सौर अनुसंधान में भारत की नई ऊंचाइयां
07:52 AM Sep 26, 2023 IST
चएफ ब्लानफोर्ड को भारतीय मौसम विभाग का महानिदेशक बनाने (1875-89) के वक्त से भारत का सौर उर्जा अनुसंधान परंपरागत तौर पर काफी समृद्ध रहा है। उन्होंने 1881 में प्रस्तावित किया था कि धरती की सतह पर पड़ने वाले सूर्य-ताप का सटीक रिकॉर्ड रखा जाए, साथ ही ऋतुओं से साथ इसमें आते बदलाव और भारत में मानसून की चाल का लेखा-जोखा भी रखा जाए। पंजाब में विज्ञान को लोकप्रिय करने में अग्रणी रहे रुचि राम साहनी पहले स्थानीय अफसर थे जिनकी नियुक्ति ब्लानफोर्ड के अधीन बतौर द्वितीय उप-मौसम लेखाधिकारी हुई थी और वे शिमला में इंपीरियल मिटियोरोलॉजिकल रिपोर्टर के पद पर रहे।
द कोडाईकनाल सोलर ऑब्ज़र्वेटरी (केएसओ), जो कि मद्रास ऑब्ज़र्वेटरी के बाद बनी, 1899 में स्थापित हुई। यहीं पर 1900 में ब्रिटिश खगोलशास्त्री जे.एवरशेड ने सौर-खगोलशास्त्र में नए प्रभावों को खोजा था, जिसका नामकरण उनके नाम पर ‘एवरशेड इफैक्ट’ हुआ। एवरशेड ने केएसओ में काम करने को केएस कृष्णन को भी आमंत्रित किया। लेकिन वे सीवी रमन के साथ काम करने कलकत्ता चले गए। कृष्णन और रामन 1928 में हुई खोज‘रामन इफैक्ट’ के सह-लेखक थे। भारत सरकार ने दिसम्बर 2008 में एवरशेड इफैक्ट की शताब्दी मनाने के लिए डाक-टिकट जारी की थी। 1971 में कोडाईकनाल और कवालूर ऑब्ज़र्वेटरी को मिलाकर बेंगलुरू में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स की स्थापना हुई, इसी संस्थान ने आदित्य-एल1 के मेन पेलोड में लगा विज़िबल लाइन एमिशन क्रोनोग्राफ बनाया है। अंतरिक्ष की ओर अग्रसर भारत का पर्यवेक्षक अभियान, आदित्य एल-1 अगले साल के आरंभ में अपने गतंव्य यानी उस जगह पहुंचेगा जहां पर पृथ्वी और सूर्य का गुरुत्वाकर्षण बल एक समान है। इस परिक्रमा पथ में रहते हुए एल-1 अपना पर्यवेषण कार्य शुरू करेगा, जो अगले पांच साल या अधिक जारी रहेगा। भारतीय अभियान में सात पेलोड हैं, जो फोटोस्फीयर, क्रोमोस्फीयर और सूर्य की सबसे बाहरी परत का सर्वेक्षण करेंगे। हालांकि, इसको सौंपा गया सामरिक कार्य है अंतरिक्ष का मौसम अर्थात सूर्य के कोरोनल मास इजैक्शन (सीएमई) के कारण चुम्बकीय क्षेत्र में पैदा होने वाले अप्रत्याशित तीखे चढ़ाव (स्पाइक्स) का अध्ययन। सूर्य से अलग-अलग दिशाओं में छूटा सीएमई एक सुपरसॉनिक इलैक्ट्रो-मैगनेटिक वैपन की तरह है, जिसके निशाने में कई बार पृथ्वी भी आ जाती है। इसकी विध्वंसक शक्ति की तीव्रता फैलने के साथ-साथ घटती जाती है लेकिन अक्सर फिर भी इतनी ताब रखती है, जो हमारी तकनीक-आधारित सभ्यता के संचार और पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के लिए खतरा बने। यह तीव्र चुम्बकीय तरंगें धरती पर हाई वोल्टेज ग्रिड को भी नुकसान पहुंचाती हैं। इस नुकसान से बचने का एकमात्र सुरक्षा उपाय है, वैश्विक बिजली ग्रिड को पूरी तरह बंद कर देना।
हर 11 साल बाद सूरज की सन-स्पॉट एक्टिविटी के बारे में हमें पता है, इस प्रक्रिया में अगला उरोज 2026 के आसपास होगा, जब आदित्य एल-1 अपने काम में लगा होगा। लगभग पिछले तीन दशकों से नेशनल एयरनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) अंतरिक्ष-मौसम की निगरानी एल-1 परिक्रमा में स्थापित किए अनेक उपग्रहों के जरिए करता आया है। 22 जून 2015 को नासा को इन्होंने तीव्र सोलर-स्टॉर्म की अग्रिम चेतावनी दी थी। अक्तूबर 2016 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नासा और अमेरिका में अन्य सरकारी एजेंसियों को इस प्रकार के आपातकालीन हालात की तैयारी करने का कार्यकारी आदेश दिया था। यूके भी अपने राष्ट्रीय जोखिम निगरानी कार्यक्रम में विपरीत अंतरिक्ष-मौसम को गंभीर प्राकृतिक आपदा की तरह लेता है।
