सभी समुदायों के हितों की पूर्ति जरूरी
फैयाज अहमद फैजी
16वीं राष्ट्रीय जनगणना का व्यापक कार्यक्रम शीघ्र ही प्रारंभ होने वाला है। इसके साथ ही अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों की गिनती की लंबे समय से चली आ रही मांग फिर जोर पकड़ने लगी है। अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले देश भर में फैले विभिन्न सामाजिक संगठनों ने विगत 25 जुलाई को आंध्र प्रदेश भवन, दिल्ली में एक सम्मेलन आयोजित कर सोशल रेवोलुशन अलायंस नामक एक संयुक्त संगठन गठित कर राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की मांग को मजबूती प्रदान की है।
ज्ञात रहे कि 1931 की जनगणना के बाद से अब तक अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों की गिनती नहीं हो सकी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने वादा करने के बावजूद 2011 में हुई 15वीं राष्ट्रीय जनगणना में अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित जातिगत गणना के आंकड़े एकत्र नहीं किए। सितंबर 2018 में, तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की थी कि 2021 में होने वाली 16वीं राष्ट्रीय जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातियों के आंकड़े उपलब्ध होंगे। कई राज्य विधानसभाओं ने अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़े एकत्र करने के लिए प्रस्ताव पारित किए लेकिन फरवरी, 2020 में केंद्र सरकार ने राज्यों की मांगों के बावजूद जातिगत जनगणना कराने से इनकार कर दिया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत भारत के राष्ट्रपति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति की जांच करने के लिए आयोग गठित कर सकते हैं। अनुच्छेद 340 इस बात को स्पष्ट करता है कि कोई भी आयोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अन्य पिछड़ा वर्ग की स्थिति की उचित पड़ताल के बाद ही सिफारिशें कर सकता है। ऐसी स्थिति में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातिगत आंकड़े एकत्र करना नितांत आवश्यक हो जाता है ताकि शिक्षा, रोजगार और राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में अन्य पिछड़े वर्ग से संबंधित सभी पात्र समुदायों को आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का समुचित लाभ मिल सके।
इस पूरी बहस में हिन्दू धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित जातियों की (जिन्हें भी अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित किया गया है) गणना की मांग छूटती हुई प्रतीत हो रही है या उतनी तीव्रता से मुद्दा नहीं उठाया जा रहा है। जबकि 1955 में प्रस्तुत काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट पहला उदाहरण थी, जिसमें मुसलमानों और अन्य धर्मों के बीच कुछ जातियों/समुदायों को भी पिछड़ा घोषित किया गया। लेकिन इस रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने यह कह कर खारिज कर दिया था कि पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए आर्थिक मानदंड की जगह ‘जाति’ का प्रयोग किया गया है।
मण्डल आयोग ने सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया कि जातियां या जातियों जैसी संरचना केवल हिन्दू समाज तक ही सीमित नहीं थी, अपितु यह गैर-हिन्दू समूहों, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों के बीच भी पायी जाती है। प्रसिद्ध इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ केस में, 9 जजों की बेंच ने पिछड़ेपन के निर्धारक के रूप में आर्थिक मानदंड को खारिज कर दिया। न्यायालय ने जाति की अवधारणा को यह कहते हुए बरकरार रखा कि भारत में जाति एक सामाजिक वर्ग हो सकती है और प्रायः होती है। गैर-हिन्दुओं में पिछड़े वर्गों के सवाल पर, न्यायालय ने कहा कि उनकी पहचान उनके पारंपरिक व्यवसायों के आधार पर की जानी चाहिए।
एक अजीब विडम्बना है कि मण्डल आयोग द्वारा मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियों को शामिल कर लेने के बाद भी साधन संपन्न एलिट मुस्लिमों द्वारा मुस्लिम आरक्षण का असंवैधानिक और अनैतिक राग छेड़ा गया (ज्ञात रहे कि लगभग 90 फीसदी मुसलमान ओबीसी और एसटी आरक्षण के परिधि में आ चुके थे)। पिछड़े वर्ग के मुसलमानों को यह कभी बताने की चेष्टा नहीं की गई कि मंडल आयोग के अनुसार वो भी हिन्दू समाज के पिछड़े वर्ग की तरह कल्याणकारी योजनाओं और आरक्षण के पात्र हो गये हैं।
रंगनाथ मिश्रा कमेटी और सच्चर कमेटी की रिपोर्टों के आधार पर मुस्लिम धर्मावलंबी दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थिति स्पष्ट है। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग के मुस्लिमों के साथ-साथ दलित वर्ग और आदिवासी वर्ग के मुस्लिम समुदायों की गणना तर्क एवं न्यायसंगत जान पड़ती है। अब तक आरक्षण का लाभ सभी धर्मों के पात्र समुदायों को उचित रूप से मिल रहा है या नहीं, इसकी समीक्षा के लिए भी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक जातिगत आंकड़े जरूरी हो जातें हैं। सामाजिक न्याय की परिकल्पना को पूर्णरूपेण चरितार्थ करने के लिए जातिगत जनगणना को अब और अधिक टाला नहीं जा सकता।