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उदास है मन

04:00 AM Mar 30, 2025 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

उखड़े मन से राजेश अस्पताल की सीढ़ियों पर ही बैठ गया ‘हिना, यदि थोड़ी हिम्मत करता तो मैं तुम्हें बचा सकता था कुछ और वर्षों के लिए, मैं भी तुम्हारा गुनहगार हूं, तुम कैसे रहोगी फिर उसी नर्क में, मैं नहीं जानता, लेकिन मेरा मन आज बहुत उदास है।’

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रोचिका अरुण शर्मा
सलवार-कुर्ता पहने ट्रैफिक सिग्नल पर अपने समूह के साथ धूप में घूमते हुए वह मुरझा-सी गयी थी। कैसे बजाये वह तालियां और क्यों मांगे वह भीख? कारों की खिड़कियों के शीशे में अन्दर झांकते उसके साथी उसे बार-बार ताली बजाना सिखाते, वह भी हाथ उठाती लेकिन फिर उसका मन न मानता। जी चाहता किसी भी तरह वहां से भाग जाए लेकिन कैसे? हरदम कोई न कोई उसके साथ रहता ही है। बारह वर्षीय अखिला हर दिन मन में योजना बनाती कि कुछ भी हो वह अपने घर लौट जाएगी। नहीं रहेगी उस नर्क में जहां अपने परिवार से दूर हर वक्त गन्दगी, नशे और गुलामी का मंजर हो।
‘मां छुपा लेतीं न मुझे उस दिन भी जैसे इतने बरस छुपाया था... क्यों ले जाने दिया मुझे... पिताजी क्या आपको याद नहीं आती मैं? ...कैसे भूल सकते हैं आप मुझे?’ वह रातभर करवटें बदलती रही... आंखें पनीली-सी थीं। तभी अपनी पीठ पर स्पर्श महसूस कर उसने करवट बदल कर देखा ‘सारी रात जाग रही है... हम भी तेरे अपने ही हैं। देख अब तू यहां आ गयी है तो यही तेरा घर है और हम सब तेरा परिवार...।’
अखिला टकटकी लगाए देखती रही मानो पूछ रही हो ‘क्या कसूर है मेरा? पहले ईश्वर और फिर तुम सब मेरे साथ अन्याय क्यों कर रहे हो? मुझे अपने स्कूल के दोस्तों की याद आती है, सब परीक्षा की तैयारी कर रहे होंगे और मैं रोज सिग्नल पर तालियां बजाने की ट्रेनिंग ले रही हूं। भला दस वर्ष अपने माता-पिता के साथ रह कर अब उनसे अलग इस नर्क में कोई कैसे रह सकता है? पूरे दो वर्ष बीत गए... कल मेरा जन्मदिन था... बारह वर्ष की हो गयी हूं... दूसरे बच्चे स्कूल जाते हैं तो मेरा भी मन करता है कि मैं पढ़ूं|’
आज वह फिर सिग्नल पर अपने समूह के साथ थी, अचानक से हरी बत्ती होने के इंतजार में खड़ी गाड़ियों पर पथराव होने लगा। ‘भागो... सब यहां से, लगता है कोई दंगा होने वाला है।’ बचपन से सड़कों पर अपने समूह संग भीख मांग कर बड़े हुए सरदार ने जोर से अपने साथी का हाथ खींचा। ‘भाग अखिला यहां से... ’ दूसरे साथी ने इशारा किया। अखिला के लिए यह सब नया था, वह भागी और न जाने कहां से अचानक उपजी भीड़ ने उसे खदेड़ दिया। हाथों में पत्थर और लाठियां लिए गुस्साई भीड़ मानो सब कुछ ख़त्म करने पर उतारू थी। आने-जाने वाली लाल बसों पर पथराव देखकर राहगीर वहां से ऐसे नदारद हुए मानो कर्फ्यू लग गया हो।
अपने समूह से बिछड़ी अखिला भी डरी-सहमी सड़क किनारे रखे कचरे के बड़े से डिब्बे के पीछे छुप गयी थी। धड़कन तेज थी कि अब न जाने कौन-सा आसमान सिर पर गिरने वाला है।
कुछ दंगाई पैदल एवं कुछ मोटर साइकिलों पर सवार थे और शोर मचाते आगे बढ़ते जा रहे थे। उनके जाते ही अखिला अवसर पाते ही एक संकरी गली में घुस गयी। मन में भय समाया था लेकिन उम्मीद की एक किरण भी जाग गयी थी। कहां जाऊं? कौन मुझे सहारा देगा? पिछली बार जब मां से फोन पर बात की थी तो पिताजी भड़क उठे थे। मैं जानती हूं कि अब मेरे लिए उस घर में कोई जगह नहीं। यदि चली भी गयी तो किन्नरों का समूह मुझे खोजते हुए वहां पहुंच ही जाएगा।
मन में खौफ था लेकिन शायद ईश्वर ने उसे किन्नर समूह से छुटकारा पाने का यह अवसर दिया था। गलियों में सन्नाटा पसरा पड़ा था। शायद दंगे के खौफ से लोग अपने घरों एवं खिड़कियों को बंद कर के बैठ गए थे। वह दीवार से सट कर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। एक घर के बाहर रस्सी पर दो बुर्के सूख रहे थे। वह बगैर आहट के दीवार कूद कर एक बुर्का उतार लायी।
उसने बुर्का पहना और आगे जाकर पास में एक पार्क में लगी बैंच के पीछे जाकर छुप गयी। रात भी वहीं बिताई, सुबह हुई तो पेट भूख से कुलबुला रहा था। आस-पास की दुकानें खुलने लगी थीं। आगे बढ़ी ही थी कि फुटपाथ पर लगे एक बोर्ड पर उसकी नज़र पड़ी ‘काम के लिए लड़के/लड़की की आवश्यकता है।’
‘कुछ तो करना होगा जीने के लिए’ सोचकर वह उस बोर्ड की ओर बढ़ गयी। यह एक सेकण्ड-हैंड किताबों की दुकान थी और एक महिला दुकान पर बैठी थी।
आंटी जी आपका यह बोर्ड देखकर इधर आयी हूं... मुझे काम की जरूरत है... क्या काम करना होगा?
