जल-थल में प्लास्टिक
तमाम नये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-सर्वेक्षण चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी सांसों, पेयजल व फसलों में घातक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी है। विश्व की कई शोध पत्रिकाओं में छपे शोध-लेख समय-समय पर विभिन्न अध्ययनों के चेताने वाले निष्कर्ष प्रकाशित करते रहते हैं। यह बात अलग है कि कई निष्कर्षों को लेकर विदेशी बाजार व कारोबारियों के लक्ष्य भी होते हैं। चिंता की बात यह भी है कि विकासशील देशों में सरकारें रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के जुगाड़ में लगे रहने और गरीबी की समस्या से जूझते हुए, स्वास्थ्य के उन उच्च गुणवत्ता मानकों को वरीयता नहीं दे पाती, जो अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप हों। ऐसा ही एक अध्ययन जर्मन ब्रिटिश अकादमिक कंपनी स्प्रिंग नेचर द्वारा एक पर्यावरण विषयक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं ने केरल में दस प्रमुख ब्रांडों के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष 153 प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। निश्चय ही यह चिंता का विषय है। हालांकि, सर्वेक्षण के लिये केरल को ही चुनना और बोतलबंद पानी बेचने वाली भारतीय कंपनियों को चुनने को लेकर कई सवाल पैदा हो सकते हैं। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बोतलबंद पानी बेचने का बड़ा प्रतिस्पर्धी कारोबार है। आम आदमी के मन में सवाल उठ सकते हैं कि कहीं भारतीय बोतलबंद पेय बाजार को तो निशाने पर नहीं लिया जा रहा है। दुनिया के बड़े कारोबारी देश भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार पर ललचाई दृष्टि रखते हैं। इसके बावजूद मुद्दा गंभीर है और हमारी सरकारों को अपने स्तर पर गंभीर जांच-पड़ताल करनी चाहिए। इस दिशा में न केवल केरल बल्कि अन्य राज्यों में भी ऐसे ही अध्ययन होने चाहिए। वैसे तो एक खास वर्ग ही बोतलबंद पानी का उपयोग करता है, लेकिन पानी के अन्य स्रोतों का भी गंभीर अध्ययन किया जाना चाहिये। इसमें सरकारी जल आपूर्ति को भी शामिल करना जरूरी है।
हमारे जीवन में जहर घोल रहे माइक्रोप्लास्टिक के हवा व पेड़-पौधों पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर भी कई अध्ययन सामने आए हैं। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जतायी गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण सांसों के जरिये हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। सर्वविदित है कि देश के नीति-नियंताओं की कार्यस्थली दिल्ली दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी है। कमोबेश देश के कई अन्य शहर भी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल हैं। प्रदूषण के कारण प्लास्टिक कण हमारी जीवन प्रत्याशा को घटा रहे हैं और कैंसर जैसे कई घातक रोग साथ में दे रहे हैं। विडंबना देखिये न तो सरकारें इस गंभीर संकट के प्रति सचेत हैं और न ही अपने स्वास्थ्य के प्रति जनता जागरूक है। वहीं मुफ्त की रेवड़ियों की आस रखने वाले मतदाता इस गंभीर संकट को चुनावी मुद्दा बनाने की बात कभी नहीं करते। संकट तो यहां तक बढ़ गया है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है। दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इस तरह माइक्रोप्लास्टिक की दखल भोजन, हवा व पानी में होना मानव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे की घंटी ही है। जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश में सिंगल यूज प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध के बावजूद ये खुलेआम बिक क्यों रहा है? दुकानदारों व उपभोक्ताओं को तो इसके उपयोग पर दंडित करने का प्रावधान है, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादित करने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं,लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं। यह संकट हमारी जिम्मेदार नागरिक के रूप में भूमिका की जरूरत भी बताता है।