यह संयोगवश हुई खोज, 22 जून 2015 को गामा-रे एस्ट्रोनॉमी एट पीइवी एनर्जी एस-फेस 3 (ग्रेप्स) नामक एक भारतीय कॉस्मिक-रे प्रयोग में यह पाया कि पृथ्वी का ‘चुम्बकीय आवरण धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है’ और इसका संबंध 22 जून 2015 को आए सौर-विकिरण तूफान से है, यह अध्ययन वर्ष 2016 में भौतिकी विज्ञान की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एक ‘फिज़िक्स रिव्यू लैटरर्स’ में छपा था। भारतीय खोज में यह भी दिखाया गया है कि पृथ्वी का अपना चुम्बकीय आवरण सौर-विकिरण तूफान को रोकने में अवरोध (ब्रेक) का काम करता है, और एल-1 परिक्रमा-कक्ष में इसकी तीव्रता को 700 किमी प्रति घंटा से घटाकर 35 किमी प्रति घंटा कर देता है। सौर-विकिरण तूफान को पृथ्वी तक पहुंचने में कितना समय लगेगा, इसकी सटीक गणना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि वैश्विक ग्रिड-बंदी से होने वाले आर्थिक नुकसानों को न्यूनतम किया जा सके।
इस खोज ने ग्रेप्स-3 विधि को अंतरिक्ष-मौसम के अध्ययन में सबसे संवेदनशील औजार स्थापित कर दिया है। ऊटी में किए गए प्रयोग ने समूचे विश्व मीडिया का ध्यान खींचा था। 119 मुल्कों में, 37 भाषाओं में 1000 से ज्यादा खबरें इस पर आई। भारतीय अणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष अनिल काकोडकर ने अंतरिक्ष-मौसम पर स्वतंत्र अनुसंधान को सर्वोच्च तरजीह देने का आह्वान किया है। वर्ष 2017 में आईयूपीएपी के खुले अधिवेशन में ग्रेप्स-3 के समूह अगुवा प्रोफेसर एसके गुप्ता को इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) कमीशन-4 का अध्यक्ष चुना गया है। इस साल के आरंभ में, नागोया जापान में हुई इंटरनेशनल कॉस्मिक रे कान्फ्रेंस में उन्हें प्रतिष्ठित ओ’सीलेग पदक से सम्मानित किया गया है।
कॉस्मिक रे रिसर्च पर भारत की भागीदारी 1926 में प्रोफेसर एएच कॉम्पटन (जिन्हें 1927 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला) की यात्रा से शुरू हुई थी, जब लाहौर स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी ने संयुक्त अनुसंधान के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। लाहौर से जेएम बेनाडे, एसएस भटनागर और नज़ीर अहमद ने कॉम्टम की टीम के साथ मिलकर गुलमर्ग के पास झील के तल में आयोनाइसेज़शन डिटेक्टर उतारकर कॉस्मिक रे की तीव्रता को मापा था। होमी भाभा, जोकि उस वक्त एक माध्यमिक शिक्षा छात्र थे, ने बम्बई (मुम्बई) में कॉम्टन के दिए संबोधन से प्रेरित होकर भौतिकी के क्षेत्र में जाना चुना। वर्ष 1931 में, जिस पहले सफल प्रयोग ने कॉस्मिक रे की संरचना को बतौर चाजर्ड पार्टिकल स्थापित किया था, उसके तहत भारत के विभिन्न अक्षांशों पर किए अध्ययन में कॉम्टन और फोरमैन क्रिस्चिएन कॉलेज, लाहौर से उनके भारतीय सहयोगी बेनाडे, आर विल्सन और मनाली के पास नग्गर स्थित उरुस्वती हिमालयन रिसर्च इंस्टीट्यूट के भूविज्ञानी जॉर्ज रोरिक ने साथ दिया था। 1955 में, भाभा ने अपने विद्यार्थी बीवी सिरिकेतन को ऊटी में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) में कॉस्मिक-रे प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। वहां भारत-जापान सहयोग से ग्रेप्स-3 प्रयोग जारी हैं। भाभा को अक्सर इन कालजयी शब्दों के कारण याद किया जाता हैः ‘प्रत्येक आरंभिक खोज एक दिन उपयोगी सिद्ध होती है’
