चौराहे पर शर्मसार होती मानवता
कोई डेढ़ साल से ऊपर हो गया जब यूक्रेन में रूसी टैंक घुसे और दोनों देशों के बीच लड़ाई शुरू हुई। रूस को जिस आसान जीत की उम्मीद थी, वह मिल नहीं पाई और युद्ध आज भी जारी है। इसमें दोनों ओर के कई हज़ार सैनिकों की मौत हो चुकी है, यूक्रेन के शहर और गांव बर्बाद हुए हैं और 5 लाख से अधिक यूक्रेनी लोग पड़ोसी मुल्कों में शरणार्थी बनने को मजबूर हुए हैं। शरणार्थी तो शरणार्थी होता है न कि नागरिक, सो जो कुछ भी जीवन बनाए रखने के लिए मिले, उसको स्वीकार करना पड़ता है। शांति स्थापना के प्रयास परिणामहीन रहे, तिस पर एक और मुसीबत भरी सर्दी सिर पर है। कुल मिलाकर प्राप्ति यही रही कि एक ओर हज़ारों-हज़ार यतीम बच्चे एवं विधवाएं तो दूसरी तरफ बर्फ एवं कीचड़ भरी खाई-खंदकों में डटे और एक दूसरे के दुश्मन बने सैनिक। अलबत्ता, युद्ध से मुनाफा कमाने वाले उद्योग-धंधे खूब तरक्की पर हैं।
गोया मानवता पर अकथनीय मुसीबतें बरपाने वाली यह लड़ाई काफी न थी कि हमास ने 7 अक्तूबर के दिन इस्राइल-गाज़ा सीमा पर कई जगहों पर धावा बोल दिया। यह बुजुर्ग, औरतों, बच्चों सहित निहत्थे लोगों पर किया गया नृशंस हमला था। खून और कत्लोगारत की इस आंधी में किसी को नहीं बख्शा गया, यहां तक कि संगीत सम्मेलन को भी, जिसमें भाग ले रहे युवाओं को घेरकर मार डाला गया, बलात्कार हुए और कुछ महिला-पुरुषों को अगवा कर लिया। दुनिया को झटका लगा और इस्राइल और उसके सहयोगी प्रतिकर्म की आग से भर उठे। उसके बाद, गाज़ा के नागरिक– जहां एक छोटे से भूभाग पर लगभग 20 लाख फलीस्तीनी बसे हैं– इस्राइली कोप का भाजन बने। आकाश, थल और जल से बम बरसाए गए। गाज़ा से लाखों लोगों को फिर से अपनी ही भूमि पर शरणार्थी बनना पड़ा। बेशक दुनियाभर में उनके समर्थन में प्रदर्शन हुए, जिससे भले ही अंतःकरण को कुछ महरम लगता हो लेकिन उस गाज़ा शहर को नहीं जिसे तबाह कर डाला है। अर्थात् और अधिक विधवाएं और यतीम बच्चे... इस बीच और हथियार और गोला-बारूद इस्राइल पंहुच रहे हैं और युद्ध के मुनाफाखोर उद्योगों की पौ-बारह। संयुक्त राष्ट्र और और एजेंसियों को गाज़ा में घुसने नहीं दिया जा रहा। पानी, भोजन, ईंधन, दवाएं इत्यादि सब बहुत कम या खत्म हो चुका है। गलियां-सड़कें लाशों से पटी पड़ी हैं और जो जीवित हैं वह चलती-फिरती लाश समान।
इस अमानवता के और भी कई उदाहरण हैं। हमारा इतिहास युद्ध, बर्बादी, नरसंहार, लूट और बलात्कार से सना पड़ा है। यह वह पुराना खेल है जिसे बड़ी ताकतें बार-बार दोहराती रहती हैं, मानो महारत हासिल करना चाहती हो। वर्ष 1917 में फलस्तीन की भूमि पर, जो अरबी लोगों की बस्ती है, बालफोर घोषणा के बाद इस्राइली राष्ट्र स्थापना करने का ऐलान हुआ और इससे हिंसा और नफरत का एक नया दौर शुरू हुआ। ‘नक्बा’ नामक अभियान के परिणाम में वह इस्राइली भूमि बनी, जहां से फलस्तीनियों को खदेड़ दिया गया। उसके बाद से कई लड़ाइयां हुई हैं और अनगिनत जानें गईं। जब मैं कहता हूं ‘नया दौर’ तो वह इसलिए कि यरुशलम कई युद्धों की वजह का केंद्र रहा है और तीन प्रमुख धर्मों का जन्मस्थल भी है। यहां पर लड़ाइयां व धर्मयुद्ध रोमन इतिहास से भी पहले होती रही हैं। असीरियन, बेबीलोनियन और रोमनों ने यहूदियों को प्रताड़ित किया। बतौर शरणार्थी उन्हें कई मुल्कों के शासकों की दया पर जिंदा रहना पड़ा, बाद में वहां से भी बार-बार प्रताड़ित हुए खदेड़े गए। नाज़ियों के समय हुआ नरसंहार मानव इतिहास में, एक कौम विशेष के प्रति क्रूरता के सबसे स्याह अध्यायों में एक है। कहते हैं लगभग 60 लाख यहूदी इस नरसंहार में होम हुए।