‘पढ़ी-लिखी हो थोड़ा-बहुत?’
‘जी आंटी जी, क्या काम करना होगा?’
‘किताबें बेचनी होंगी मेरे साथ बैठकर यहीं पर।’
‘क्या नाम है? कहां रहती हो?’
‘वह कुछ बोली नहीं।’
‘कहां रहती हो?’
महिला ने पुनः प्रश्न किया तो वह सकपका गयी ‘जी, इस शहर में नयी हूं, माता-पिता कल के दंगे में मारे गए, पिताजी गांव से मां का इलाज करवाने यहां आये थे। अब मेरा कोई नहीं इस दुनिया में... लेकिन मैं काम करूंगी आप मुझे अपने यहां काम पर रख लीजिये।’
‘रहेगी कहां पर?’
‘जी वो बाद में सोचूंगी... क्योंकि अब मेरा कोई घर भी नहीं। दादा-दादी एक समूह के साथ दो बरस पहले घूमने गए तो उत्तराखंड के भूस्खलन एवं बाढ़ में मारे गए थे। मां के इलाज के लिए रुपये नहीं थे इसलिए पिताजी ने घर पहले ही बेच दिया था। उन्होंने कहा था कि मुम्बई जाकर कुछ काम-धंधा कर लेंगे और कहीं किराए पर घर भी ले लेंगे।’
‘पूरे दिन यहां काम करना पड़ेगा और पगार भी नहीं दे सकती हूं। हां, रहने के लिए मेरे ही घर में जगह दे दूंगी। घर में जो बनेगा खा लेना और घर का काम भी करना पड़ेगा।’ महिला थी तो दयालु, किन्तु घोड़ा घास से यारी करे तो खाए क्या? मन में डर भी था कि चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चे को काम पर रखेगी तो कोई शिकायत न कर दे। उसने तय किया कि आस-पास वालों को कह देगी कि यह उसकी सहेली की बेटी है, सहेली दंगों में मारी गयी इसलिए वह अपने घर ले आई।
उसकी बेटी ब्याही गयी और बेटा कॉलेज में पढ़ रहा है। पति छोटी-सी नौकरी करते हैं, दुकान एवं घर की पूरी जिम्मेदारी महिला पर है। इसीलिए उसे काम में मदद के लिए कोई चाहिए।
‘चल लग जा काम पर... सुबह से कुछ खाया कि नहीं? नाम क्या बताया था तूने।’
‘जी हिना।’
‘तू बैठ दुकान पर... तेरे लिए कुछ खाने को लाती हूं।’
‘देख ये किताबें हैं न, इन्हें रोज सुबह यहां दुकान में लगाना होता है, पीछे रेट लिखी है कोई ग्राहक आये तो उन्हें दिखाकर रेट बताना। शाम को ज्यादा भीड़ होती है तब बहुत से ग्राहक आ जाते हैं, ज्यादा किताबें लेते हैं तो मोल-भाव करते हैं। उस समय ज्यादा ध्यान देना होता है क्योंकि कई बार चोरी भी हो जाती है। यदि एक भी किताब इधर-उधर हुई तो तेरी तनख्वाह से पैसे काटूंगी।’
करीब एक महीना बीत गया था, हिना बनी अखिला रोज सवेरे महिला के साथ दुकान पर आती और रात को उन्हीं के साथ घर लौट जाती।
‘अरी! घर में तो उतार दे बुर्का... इतनी गर्मी में रसोई में कैसे काम करती है तू हिना?’
