मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
आस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

आधुनिकता के झोल में गुम सावन का झूला

02:13 PM Aug 22, 2021 IST

रमेश ठाकुर

Advertisement

सावन का महीना बीत गया। सावन से जुड़े ‘झूले’ हैं जिन्हें हम कई वर्षों से मिस कर रहे हैं। सावन का झूलों से गहरा संबंध रहा है। हिंदुस्तानी परंपराओं में झूला झूलना पर्वों में गिना जाता रहा है। समय बदला है, तीज-त्योहार और रिवायतें भी बदलीं और बदल गयीं झूलों की परंपरा। सावन में लगने वाले झूले अब नहीं दिखाई पड़ते। करीब दो दशक पहले से झूलों की परंपरा ने धराशयी होना शुरू किया जो धीरे-धीरे शून्यता के करीब पहुंच गई। झूलों का रिवाज अब इतिहास बनता जा रहा है। सावन की बारिश और झूलों पर हिंदी फिल्मों के कई गाने फ़िल्माए गए। न वैसे अब गाने रहे और न ही झूले। शहरों के मुकाबले ग्रामीण परिवेश में सावन माह का बड़ा महत्व हुआ करता था, कमोबेश स्थिति आज गांवों में भी शहरों जैसी हो गई है। झूलों का गुजरा जमाना रिमिक्स होकर लौटेगा, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता। गांव की सखियों का झुंड झूलों के बहाने बाग-बगीचों में मिलता था। सखी जब शादी के बाद ससुराल चली जाती थी, तब झूले मिलाप का जरिया बनते थे। यही कारण था महिलाएं सावन के आने का बेसब्री से इंतजार करती थीं। बदलते युग के साथ उन्होंने इंतजार करना भी छोड़ दिया। सावन तो प्रत्येक वर्ष आता है पर झूले नहीं। आधुनिकता की चकाचौंध ने बहुत कुछ बदल दिया। झूला झूलने के लिए पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश व राजस्थान जैसे राज्य विख्यात थे।

दस-पंद्रह वर्षीय बच्चों को तो पता नहीं होगा, लेकिन बीस वर्ष के नौजवान को जरूर याद होगा कि सावन के महीने में गांव की युवतियां पेड़ों पर झूला झूलते अक्सर देखी जाती थीं। आपस में गीत गाती थीं, हंसी-मजाक व ठिठोलियां करती थीं। मौजूदा पीढ़ी झूलों की परंपरा से तकरीबन अनभिज्ञ है। झूला और सावन माह के संबंध को बिल्कुल नहीं जानती। झूला झूलते वक्त लड़कियां और औरतें लोकगीत कजरी गाया करती थीं जिन्हें सुनने के लिए पुरुषों का भी जमावड़ा लगता था। दरअसल, कजरी देसी किस्म की वह विधा है जिसमें सावन, भादों के प्यार-स्नेह, वियोग व मधुरता के मिश्रण का संगम समाया होता था।

Advertisement

माडॅर्न युग की औरतों को कजरी का जरा भी ज्ञान नहीं। कोरोना काल में ऐसा महसूस जरूर हुआ कि समय शायद भागते-भागते थक गया है। इसलिए अब ठहर गया है। शायद कोरोना ने गुजरे जमाने से एक बार फिर रूबरू कराया। कोरोना के चलते लोग शहर छोड़कर गांवों में समय व्यतीत करने के लिए गए, तो उन्हें कई जगहों पर झूले लगे दिखाई दिए, उन्हें देखकर ऐसा जरूर महसूस हुआ होगा कि गुजरा जमाना फिर लौट आया। इस बार उत्तर प्रदेश के जिले पीलीभीत में बाक़ायदा औरतों ने बागों में झूले सजाए, डीजे लगवाया। बीते समय की तरह झूले झूले। गाने गाए, उनको देखकर लोगों ने खूब आनंद उठाया। बच्चों के लिए वह दृश्य नया अनुभव करने जैसा रहा। कोरोना के चलते युवतियों ने पुरानी परंपरा के कुछ समय के लिए लोगों को जरूर दीदार कराए, लेकिन जिंदगी फिर उसी भागमभाग में समाएगी, ये तय है।

निश्चित रूप से सावन को मनाने का अपना अलग ही उत्साह होता था। पेड़-पौधों की हरियाली मन मोहती थी। मौजूदा समय में झूले नहीं हैं, तो कोई बात नहीं, पर बारिश और हरियाली तो है। लेकिन इन सब पर कोरोना ने पानी फेरा हुआ है। लेडीज क्लबों में सावन का उल्लास, उत्साह और मस्ती को सेलिब्रेट करने के लिए अलग-अलग थीम पर कार्यक्रम आयोजित होते थे। कोरोना ने इस मस्ती को भी किरकिरा कर दिया है।

Advertisement
Tags :
आधुनिकता