आजादी के महोत्सव में अमृत की मृगतृष्णा
कल रविवार को स्वतंत्रता दिवस है। भारत की स्वतंत्रता का 75वां साल कल से शुरू हो जायेगा। इसीलिए इसे अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जायेगा। निश्चय ही सदियों की गुलामी के बाद अनगिनत कुर्बानियां देकर आजाद हुए किसी भी देश के लिए यह गौरवशाली अवसर है। संभव है, कल ऐतिहासिक लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आजाद भारत के सफरनामे की चर्चा के समय बेहतर भविष्य के कुछ सपने दिखायें, कुछ लक्ष्य निर्धारित करें। ऐसा करना भी चाहिए, क्योंकि अपनी उपलब्धियों पर गर्व और उन्हें बेहतर बनाने के सपने किसी भी जीवंत समाज-देश की पहचान हैं। पिछले सप्ताह संपन्न टोक्यो ओलंपिक में महज सात पदक जीत कर भी भारतीय खिलाड़ियों ने फिर साबित कर दिया है कि सपने उन्हीं के पूरे होते हैं, जो देखते हैं। पर यह भी सच है कि सपने देखने भर से पूरे नहीं होते, उन्हें पूरा करने के लिए जी-जान से मेहनत करनी पड़ती है। उस मेहनत का मोल संघर्षों के बीच तप कर कुंदन बनने वाले नीरज चोपड़ा और मीराबाई चानू जैसे हमारे वास्तविक नायक ही समझ सकते हैं, रस्मी बधाई गीत गाने वाले नहीं। विडंबनापूर्ण विरोधाभास देखिए कि एक ओर हमारे खिलाड़ियों ने साबित किया कि जीत का जुनून हो तो सीमित संसाधनों के सहारे भी बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है तो हमारे माननीयों ने कर दिखाया कि सब कुछ होते हुए भी कुछ न करने को कैसे अंजाम दिया जाता है।
बेलगाम आबादी की बदौलत ही सही, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर, प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी जिसकी चौखट पर नतमस्तक हुए थे। विडंबना देखिए कि लोकतंत्र का यही सर्वोच्च मंदिर अब नकारात्मक कारणों से ज्यादा चर्चा में रहता है। कभी उसमें धन बल और बाहु बल के बढ़ते दबदबे की चर्चा होती है तो कभी काम से ज्यादा हंगामे की। बेशक संसद एक भवन भी है, लेकिन वास्तव में संसद की चाल, चेहरा, चरित्र उन माननीयों की चाल, चेहरे, चरित्र से प्रतिबिंबिंत होती है, जो उसमें निर्वाचित होकर विराजते हैं। यह छवि उत्तरोत्तर निखर तो हरगिज नहीं रही। यह पीड़ा अब पुरानी हो चुकी है कि हमारे माननीय सांसद, संसद के अंदर भी, संविधान और लोकतंत्र की भावना के बजाय दलगत स्वार्थेां से प्रेरित होकर आचरण करते हैं। फिर आश्चर्य कैसा कि जब देश एक साल से भी ज्यादा समय से वैश्विक महामारी कोरोना के बहुआयामी संकट से जूझ रहा है, संसद के मानसून सत्र में काम बहुत कम और हंगामा बहुत ज्यादा हुआ। निर्धारित अवधि से दो दिन पहले ही समाप्त संसद के मानसून सत्र में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक लोकसभा में 22 प्रतिशत और राज्यसभा में 28 प्रतिशत ही कामकाज हो पाया, बाकी समय तो बस हंगामा ही रहा। जैसा कि अक्सर होता है, हंगामे के बीच ही सरकार ने अपना जरूरी विधायी कामकाज निपटा लिया। राज्यसभा के सभापति वैंकेया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला संसद की इस स्थिति पर व्यथित भी नजर आये। वैंकेया नायडू गंभीर से गंभीर बात हास-परिहास की शैली में कहने के लिए जाने जाते हैं। फिर भी अगर राज्यसभा में हंगामे पर उनका गला रुंध गया तो मानना चाहिए कि वे क्षण बेहद पीड़ादायी रहे होंगे। ओम बिड़ला ने भी हंगामे पर गुस्सा जताया और कहा कि लोग उनसे पूछते हैं कि संसद क्यों नहीं चलती। पर इस सवाल का जवाब कौन देगा?