‘जी... अम्मी कहती थीं यह जरूरी है... अब वे तो रही नहीं, उनकी बात नहीं टाल सकती।’
‘कुछ भी कहो तेरी मां ने तुझे परवरिश तो बहुत अच्छी दी है... वरना अब के बच्चे...।’
हिना उनके घर में रम गयी थी। महिला का बेटा राजेश पूरे दिन कॉलेज में रहता... कभी-कभार शाम के समय दुकान में आता तो किताबों में ही खोया रहता।
हां, महिला के पति ने कई बार ऐतराज किया ‘क्यों पराई लड़की को घर में ले आयी हो?’
‘चुप करो धंधे को कैसे चलाना है मैं खूब जानती हूं... कहां जायेगी अकेली बच्ची? रहने को घर दे दिया, उसके बदले घर का काम कर देती है हिसाब बरोबर।’
‘कल पूरी रात उलटियां करती रही हिना, चल तुझे डॉक्टर को दिखा लाती हूं।’ महिला उसे जबरन नजदीक के डॉक्टर के पास ले गयी। डॉक्टर ने जांच करके बताया कि हिना ट्रांसजेंडर है, हारमोंस में बदलाव के कारण उलटियां हो रही हैं। फिर तो मानो अनर्थ हो गया। महिला उस पर खूब बरसी ‘छक्की है तू... मैं मजबूर लड़की समझ तुझे घर में लाई...’ महिला ने उसे तमाचा जड़ दिया था।
उस दिन महिला का बेटा राजेश घर में था।
‘भैया... मुझे बचा लो... मैं सब सच-सच बताऊंगी।’ महिला गुस्से में दनदनाती हुई अकेली ही दुकान चली गयी... हिना राजेश के चरणों में पड़ गयी।
‘अच्छा बता झूठ क्यों बोला?’
‘मैं भी जीना चाहती हूं, इसीलिए बुर्का पहनकर स्वयं को छुपाये रखती हूं। प्लीज़, आप मेरे बारे में किसी को न बताएं... वरना मुझे वे ले जायेंगे यहां से... मैं पढ़-लिखकर बड़ी होकर अपनी मां के पास जाना चाहती हूं।’
राजेश की आंखों में आंसू थे ‘हिना, मैं नहीं चाहता कि तुम्हें यहां से निकालूं... लेकिन तुम्हें यहां रख भी तो नहीं सकता। यदि किन्नरों के समूह या पड़ोसियों को पता लग गया कि तुम यहां छुपी हो तो हम पर मुसीबत आ जायेगी। लेकिन तुम्हें तुम्हारी मां से जरूर बात करवा सकता हूं।’
‘मां बात नहीं करेगी... मेरे पिताजी ने सख्त मना किया है।’
‘घर मत जा, बात करने की एक कोशिश तो कर सकती है।’
‘मां, कैसी हो आप...?’
अपनी बेटी अखिला की आवाज सुनकर मां की सिसकियां बंध गयी थीं।
‘मां आप से मिलना चाहती हूं...।’
‘लेकिन मैं नहीं मिल सकती तुझ से... तुझे ईश्वर ने जहां के लिए बनाया है वहीं रह।’
‘मां, इतनी कठोर न बनो... आपकी बेटी हूं मैं...।’
‘नहीं बेटी... फोन रख, यदि पिताजी को पता चला कि तेरा फोन है तो घर में डंडे बज जायेंगे।’
‘अखिला ने फोन काट दिया था।’
‘भैया मैं आपको परेशान नहीं करूंगी... कहीं और चली जाऊंगी।’ उसके आंसू रोके नहीं रुक रहे थे। राजेश ने उसे कुछ रुपये थमा दिए थे।
अगले दिन अखबार के फ्रंट पेज पर खबर थी ‘सूनसान बीच के किनारे... एक बारह वर्षीय लड़की का यौन-उत्पीड़न कर उसे समंदर की लहरों के हवाले कर दिया गया। स्थानीय मछुआरों ने उसे अस्पताल पहुंचाया। ज्ञात हो कि यह लड़की बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती है और वह किन्नर समुदाय से है।’
खबर पढ़ते ही राजेश समझ गया था कि वह लड़की हिना ही है। उसका मन भारी हो गया, झटपट तैयार हो वह लोकल पकड़ कर अस्पताल की ओर बढ़ गया। वहां पहुंच कर जब उसने जानकारी की तो मालूम हुआ कि उसे किन्नरों का सरदार वहां से ले जा चुका है।
उखड़े मन से राजेश अस्पताल की सीढ़ियों पर ही बैठ गया ‘हिना, यदि थोड़ी हिम्मत करता तो मैं तुम्हें बचा सकता था कुछ और वर्षों के लिए, मैं भी तुम्हारा गुनहगार हूं, तुम कैसे रहोगी फिर उसी नर्क में, मैं नहीं जानता, लेकिन मेरा मन आज बहुत उदास है।’

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