खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करेगी प्राकृतिक खेती
इस सप्ताह में दो घटनाक्रम सामने आये जिनके बारे में मुझे लगता है कि हमें मूल्यांकन करने की जरूरत है। यदि हम कड़ी जोड़ सकें, तो एक वाकया उस आपदा का संकेत देता है जिसका इंतजार है, और दूसरा दुनिया जिस बड़े संकट का सामना कर रही है, उससे निपटने के लिए एक स्थायी समाधान प्रदान करता है, जिसके आने वाले वर्षों में और भी बदतर होने की संभावना है।
जबकि मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, प्रमुख गेहूं उत्पादक यूरोपीय देश फ्रांस में भारी और लगातार बारिश के कारण फसल को बड़ा नुकसान हुआ है, नीदरलैंड के एक पत्रकार ने मुझे लिखा है कि क्या मौसम में स्पष्ट परिवर्तन किसानों के लिए आर्थिक आपदा बनने जा रहा है। उसकी चिंता हॉलैंड में, जो कुछ वह देखती है, उससे पैदा होती है, जहां बारिश रुकी नहीं है, खेत पानी से लबालब हैं, परिणामस्वरूप खेतों में लगाई आलू की फसल सड़ रही है और सब्जियों के बीज उग नहीं रहे हैं।
इस बीच भारत अभूतपूर्व गर्मी की चपेट में है। जैसे-जैसे सामान्य तापमान बढ़ता जा रहा है, आशंकाएं हैं कि क्या देश आने वाले वर्षों में अपनी खाद्य सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होगा? कुछ वर्ष पहले गेहूं की कटाई के दौरान गर्मी ने कहर ढहाया था। उसके एक साल बाद, मानसून के मौसम में भी लगभग एक महीने तक बारिश नहीं हुई, धान की खड़ी फसल पर असर पड़ा। यह जानते हुए कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में खेल बिगाड़ सकता है, सरकार अति-जागरूक हो रही है, उसने कदम उठाए हैं। इनमें गेहूं और गैर-बासमती निर्यात पर प्रतिबंध लगाना और खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना यकीनी बनाने के लिए विभिन्न कृषि वस्तुओं पर स्टॉक सीमा भी लागू करना शामिल है।
जैसा कि डच पत्रकार कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन विश्वव्यापी घटना बनने जा रही है जिसके कृषि पर बेहद बड़े प्रभाव होंगे। जबकि उद्योग इसे अपनी क्लाइमेट स्मार्ट प्रौद्योगिकी बेचने के लिए उपयुक्त अवसर के रूप में देखते हैं, जिसकी वे बीते कई साल से मार्केटिंग कर रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या दुनिया ने जलवायु के असर झेलने में समर्थ कृषि के लिए दृष्टिकोण, नीतियों और रणनीतियों पर विचार किया है।
मानवता के लिए गुलबेंकियन प्रतिष्ठित पुरस्कार इस बार दो अन्य अंतर्राष्ट्रीय प्राप्तकर्ताओं के साथ ही आंध्र प्रदेश समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती यानी एपीसीएमएनएफ को प्रदान किया गया है। दरअसल, यह पुरस्कार उन जलवायु कार्यों और जलवायु समाधानों में उत्कृष्ट योगदान को मान्यता देता है जो उम्मीद और संभावनाओं को प्रेरित करते हैं। पुरस्कार के तहत 1 मिलियन यूरो नकद प्रदान किये जाते हैं। बीते दिनों, रायथु साधिकार संस्था (आरवाईएसएस) के कार्यकारी उपाध्यक्ष विजय कुमार ने यह पुरस्कार पुर्तगाल के लिस्बन में एक शानदार समारोह में पूर्व जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल के हाथों प्राप्त किया। एपीसीएनएफ को दुनिया भर से प्राप्त 181 नामांकनों में से चुना गया था।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उत्तरी अमेरिका में मैक्सिको से लेकर एशिया में फिलींपींस तक, और अमेरिका के टेक्सास से लेकर भारत में महाराष्ट्र तक- दुनिया के विभिन्न भागों में कृषि कड़े जलवायु प्रभावों से दो-चार है। विगत में भी, कुछ भागों में अतिवृष्टि, बाढ़, भयंकर तूफानों व चक्रवातों की बढ़ती तादाद से कृषि को नुकसान पहुंचता रहा है तो विभिन्न अन्य क्षेत्रों में लंबे समय तक सूखा और भीषण अकाल जैसी स्थितियां रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि जलवायु प्रेरित मौसम के मिजाज का खेती पर संचयी हानिकारक प्रभाव पड़ा है। जबकि किसान जलवायु का प्रकोप सहन करता है, वहीं नीति नियंता इसको नहीं मानते या इन विनाशकारी प्रभावों को कभी-कभार की घटनाओं के रूप में लेते हैं। यह ऐसा लगता है, जैसे दीर्घकाल तक चिंता करने की कोई बात ही नहीं हो।
