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प्रकृति संरक्षण की पोषक सनातन संस्कृति

12:36 PM Jun 05, 2023 IST

आचार्य दीप चन्द भारद्वाज

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पर्यावरण के प्रति जनमानस में सामाजिक जागृति लाने हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सनzwj;् 1972 में पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाने की घोषणा की थी। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश इन तत्वों से हमारे पर्यावरण का निर्माण होता है। मनुष्य का पर्यावरण तथा प्रकृति के साथ गहरा संबंध है। प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना करना भी व्यर्थ है।

आजकल भोगवादी संस्कृति, अत्यधिक लोभ की प्रवृत्ति के कारण प्रकृति के अति दोहन से पर्यावरण प्रदूषण की विविध समस्याओं से समग्र संसार भयभीत है। बढ़ते औद्योगिकीकरण एवं भौतिकवाद ने हमारे पर्यावरण में अनेक विकट समस्याओं को भी पैदा कर दिया है।

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विश्व के बड़े-बड़े विज्ञानवेत्ता, पर्यावरणविदzwj;् आज पर्यावरण प्रदूषण से बचने के लिए तथा प्रकृति को शुद्ध रखने के लिए जो समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं उसे हमारे ऋषियों तथा मनीषियों ने लाखों वर्ष पहले ही प्रस्तुत कर दिया था। हमारी प्राचीन संस्कृति पवित्र एवं शुद्ध पर्यावरण की संरक्षक मानी जाती है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी प्रकृति को भोग्या न समझ, पूज्य मां के समान समझकर उसकी आराधना करने की बात कही गई है। प्राचीन ग्रंथ-वेदों में इस धरती को मां के समान संबोधित करते हुए कहा गया है कि यह धरती मेरी मां है और मैं इसका पुत्र हूं। ऐसी भावना जब हमारे हृदय में समा जाती है तो हम किस प्रकार फिर पृथ्वी को प्रदूषित कर सकते हैं।

पृथ्वी, पर्वत, गगन, नदी, सरोवर, समुद्र, वनस्पति, पशु-पक्षी सभी के कल्याणकारी होने की प्रार्थना हमारे शास्त्रों में की गई है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में इस वसुंधरा को मां के समान कहकर इसकी दीर्घायु की कामना की गई है। इस पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न सभी प्रकार की वनस्पतियां हमारे लिए कल्याणकारी हो तथा हम भी स्वार्थ त्याग कर इस धरा से उत्पन्न समस्त पदार्थों का उपयोग करें और इसकी रक्षा तथा शुद्धि हेतु सदैव तत्पर रहें।

इस पृथ्वी माता के लिए तथा पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वेदों में जिन शाश्वत एवं सार्वभौम मूल्यों की चर्चा की गई है वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सत्याचरण, उद्यमशीलता, दीक्षा, तप, ब्रह्म ज्ञान यह पृथ्वी को धारण करने वाले तत्व बताए गए हैं। जब हम इन मूल्यों की अवहेलना करते हैं, यही प्रवृत्ति हमारे पर्यावरण के लिए घातक है। हमारे धार्मिक शास्त्रों में कहा गया है कि वायु हमारे लिए सुखकारी हो यही हमारे प्राणों का आधार है। जीवन का आधार जल भी हमें आरोग्यता प्रदान करें, ऐसी प्रार्थनाएं की गई हैं। नदी, पर्वत के महत्व को जानते हुए भी हमारे ऋषियों ने संपूर्ण पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता को ध्यान में रखकर अनेक उपाय सुझाए थे।

भारतीय पुराण साहित्य में जल में किसी भी प्रकार का मलयुक्त प्रदूषण फैलाना महापाप माना गया है। वन, वृक्ष, वनस्पति, पशु कीट, पतंगों का पर्यावरण के संरक्षण में बहुत अधिक महत्व है। इनकी रक्षा भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। आचार्य चाणक्य ने वन संरक्षण के लिए जन-जागृति को महत्व दिया है ताकि लोगों को ऐसे प्रेरित किया जाए इसके प्रति उनकी इच्छा स्वयं जागृत हो। मार्गों में पौधारोपण को आचार्य चाणक्य ने स्वर्ग प्रदान करने वाला कहा है।

मनुष्य शरीर का निर्माण पंच तत्वों से हुआ है, उसमें प्राण वायु का महत्वपूर्ण स्थान है और जब यही वायु प्रदूषित हो जाती है तो यह प्राण संहारक बन जाती है। हमारे ऋषियों ने कहा था कि गांव-नगर के पूर्व में वट, दक्षिण में गूलर, पश्चिम में पीपल, उत्तर में आंवला वृक्ष शुभ माने गए हैं। हमारे ऋषियों ने वृक्षों के पुष्पों को न तोड़ने, रात्रि में उन्हें न हिलाने का निर्देश देकर वृक्षों की सुरक्षा का सूत्र दिया था। उनका चिंतन था कि यही वन संपदा मनुष्य के जीवन का आधार है। इसी से पर्यावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है तथा जहरीली गैसों का प्रकोप भी शांत होता है। परमात्मा ने जीवन को सुखमय बनाने के लिए संपूर्ण दृश्यमान प्रकृति हमें प्रदान की है। यह संपूर्ण प्रकृति मनुष्य के कल्याण के लिए ही है। प्रकृति के कण-कण में दैवी भावना, प्रकृति को बिना क्षति पहुंचाए विकास, वन, वृक्ष, वनस्पतियों का संरक्षण, प्रदूषण कारकों का त्याग आदि इन सभी के माध्यम से ही संपूर्ण विश्व को पर्यावरण प्रदूषण की विभीषिका से बचाया जा सकता है।

वैदिक यज्ञ विज्ञान जो आज अनेक वैज्ञानिक पद्धतियों से सिद्ध हो चुका है, पर्यावरण शुद्धि का अमोघ उपाय है। इसलिए संपूर्ण प्रकृति, पृथ्वी, वायु, जल, वृक्ष, वनस्पति के प्रति दैवी भावना एवं सद्भाव से इसके संवर्धन के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है। समस्त प्राकृतिक एवं वनस्पति संपदा के सदुपयोग के लिए एवं उसके संवर्धन हेतु इस प्राचीन पर्यावरण पोषक हमारी संस्कृति के चिंतन को आज वर्तमान के संदर्भ में आत्मसातzwj;् करना अति आवश्यक है।

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