बेशक सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों के सहयोग से ही सदन चल सकता है, लेकिन उसमें सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी ज्यादा मानी जाती है। जिन्हें मतदाताओं ने प्रचंड बहुमत से देश चलाने के लिए चुना है, उनकी जिम्मेदारी-जवाबदेही निश्चय ही उन दलों-नेताओं से बहुत ज्यादा है, जिन्हें चुनाव प्रक्रिया में नकार दिया गया है। दोनों पक्षों में सहमति न बन पाये, तब लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक हो जाती है। मानसून सत्र के अंतिम दिन संसद, खासकर राज्यसभा में जो कुछ हुआ, उस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप स्वाभाविक ही हैं, क्योंकि दोनों को ही अंतत: राजनीति करनी है। यह बात तटस्थ भाव से निर्विवाद कही जा सकती है कि संसद में जो हुआ, वह दरअसल लोकतंत्र का ही चीरहरण था, जिसकी जिम्मेदारी-जवाबदेही से न सत्ता पक्ष बरी हो सकता है और न ही विपक्ष। देशवासी अपने विवेक से सही-गलत का फैसला कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर चल रहा यह मैसेज देशवासियों की नजर में राजनेताओं की छवि और देश में लोकतंत्र की दशा-दिशा पर बहुत बड़ा कटाक्ष है कि आजादी और एकीकरण के जरिये हमने कुछ सौ राजाओं से मुक्ति पायी, पर उनसे कई गुणा ज्यादा नये राजा पैदा कर लिये, जो अब अपने-अपने राजवंश भी चला रहे हैं।
आजादी के अर्थ तो बहुआयामी, व्यापक और दूरगामी हैं, लेकिन लंबी विदेशी दासता के चलते मान लिया गया कि विदेशी शासन से मुक्ति ही आजादी है। बेशक है, क्योंकि परतंत्रता से बड़ा दुख और दंड कुछ नहीं, लेकिन क्या सत्ता परिवर्तन मात्र ही स्वतंत्रता है? अगर हां, तो भारत को विदेशी शासन से मुक्ति 15 अगस्त,1947 को ही, बेशक विभाजन की बड़ी कीमत चुका कर, मिल गयी थी। आजादी के बाद हमने संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया। लोकतंत्र की प्रचलित परिभाषा है: जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन। चुनाव प्रक्रिया के जरिये देश-प्रदेश की सरकारें जनता खुद चुनती है। तब तो मान लेना चाहिए कि विभिन्न चरणों में लंबे चले स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले बलिदानियों-सेनानियों का हर सपना साकार हो गया, पर क्या वास्तव में ऐसा है? इस स्वाभाविक, मगर बेहद असहज सवाल का जवाब सभी जानते हैं। आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाली पीढ़ी के बहुत कम लोग ही हमारे बीच बचे हैं, पर उनसे सुन कर या उपलब्ध तत्कालीन साहित्य-पत्रकारिता के दस्तावेज पढ़कर आजाद भारत की जो परिकल्पना उभरती है, मौजूदा भारत की तस्वीर उस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। साफ कहें तो यह न तो सुभाष चंद्र बोस-भगत सिंह के सपनों का भारत है और न ही महात्मा गांधी के सपनों का। उन्होंने नहीं सोचा था कि स्वतंत्र भारत में भी खादी और खाकी में वैसे ही तत्व पनपने लगेंगे, जिनसे मुक्ति के लिए देशवासियों ने सब कुछ दांव पर लगा दिया। उनके भारत में उस इंडिया की परिकल्पना नहीं थी, जिसका सपना दिखा कर हमारी सरकारें बदहाल समाज के बीच विकास के कंगूरे खड़े कर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं।
आजादी की पहली शर्त समानता है। क्या मौजूदा भारत उस कसौटी पर भी खरा उतरता है। कड़वा सच है कि नहीं, क्योंकि भारत के बीच से इंडिया बनाने की कवायद में 10-15 प्रतिशत लोगों से विकास की दौड़ में शेष भारत बहुत पीछे छूट गया है। इतना पीछे कि लगभग एक-तिहाई को तो दो वक्त की रोटी की भी गारंटी नहीं। इसरो ने भले ही अंतरिक्ष विज्ञान में विश्व भर में भारत का डंका बजा दिया हो, पर कड़वा सच यह भी है कि आजादी के सात दशक बाद भी अनगिनत गांवों तक विकास की पहली सीढ़ी मानी जाने वाली बीएसपी यानी बिजली, सड़क और पानी नहीं पहुंचे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर रोजगार तक के अवसरों में समानता तो बहुत दूर, असमानता की निरंतर चौड़ी होती खाई है, जिसमें से अब इंडिया से भी अलग नया इंडिया निकालने के सपने देखे-दिखाये जा रहे हैं। व्यवस्था से लेकर सत्ता और समृद्धि तक के तमाम स्रोतों-साधनों पर 10-15 प्रतिशत लोगों का ही कब्जा क्यों है? आजादी रूपी जिस अमृत के लिए समाज के हर वर्ग के लोगों ने बढ़-चढ़कर हरसंभव कुर्बानियां दी थीं, आजादी के अमृत महोत्सव के समय भी उनके लिए वह अमृत मृगतृष्णा क्यों बना हुआ है? इस निहित स्वार्थी स्वदेशी भ्रष्ट तंत्र से लोक को कौन कब मुक्त करायेगा? इन स्वाभाविक सवालों के जवाब में ही भारत का भविष्य छिपा है। इन सवालों का जवाब गूगल बाबा नहीं देगा, सत्ता-व्यवस्था पर काबिज लोगों को चिंतन-मंथन कर समय रहते खुद ही खोजना होगा।
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