अरुण कुमार ग्रोवर
Advertisement
द कोडाईकनाल सोलर ऑब्ज़र्वेटरी (केएसओ), जो कि मद्रास ऑब्ज़र्वेटरी के बाद बनी, 1899 में स्थापित हुई। यहीं पर 1900 में ब्रिटिश खगोलशास्त्री जे.एवरशेड ने सौर-खगोलशास्त्र में नए प्रभावों को खोजा था, जिसका नामकरण उनके नाम पर ‘एवरशेड इफैक्ट’ हुआ। एवरशेड ने केएसओ में काम करने को केएस कृष्णन को भी आमंत्रित किया। लेकिन वे सीवी रमन के साथ काम करने कलकत्ता चले गए। कृष्णन और रामन 1928 में हुई खोज‘रामन इफैक्ट’ के सह-लेखक थे। भारत सरकार ने दिसम्बर 2008 में एवरशेड इफैक्ट की शताब्दी मनाने के लिए डाक-टिकट जारी की थी। 1971 में कोडाईकनाल और कवालूर ऑब्ज़र्वेटरी को मिलाकर बेंगलुरू में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स की स्थापना हुई, इसी संस्थान ने आदित्य-एल1 के मेन पेलोड में लगा विज़िबल लाइन एमिशन क्रोनोग्राफ बनाया है। अंतरिक्ष की ओर अग्रसर भारत का पर्यवेक्षक अभियान, आदित्य एल-1 अगले साल के आरंभ में अपने गतंव्य यानी उस जगह पहुंचेगा जहां पर पृथ्वी और सूर्य का गुरुत्वाकर्षण बल एक समान है। इस परिक्रमा पथ में रहते हुए एल-1 अपना पर्यवेषण कार्य शुरू करेगा, जो अगले पांच साल या अधिक जारी रहेगा। भारतीय अभियान में सात पेलोड हैं, जो फोटोस्फीयर, क्रोमोस्फीयर और सूर्य की सबसे बाहरी परत का सर्वेक्षण करेंगे। हालांकि, इसको सौंपा गया सामरिक कार्य है अंतरिक्ष का मौसम अर्थात सूर्य के कोरोनल मास इजैक्शन (सीएमई) के कारण चुम्बकीय क्षेत्र में पैदा होने वाले अप्रत्याशित तीखे चढ़ाव (स्पाइक्स) का अध्ययन। सूर्य से अलग-अलग दिशाओं में छूटा सीएमई एक सुपरसॉनिक इलैक्ट्रो-मैगनेटिक वैपन की तरह है, जिसके निशाने में कई बार पृथ्वी भी आ जाती है। इसकी विध्वंसक शक्ति की तीव्रता फैलने के साथ-साथ घटती जाती है लेकिन अक्सर फिर भी इतनी ताब रखती है, जो हमारी तकनीक-आधारित सभ्यता के संचार और पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट्स के लिए खतरा बने। यह तीव्र चुम्बकीय तरंगें धरती पर हाई वोल्टेज ग्रिड को भी नुकसान पहुंचाती हैं। इस नुकसान से बचने का एकमात्र सुरक्षा उपाय है, वैश्विक बिजली ग्रिड को पूरी तरह बंद कर देना।
हर 11 साल बाद सूरज की सन-स्पॉट एक्टिविटी के बारे में हमें पता है, इस प्रक्रिया में अगला उरोज 2026 के आसपास होगा, जब आदित्य एल-1 अपने काम में लगा होगा। लगभग पिछले तीन दशकों से नेशनल एयरनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) अंतरिक्ष-मौसम की निगरानी एल-1 परिक्रमा में स्थापित किए अनेक उपग्रहों के जरिए करता आया है। 22 जून 2015 को नासा को इन्होंने तीव्र सोलर-स्टॉर्म की अग्रिम चेतावनी दी थी। अक्तूबर 2016 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नासा और अमेरिका में अन्य सरकारी एजेंसियों को इस प्रकार के आपातकालीन हालात की तैयारी करने का कार्यकारी आदेश दिया था। यूके भी अपने राष्ट्रीय जोखिम निगरानी कार्यक्रम में विपरीत अंतरिक्ष-मौसम को गंभीर प्राकृतिक आपदा की तरह लेता है।
