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ढकना

04:00 AM Apr 06, 2025 IST

महेश चंद्र पुनेठा

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घर में कोई भी ऐसी चीज नहीं होगी,
जिसे तुमने ढक कर न रखा हो।
कल की लाई हो या फिर वर्षों पुराना।

कोई भी वस्त्र पुराना हो गया हो,
या कट-फट गया हो,
तुम उसे फेंकती नहीं हो,
काट सिल कर सही आकार का बना
पहना देती हो किसी चीज को।

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छतरी के तार टूट गए,
बटन खराब हो गया,
हमने इस्तेमाल करना छोड़ दिया,
पड़ी रही किसी कोने में,
तुम बाजार ले गई,
ठीक करवा कर ले आई।
अब के वह ज्यादा खराब हो गई,
तुमने उसका कपड़ा निकाल लिया,
आज स्टैंडिंग फैन को पहना दिया।

अर्ध शतक पूरा
कर दिया तुमने जीवन का,
अट्ठाईस की साझेदारी तो
मेरे साथ ही हो गई है।
अब तक की पारी में
मैंने बहुत सारी गलतियां की,
उसी तरह ढकती रही हो तुम उन्हें भी,
जैसे घर की निर्जीव वस्तुओं को।

तुम पूरी पूरी तरह मां पर गई हो।

सांचा
सांचे में रहते-रहते,
हर चीज को
सांचे में देखने की
आदत-सी हो जाती है।
सांचे में ढला ही
तन-मन को जंचने लगता है।
सांचे से बाहर दिखे जो कुछ भी,
उसके होने पर ही
अविश्वास होने लगता है।
यह अविश्वास सत्ता को शक्ति देता है,
सांचा हर सत्ता का आधार होता है।

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