जबकि सतत कृषि के बारे में बातें की जाती रही, कृषि-पारिस्थितिकीय खेती प्रणालियों पर पिछले कुछ सालों में ध्यान गया है। यहां लगता है कि आंध्र प्रदेश में प्रोत्साहित की गयी समुदाय प्रबंधित प्राकृतिक खेती प्रणालियां विश्व में कृषि-पारिस्थितिकी की सबसे बड़ी प्रयोगशाला के रूप में सामने आयी है और परिणामस्वरूप सामने मौजूद बेहद हानिकारक जलवायु संकट का स्थाई समाधान प्रदान करती है। ऐसा भी महसूस होता है कि जलवायु संकट का यह जो कृषि-पारिस्थितिकीय समाधान प्रदान करती है वह उम्मीद और संकल्पों से भरपूर है। यह सही वक्त है कि क्षेत्र-विशेष की अनुकूलताओं को ध्यान में रखकर, आंध्र प्रदेश का यह मॉडल पूरे देश में लागू किया जाये। जैसा कि यह लेखक प्राय: कहते हैं कि जो 8 लाख किसान पूरी तरह से रासायनिक कृषि से प्राकृतिक कृषि पद्धतियों की ओर रुख कर चुके हैं या करने की प्रक्रिया में हैं, वे कड़ी चुनौतियों से दो-चार होते हैं, जिन्हें प्रति वर्ष आने वाली खरीफ और रबी सीज़न की रिपोर्टों में उजागर किया जा चुका है।
जब हरित क्रांति आयी, तो सघन कृषि पद्धतियों को अंजाम देने के लिए एक सुनियोजित और तय इको सिस्टम था। इसमें विश्वविद्यालयों, विशेष रिसर्च संस्थानों, कृषि विस्तार नेटवर्क, और कृषि ऋण तंत्र की स्थापना करने के साथ ही यथोचित विपणन अवसर पैदा करना शामिल था। जब भी जरूरी हुआ तो सब्सिडी व निवेश का प्रवाह भी रहा। इससे भी ज्यादा मदद के रूप में, बीज विकास संरचना का सृजन और उर्वरक संयंत्र और कीटनाशक कारखानों की स्थापना करना शामिल रहा।
प्राकृतिक कृषि के मामले में, हरित क्रांति को मदद देने के लिए जो विशाल सहायक प्रणाली निर्धारित की गई थी, उसका एक अंश भी प्रदान नहीं किया गया है। हालांकि जलवायु मसले के समाधान करने को लेकर प्राकृतिक खेती ने अपनी भूमिका और क्षमता स्पष्ट तौर पर दर्शायी है। आने वाले समय के मुताबिक इसे इसकी उचित मान्यता दी जानी बाकी है। इसी प्रकार, दूसरे उन विभिन्न एग्रो-इकोलोजिकल दृष्टिकोणों को भी यथोचित मान्यता प्रदान की जानी जरूरी है जिनका प्रदर्शन देश के अलग-अलग इलाकों में प्रगतिशील किसान कर रहे हैं। सामूहिक तौर पर, माना जा सकता है कि अब वक्त आ गया है कि नीतिगत आयोजन में नॉन-कैमिकल दृष्टिकोणों को सर्वाधिक प्राथमिकता प्रदान की जाये।
पहली और सबसे महत्वपूर्ण कोशिश नौकरशाहों, न्यायाधीशों और कुलपतियों के लिए समय-समय पर ओरिएंटेशन आयोजित करने को एक तंत्र विकसित करने की होनी चाहिए। समाधान इसी में निहित है। इस मामले में महत्वपूर्ण उन लोगों की सोच को बदलना इतना आसान नहीं है जो उस माहौल में बड़े हुए हैं जहां कृषि रासायनिक साधनों के प्रयोग पर आधारित है। नये ढंग की कृषि की ओर उनका रुझान करने लिए जरूरत है एक निरंतर शैक्षिक जागरूकता कार्यक्रम की जो छोटी अवधि के कोर्सेज में विभाजित हो, जो खेती को भविष्य के लिये तैयार करे।
संक्षेप में, सघन खेती पद्धतियों के बजाय कृषि–पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण की ओर रुख करने से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि द्वारा निभाई जा रही भूमिका कम हो जायेगी, जो जलवायु विघटन की दिशा में ले जायेगी। साथ ही इससे कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को न्यूनतम करने के लिए शामक रणनीतियां बनायी जा सकेंगी। इसके साथ ही, तीसरा लाभ है यह लोगों के लिए स्वस्थ भोजन मुहैया कराएगी।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।