अशोभनीय
यूं तो संसद का हालिया मानसून सत्र ही पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया लेकिन सत्र के अंतिम दिन उच्च सदन में जो निम्न हुआ, उससे सदन की गरिमा को गहरे तक आघात पहुंचा। देश चलाने वाले और कानून बनाने वाले यदि ऐसा अराजक व्यवहार करेंगे तो लोकतंत्र की गरिमा कहां बचेगी? चुनावी जंग के दौरान व सड़कों पर होने वाला विरोध व संघर्ष यदि संसद के भीतर होगा तो लोकतंत्र की मर्यादाएं तार-तार होंगी ही। हालांकि, सत्ता पक्ष और विपक्ष सत्र के अंतिम दिन के घटनाक्रम के लिये एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं, लेकिन हंगामे के वायरल हुए वीडियो हकीकत बयां कर रहे हैं, जिसमें महिला सांसद महिला मार्शल पर हमलावर नजर आ रही है। सत्ता पक्ष असंसदीय व्यवहार के लिये विपक्षी दलों को दोषी बता रहा है तो विपक्ष सरकार पर मार्शल लाकर सांसदों का अपमान करने की बात कर रहा है। जिसके विरोध में विपक्ष ने प्रदर्शन किया तो सत्ता पक्ष के मंत्रियों ने प्रेस कॉनफ्रेंस करके विपक्ष पर आरोप दागे। बहरहाल, इस हंगामे को देश और दुनिया ने देखा। अब हम किस तरह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का गुणगान करेंगे। सवाल स्वाभाविक है कि क्या राज्यसभा में हुए हंगामे की हकीकत देश जान सकेगा? क्या इस अप्रिय घटनाक्रम की जांच होगी? यह भी कि क्या वह जांच राजनीतिक दुराग्रहों से मुक्त हो सकेगी? ऐसे तमाम यक्ष प्रश्न हमारे सामने जवाब की प्रतीक्षा में हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जब देश महामारी के दंश से आहत है तब देश का राजनीतिक नेतृत्व लोकतंत्र के प्रहसन में लिप्त रहा। हंगामे की भेंट चढ़े सत्र के दौरान लोकसभा में महज 22 फीसदी काम का होना बताता है कि हमारे चुने सांसदों की लोकतंत्र के लिये प्रतिबद्धताएं क्या हैं? ऐसा लगा जैसे सुनियोजित ढंग से कामकाज को अवरुद्ध करने का प्रयास किया गया। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि पहली बार संसदीय इतिहास में राज्यसभा की कार्रवाई के दौरान मार्शलों का सहारा लिया गया। लेकिन सवाल यह भी है कि नियमावली को सभापति की ओर फेंकते और मेजों पर उछलकूद करते सांसदों को पहले भी देखा गया?
निस्संदेह, संसद स्वस्थ बहस करने, सवाल पूछने और सरकार के जनविरोधी फैसलों का विरोध करने का स्थान है। लेकिन इसकी अभिव्यक्ति जनप्रतिनिधियों के गरिमामय व्यवहार तथा लोकतांत्रिक गरिमा के अनुरूप ही होनी चाहिए। सत्ता पक्ष इस घटनाक्रम को विपक्ष के दिवालिएपन का प्रतीक बता रहा है तो विपक्ष लोकतंत्र की हत्या का जुमला दोहरा रहा है। लेकिन क्या नेता व राजनीतिक दल अपने सांसदों को गरिमामय व्यवहार के लिये प्रेरित कर सकते हैं? यही वजह है कि संसद में मानसून सत्र निर्धारित समय से दो दिन पहले की समाप्त करना पड़ा है। लेकिन हकीकत यह भी है कि सत्ता पक्ष की ओर से भी उस जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया गया, जो विवाद टालने के लिये जरूरी था। अब चाहे तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का मसला हो, पेगासस मामले की जांच हो या महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा हो, सरकार द्वारा इन्हें संबोधित ही नहीं किया गया। जाहिर है ऐसी हताशा में विपक्ष का आक्रामक होना स्वाभाविक ही था। लेकिन इस प्रतिरोध का संयमित और मर्यादित होना पहली शर्त ही है। देश का जनमानस पूछ सकता है कि संसद की कार्यवाही में करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद सिर्फ बाइस फीसदी ही काम क्यों हुआ? यह भी कि उच्च सदन, जिसे अपनी गरिमा व गंभीर व्यवहार के लिये जाना जाता है, वहां सभापति को रुंधे गले से सदन क्यों संबोधित करना पड़ा? क्यों सदन की शुचिता भंग हुई है? सवाल यह है कि देश की नयी पीढ़ी इन माननीयों से क्या प्रेरणा लेगी? क्या कल वे भी सार्वजनिक जीवन में ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे? यह विडंबना ही है कि जब देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, रोज चालीस हजार के करीब नये संक्रमण के मामले सामने आ रहे हैं तथा तीसरी लहर का खतरा लगातार बना हुआ है, तो क्या माननीयों को सदी के इस सबसे बड़े संकट पर गंभीर विमर्श नहीं करना चाहिए था? क्या जनप्रतिनिधियों को राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से इतर देश के दर्द का अहसास होता है?