स्वतंत्रता के वास्तविक लक्ष्यों का प्रश्न
स्वतंत्रता का 75वां वर्ष किसी देश के लिए महोत्सव का अवसर होने के साथ आत्मनिरीक्षण का भी समय होता है। भारत के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह ध्यान रखने का है कि 15 अगस्त, 1947 अंग्रेजों की दासता से स्वतंत्र होने का दिवस है। भारत के अनेक भागों में अलग-अलग कालखंडों में दासता और मुक्ति की गाथाएं भरी पड़ी हैं। जिनके लिए 15 अगस्त, 1947 से भारतीय राष्ट्र का आविर्भाव हुआ या अंग्रेजों ने एक बिखरे हुए भूखंड को राष्ट्र-राज्य में परिणत किया, वे इन 75 वर्षों का मूल्यांकन इसी आधार पर करेंगे कि तब हम क्या थे और आज क्या हैं? इसके समानांतर संस्कृति और दर्शनमूलक वास्तविक भारतीय राष्ट्र की सतत जीविता को समझने वाले की दृष्टि व्यापक होगी।
अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष का ही निष्पक्षता से विश्लेषण करेंगे तो साफ हो जाएगा कि ये दो धाराएं उस दौरान भी थीं। 19वीं सदी में खासकर कांग्रेस के आविर्भाव के बाद भी स्वतंत्रता संघर्ष के अंदर ये धाराएं थी। एक पक्ष अगर अपने मूल भारत के लक्ष्य से संघर्ष कर रहा था तो दूसरे का लक्ष्य अंग्रेजों को भगाकर स्वतंत्रता प्राप्त करना था। इन सबका बलिदान एक ही श्रेणी का था, लेकिन दृष्टि और लक्ष्य अलग-अलग थे।
अगर स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का मूल्यांकन इस आधार पर करें कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज जिस दुरावस्था वाले भारत को छोड़ कर गए थे, उसकी तुलना में आज हम कहां खड़े हैं तो ज्यादातर मानक हमारे अंदर गर्व का अनुभव कराएंगे। आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक, यातायात, संचार, रक्षा, सुरक्षा, प्रशासन, हर क्षेत्र में हम आज उन पायदानों पर खड़े हैं, जिसकी कल्पना आजादी के समय विश्व तो छोड़िए, स्वयं भारतीयों को नहीं थी। 193 करोड़ रुपये से पहला बजट पेश करने वाला भारत 27 लाख करोड़ के बजट वाला देश बना है तो कल्पना की जा सकती है कि कितनी बड़ी छलांग हमने लगाई है।
1962 में चीन के हाथों अपमानजनक पराजय झेलने वाले देश ने पिछले वर्ष गलवान घाटी में चीनी सैनिकों को जिस ढंग से मुंहतोड़ जवाब दिया, उससे बड़ा उदाहरण एक महत्वपूर्ण रक्षा शक्ति बन जाने का दूसरा नहीं हो सकता। पहले इंदिरा गांधी और फिर अटल बिहारी वाजपेयी ने नाभिकीय परीक्षण करके पूरी दुनिया को चौंका दिया तो नरेंद्र मोदी ने उपग्रहों को नष्ट करने की शक्ति का परीक्षण करके। स्वतंत्रता के समय अंग्रेजों सहित पश्चिमी विद्वानों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत में कभी संसदीय लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। 17 लोकसभा तथा लगातार राज्य विधानसभाओं का सफल आयोजन कर और अपनी एकता-अखंडता बनाए रखकर भारत ने उन सारी भविष्यवाणियों को गलत साबित कर दिया है।
वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो भारत एक सफल लोकतंत्र है। 75वें वर्ष में गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या हम राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर देश हित में उस स्थिति में वापस जाने के लिए तैयार हो सकते हैं? ऐसे और भी कई प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं। 75वें वर्ष का महामहोत्सव हम सबको भारत के प्रति संपूर्ण रूप से भावुक, संवेदनशील और ज्यादा समर्पित करने की प्रेरणा देने वाला बनना चाहिए।
15 अगस्त 1947 को ही हमारे देश में दो धाराएं साफ दिखीं। एक ओर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे, जिन्होंने विक्टोरियन अंग्रेजी में प्रसिद्ध ट्रस्ट विद डेस्टिनी का भाषण दिया तो दूसरी ओर महात्मा गांधी नोआखाली में थे और उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर कोई वक्तव्य जारी नहीं किया। यह कहा कि आज से गांधी अंग्रेजी भूल गया है। गांधी जी कहते थे कि हम स्वतंत्र इसलिए होना चाहते हैं क्योंकि भारत का लक्ष्य अन्य राष्ट्रों से भिन्न है, हमको विश्व को रास्ता दिखाना है। सुभाष चंद्र बोस ने भी कहा था कि भारत को अन्य देशों की तरह महाशक्ति नहीं, इसे तो एक आदर्श महाशक्ति बनना है।
75वें वर्ष में हमें शांत और संतुलित होकर विचार करना होगा कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था को धक्का पहुंचाए बगैर कितना और कैसे उन लक्ष्यों को साकार करने का उत्तरदायित्व पूरा किया जा सकता है? भारत राष्ट्र के वास्तविक सपने को साकार करने का लक्ष्य रखने वाले लोगों को उनके विरुद्ध भी अहिंसक आंदोलन करना ही होगा। सौभाग्य से पिछले कुछ वर्षों में इसके प्रति व्यापक जन जागरण हुआ है, भारी संख्या में लोग निस्वार्थ भाव से सक्रिय भी हुए हैं लेकिन इस धारा में अतिवाद, व्यावहारिकता की जगह भावुकता काफी हद तक अज्ञानता का बड़ा पक्ष है। इसे कम करते हुए ज्ञानवान, विवेकशील और भारत के प्रति समर्पित लोगों को काम करना होगा। तभी स्वतंत्रता के वास्तविक सपने को पूरा किया जा सकता है।