यह संयोगवश हुई खोज, 22 जून 2015 को गामा-रे एस्ट्रोनॉमी एट पीइवी एनर्जी एस-फेस 3 (ग्रेप्स) नामक एक भारतीय कॉस्मिक-रे प्रयोग में यह पाया कि पृथ्वी का ‘चुम्बकीय आवरण धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है’ और इसका संबंध 22 जून 2015 को आए सौर-विकिरण तूफान से है, यह अध्ययन वर्ष 2016 में भौतिकी विज्ञान की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एक ‘फिज़िक्स रिव्यू लैटरर्स’ में छपा था। भारतीय खोज में यह भी दिखाया गया है कि पृथ्वी का अपना चुम्बकीय आवरण सौर-विकिरण तूफान को रोकने में अवरोध (ब्रेक) का काम करता है, और एल-1 परिक्रमा-कक्ष में इसकी तीव्रता को 700 किमी प्रति घंटा से घटाकर 35 किमी प्रति घंटा कर देता है। सौर-विकिरण तूफान को पृथ्वी तक पहुंचने में कितना समय लगेगा, इसकी सटीक गणना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि वैश्विक ग्रिड-बंदी से होने वाले आर्थिक नुकसानों को न्यूनतम किया जा सके।
इस खोज ने ग्रेप्स-3 विधि को अंतरिक्ष-मौसम के अध्ययन में सबसे संवेदनशील औजार स्थापित कर दिया है। ऊटी में किए गए प्रयोग ने समूचे विश्व मीडिया का ध्यान खींचा था। 119 मुल्कों में, 37 भाषाओं में 1000 से ज्यादा खबरें इस पर आई। भारतीय अणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष अनिल काकोडकर ने अंतरिक्ष-मौसम पर स्वतंत्र अनुसंधान को सर्वोच्च तरजीह देने का आह्वान किया है। वर्ष 2017 में आईयूपीएपी के खुले अधिवेशन में ग्रेप्स-3 के समूह अगुवा प्रोफेसर एसके गुप्ता को इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एप्लाइड फिज़िक्स (आईयूपीएपी) कमीशन-4 का अध्यक्ष चुना गया है। इस साल के आरंभ में, नागोया जापान में हुई इंटरनेशनल कॉस्मिक रे कान्फ्रेंस में उन्हें प्रतिष्ठित ओ’सीलेग पदक से सम्मानित किया गया है।
कॉस्मिक रे रिसर्च पर भारत की भागीदारी 1926 में प्रोफेसर एएच कॉम्पटन (जिन्हें 1927 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला) की यात्रा से शुरू हुई थी, जब लाहौर स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी ने संयुक्त अनुसंधान के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। लाहौर से जेएम बेनाडे, एसएस भटनागर और नज़ीर अहमद ने कॉम्टम की टीम के साथ मिलकर गुलमर्ग के पास झील के तल में आयोनाइसेज़शन डिटेक्टर उतारकर कॉस्मिक रे की तीव्रता को मापा था। होमी भाभा, जोकि उस वक्त एक माध्यमिक शिक्षा छात्र थे, ने बम्बई (मुम्बई) में कॉम्टन के दिए संबोधन से प्रेरित होकर भौतिकी के क्षेत्र में जाना चुना। वर्ष 1931 में, जिस पहले सफल प्रयोग ने कॉस्मिक रे की संरचना को बतौर चाजर्ड पार्टिकल स्थापित किया था, उसके तहत भारत के विभिन्न अक्षांशों पर किए अध्ययन में कॉम्टन और फोरमैन क्रिस्चिएन कॉलेज, लाहौर से उनके भारतीय सहयोगी बेनाडे, आर विल्सन और मनाली के पास नग्गर स्थित उरुस्वती हिमालयन रिसर्च इंस्टीट्यूट के भूविज्ञानी जॉर्ज रोरिक ने साथ दिया था। 1955 में, भाभा ने अपने विद्यार्थी बीवी सिरिकेतन को ऊटी में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) में कॉस्मिक-रे प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। वहां भारत-जापान सहयोग से ग्रेप्स-3 प्रयोग जारी हैं। भाभा को अक्सर इन कालजयी शब्दों के कारण याद किया जाता हैः ‘प्रत्येक आरंभिक खोज एक दिन उपयोगी सिद्ध होती है’
लेखक पंजाब यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति हैं।
Advertisement
Advertisement