ा है। बहुत से अभियानों के जरिये इस समस्या से पीड़ित लोगों के प्रति सामाजिक स्वीकृति को प्रोत्साहित और समाज के प्रति ऑटिज़्म से ग्रस्त व्यक्तियों के योगदान को सामने लाना है। ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर से पीड़ित लोगों से सहजता से जुड़ने और स्वीकारने का संदेश देता है। ऐसे में वर्चुअल ऑटिज़्म के जोखिम में आ रहे बच्चों को लेकर भी जागरूक होना आवश्यक है। सजगता का अहम पहलू यही है कि किसी व्याधि को खुद न्योता देने की गलती ना की जाये। डिजिटल गैजेट्स के इस्तेमाल से बहुत छोटे बच्चे को दूर रखने का कदम अभिभावक समय रहते उठाएं। साथ ही उनमें बढ़ती स्क्रीन स्क्रॉलिंग के खतरों को लेकर एक-दूसरे को जागरूक भी करना चाहिए।