अपने यहां की बात करें तो, पंजाब के विभाजन के परिणामवश भी दंगे, कत्लोगारत, लूटमार और करोड़ों लोग बेघर हुए थे– क्या यह हमारे औपनिवेशिक शासकों की रणनीति का हिस्सा नहीं था, क्योंकि वे वैश्विक शतरंज पर अपनी चौधर बनाए रखना चाहते थे? अमेरिका में स्थानीय रेड-इंडियन लोगों की नस्लकुशी, ऑस्ट्रेलिया में एबओरीजन्स का खात्मा, मंगोलों के क्रूर विस्तार-अभियान, सोवियत यूनियन का पूरबी यूरोप को गुलामों सरीखा रखना और स्टालिन की क्रूरता... सूची अंतहीन है। यहूदियों का अपना मुल्क न होने की बाबत चर्चिल की पील कमीशन को कही बात मशहूर है ‘मैं इससे सहमत नहीं हूं क्योंकि भले ही नांद में कोई कुत्ता कई सालों से रह रहा है, तो क्या अंत में उसे नांद का मालिक करार दे दिया जाए। मेरा मानना है यह ठीक नहीं है। उदाहणार्थ, मैं नहीं मानता कि अमेरिका के रेड इंडियनों के साथ बहुत बड़ी ज्यादती हुई या ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय अश्वेतों के साथ। मेरा मानना है कि इनके साथ गलत नहीं हुआ, क्योंकि एक तरह से कहा जाए तो, एक अधिक ताकतवर, ज्यादा श्रेष्ठ, दुनियादारी को अधिक समझने वाली कौम पहुंची और उनकी जगह ले ली।’ तो क्या यह मानव इतिहास का निचोड़ है– ताकतवर सदा सही होता है या श्रेष्ठतम् ही जिंदा बचेगा? क्या हम सब जंगल के जानवर सरीखे हैं? किंतु यहां ठहरिए, जानवर दूसरों की नस्लकुशी नहीं करते, वे भूख लगने पर ही शिकार करते हैं न कि मनोरंजन या लालच के लिए। तो फिर हम क्यों नहीं मिलजुल रह सकते? हमें स्रोतों से भरपूर पृथ्वी की सौगात मिली हुई है... क्या जरूरी है कि लालच और खून की लालसा इस शांतिपूर्ण वजूद पर हावी होने दें?
हमारा इतिहास महान उपलब्धियों से भी भरा पड़ा है। विज्ञान हो या कला, दोनों ही क्षेत्रों में हमने बहुत ऊंचाइयां पाई हैं। पीछे देखें तो, गुफाओं-कंदराओं में रहने वाले मनुष्य का सफर बतौर शिकारी-भंडारी शुरू हुआ था। धीरे-धीरे, हमने खेती की कला सीखी और अनेकानेक फसलें उगाना शुरू कीं। नाना क्षेत्रों में वैज्ञानिक खोजें बढ़ती चली गईं और हम औद्योगिक युग में प्रवेश कर गए, जिससे हमारे संचार और परिवहन साधनों में गुणात्मक सुधार हुए, साथ ही, इस्पात एवं बिजली उत्पादन हुआ। मनुष्य आगे बढ़ता गया और आज हम आईटी और आर्टिफिशियल क्रांति से गुजर रहे हैं। इन्होंने हमारी जीवनशैली में बहुत भारी परिवर्तन ला दिया है। हम पृथ्वी से निकलकर अन्य ग्रहों तक जा पहुंचे हैं, चांद, मंगल और अन्य तारों पर जाकर पड़ताल कर रहे हैं। इन क्षेत्रों में बहुत ज्यादा प्रयोग हो रहे हैं। लेकिन फिर सवाल पैदा होता है आखिर अमानवता आई कहां से? मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो दूसरों का नरसंहार करता है! यह सब पैदा होता ही लालच, जीतने और ताकत हथियाने की चाहना से। अधिकांश क्षेत्रों में हुई हमारी सबसे बेहतरीन खोजें और अधिक विध्वंस एवं मारक अस्त्र बनाने में बदल गईं। क्यों नहीं हम अपने पड़ोसियों से शांतिपूर्वक मिलजुलकर रह सकते? पुलिस सेवा में अपने कार्यकाल में, मैंने बहुत-सी चिताएं और बदला-वश किए कत्ल देखे, विधवाएं देखीं और देखे वे बच्चे जिनका सब कुछ खो गया और बची केवल सूनी आंखें, जो त्रासदी ने दी। मेरा अनुभव बताता है कि चाहे कोई हिंसा सही कारणवश क्यों न करनी पड़े, उससे कहीं ज्यादा व्यावहारिक है शांति की राह चुनना। या फिर क्या यह विचार अर्थहीन है? क्या अपना पराभव ही हमारी अंतिम उपलब्धि होगी? या फिर जैसा कि बार्ड (शेक्सपियर) ने कहा ‘जैसे ऊधमी बच्चों के लिए कीट-पतंगे खेलने की चीज़ हैं, क्या हम भी देवताओं के लिए खिलौने हैं, जिन्हें वे खेल-खेल में मार डालते हैं।’
लेखक मणिपुर के राज्यपाल रहे हैं।