आत्मनिर्भरता की तरफ ठोस कदम बढ़ाए भारत
अमेरिका की ओर से लगातार अतिरिक्त शुल्क लगाने की धमकियां भारत की नीतिगत स्थिरता को प्रभावित करती हैं। इसलिए अब भारत को यह ठान लेना चाहिए कि वह आयात-निर्भर आर्थिक ढांचे से बाहर निकले और आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस कदम बढ़ाए।
सुरेश सेठ
डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका का राष्ट्रपति पद संभालते समय वादा किया था कि वे विश्व में शांति के प्रतीक बनेंगे। उन्होंने इस्राइल-हमास संघर्ष को समाप्त कराने और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मित्रवत संबंधों के आधार पर रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने की बात कही थी। लेकिन धरातल में ये संभव न हुआ।
अब युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं, आर्थिक मोर्चे पर भी लड़े जा रहे हैं। देश और नेता, जो मूलतः व्यापारी मानसिकता रखते हैं, अब टैरिफ के ज़रिए एक-दूसरे को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। इस आर्थिक युद्ध में जनता की आजीविका, देश की अर्थव्यवस्था और व्यापारिक स्थिरता बुरी तरह प्रभावित होती है।
डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने कार्यकाल में दर्जनों देशों के खिलाफ टैरिफ वॉर की शुरुआत की। इन देशों पर अमेरिका ने 10 से 50 प्रतिशत तक शुल्क बढ़ाया। इस नीति का असर केवल वैश्विक व्यापार पर ही नहीं, बल्कि मंदी, बेरोजगारी और आर्थिक अस्थिरता के रूप में साफ दिखने लगा है। अमेरिका ने भारत से आने वाले उत्पादों पर भी शुल्क लगाकर स्पष्ट कर दिया कि वह अब अपनी ‘उदार’ नीतियों में बदलाव लाएगा। नतीजतन भारत में महंगाई बढ़ेगी, शेयर बाजार गिरे, और आर्थिक योजनाएं प्रभावित हुईं।
भारत, जो अमेरिका से जो उत्पाद आयात करता है, अब मूल्य और कर दोनों के दबाव में है। यदि अमेरिका इन वस्तुओं पर अतिरिक्त शुल्क लगाता है, तो भारतीय बाजार में महंगाई बढ़ेगी। आरबीआई की मौद्रिक नीतियां भी अस्थिरता से प्रभावित हो रही हैं।
अमेरिका का कहना है कि भारत और अन्य देश अपने निर्यात पर अत्यधिक शुल्क लगाते हैं, इसलिए वह भी जवाबी शुल्कों की एक शृंखला लागू करने की तैयारी कर रहा है। अमेरिका इस कदम को अपने लिए ‘मुक्ति दिवस’ के रूप में देख रहा है, जबकि उसकी आम जनता इस नीति से पूरी तरह सहमत नहीं है। अमेरिका का मानना है कि समय आ गया है जब उसे अपनी अब तक की उदार व्यापार नीतियों में बदलाव करना चाहिए।
इस नीति का सीधा प्रभाव भारत जैसे देशों पर पड़ेगा, जहां घरेलू उत्पादन पर दबाव बढ़ेगा और प्रतिस्पर्धा में गिरावट आ सकती है। यदि अन्य देश भी जवाबी टैरिफ वॉर शुरू कर देते हैं, तो यह न केवल अमेरिका बल्कि भारत जैसे विकासशील देशों के आम नागरिकों के हितों को भी नुकसान पहुंचा सकता है।
चाहे अमेरिका का उद्देश्य यही है कि इतना अधिक शुल्क लगाने वाले देशों को भी मजबूरन अपना शुल्क कम करना पड़े परन्तु दुनिया के पिछड़े देशों और भारत के लिए भी अमेरिका अभी तक आशा की एक किरण रहा है। वह इन देशों से जितना माल खरीदता है, उससे कम सामान बेचता है। इन पिछड़े देशों का ऊंचा टैक्स भार उठाते हुए और उन्हें उदार कर देते हुए वह हमेशा घाटे का सौदा करता है।
भारत लंबे समय से अमेरिका पर व्यापारिक सहयोग के लिए निर्भर रहा है, लेकिन अब अमेरिका पहले जैसी उदारता दिखाने को तैयार नहीं है। वह अपने यहां आने वाले उत्पादों पर ऊंची टैरिफ दरें लगाकर वैश्विक व्यापार को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में भारत के सामने दो ही विकल्प हैं : एक, अमेरिका के साथ एक विस्तृत द्विपक्षीय व्यापार समझौता कर लिया जाए; दूसरा, टैरिफ युद्ध से डरकर अपने निर्यात उत्पादों पर शुल्क कम कर दिया जाए, ताकि यह करों की लड़ाई बेलगाम न हो जाए।
परंतु अमेरिका से टैरिफ युद्ध लड़ना भारत जैसे आयात-आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए बेहद कठिन है। हमारे यहां जिन वस्तुओं का आयात होता है, उनकी मांग इतनी लचीली है कि यदि उनकी आपूर्ति में बाधा आए तो देश का उत्पादन और निवेश प्रभावित हो सकता है। ट्रम्प की इन आक्रामक नीतियों से आर्थिक अस्थिरता और भी बढ़ गई है।
इसका समाधान यह नहीं कि भारत अपनी टैरिफ दरें घटाकर अपने ही उत्पादकों और निवेशकों को नुकसान की स्थिति में पहुंचा दे। कृषि क्षेत्र में तो स्थिति और भी जटिल है— भारत अपने कृषि उत्पादों का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा रियायती दरों पर गरीबों में वितरित करता है। ऐसे में यदि इन्हीं उत्पादों को ऊंची दरों पर अमेरिका को निर्यात किया जाएगा, तो घरेलू कीमतों को संतुलित रखना मुश्किल हो जाएगा।
भारत ने इसका एक संभावित समाधान खोजा है— व्यापार की दिशा का वैविध्यकरण और अन्य देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते। हालांकि, अमेरिका की ओर से लगातार अतिरिक्त शुल्क लगाने की धमकियां भारत की नीतिगत स्थिरता को प्रभावित करती हैं। इसलिए अब भारत को यह ठान लेना चाहिए कि वह आयात-निर्भर आर्थिक ढांचे से बाहर निकले और आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस कदम बढ़ाए।
लेखक साहित्यकार हैं।