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चिकित्सा पद्धति के रूप में भी कारगर है उपवास

11:04 AM Oct 09, 2024 IST

अरुण नैथानी
वास्तव में नवरात्र का  आगमन ऐसी ऋतु में होता है जब मानसून की समाप्ति पर मानव शरीर संक्रमण काल से गुजर रहा होता है। वर्षा ऋतु में तमाम तरह के बैक्टीरिया पनपते हैं और रोगों के वाहक बनते हैं। इस मौसम में मीठी-मीठी सर्दी दस्तक देने लगती है। शरीर ठंड सहने के लिये तैयार हो रहा होता है। मौसम के इस संधि काल में नवरात्र का  आगमन जहां सेहत का पर्व है वहीं इसमें बेटी के सम्मान का गहरा संदेश छिपा है। यद्यपि व्रत विशुद्ध सेहत समृद्धि का उपक्रम है। यह विडंबना ही है हमने इस व्रत के दौरान विकल्प के तौर पर इतना पौष्टिक व गरिष्ठ भोजन खाना शुरू कर दिया है कि व्रत का औचित्य ही लगभग खत्म-सा होता नजर आता है।

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आकाश तत्व को संबल

योग व आयुर्वेद में आकाश तत्व को संबल देने के लिये उपवास पर बल दिया जाता है। योगी कहते हैं कि एक दिन में एक बार का भोजन जीवनदायी है। दूसरी बार का भोजन बलवर्धक है। तीसरी बार का भोजन रोग बढ़ाने वाला है तो चौथा भोजन मारक है। सही मायनों में उपवास रोग-मुक्ति का प्रबल साधन है। उपवास काल में संपूर्ण जीवन शक्ति रोग के कारकों को दूर करने में लग जाती है। जिससे शरीर निरोगी और शक्तिशाली बनता है। उपवास शब्द  उप (समीप) वास (निवास करना) से मिलकर बना है यानी स्व में स्थित होना। दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर व आत्मशोधन से स्वास्थ्य प्राप्ति का सुगम साधन है व्रत। इसे यूं भी कह सकते हैं कि व्रत शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वच्छता के लिये अचूक उपाय है। दूसरे शब्दों में कहें तो भोजन का पूर्ण रूप से परित्याग करके केवल जल पर निर्भर रहकर पाचन संस्थान को विश्राम देना ही उपवास कहलाता है। सही मायनों में ऋषि-मुनियों द्वारा उपवास को धर्म-आस्था से जोड़े जाने से लोग जाने-अनजाने में स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं। इस तरह उपवास भोजन त्यागने से शुरू होकर वास्तविक भूख लगने पर समाप्त होता है। दरअसल, उपवास में न केवल शरीर, बल्कि मन और आत्मा की भी शुद्धि होती है। उपवास काल में स्वत: ही मन परमात्मा की ओर लगता है। मन में अपूर्व शांति का अनुभव होता है। जिससे आत्मा का परिष्कार होता है। यह नवरात्र के व्रत का सार भी है।

रोग मुक्ति का प्रबल साधन

चिकित्सीय दृष्टि से कहें तो उपवास रोग मुक्ति का प्रबल साधन है। उपवास काल में संपूर्ण जीवन शक्ति केवल रोग दूर करने में लग जाती है। जिससे शरीर निरोगी और शक्तिशाली बनता है। दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर व आत्मशोधन से स्वास्थ्य प्राप्ति का प्रयत्न ही उपवास है। प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से कहें तो भोजन का पूर्ण रूप से त्याग करते हुए केवल जल पर रहकर पेट को विश्राम देना, उपवास कहलाता है। उपवास से न केवल शरीर ही नहीं, बल्कि मन और आत्मा के तल पर निर्मलता का अनुभव होता है।

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पाचन संस्थान को विश्राम

पाचन संस्थान को विश्राम देने वाला व्रत शारीरिक-मानसिक शुद्धि का साधन भी है। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगावस्था में कुछ खाना विष और उपवास अमृत के समान है। यह टकसाली सत्य है कि बीमार होने पर भूख स्वभावत: कम हो जाती है। दरअसल, उपवास काल में जीवन शक्ति रोग उपचार में लग जाती है। उपवास से स्वास्थ्य में निरंतर सुधार होता है। शरीर में रोग उत्पन्न करने वाले विजातीय द्रव्य का विनाश होता है। मन और आत्मा का परिष्कार करने वाला उपवास एक चिकित्सकीय उपलब्धि भी है। लेकिन शर्त यह है कि उपवास नियमों के अनुकूल होना चाहिए। वहीं व्रत संयमित जीवन का आधार भी है। इससे हम जीवन के प्रति एकाग्र दृष्टि पाते हैं।

व्रत में सावधानी

यदि हम बिना चिकित्सक की सलाह के उपवास करते हैं तो उसके लाभ संदिग्ध हो सकते हैं। वास्तव में बिना तैयारी और उपवास कला का ज्ञान पाये बिना दीर्घकालीन उपवास करना अनुचित है। वहीं दूसरी ओर उपचार की दृष्टि से उपवास किसी विशेषज्ञ की देखरेख में ही करना चाहिए।

व्रत खोलने में सतर्कता और नियम

सही अर्थों में उपवास खोलना उपवास करने से ज्यादा कठिन कार्य है। इसके लिए कठोर आत्मसंयम होना जरूरी है। दरअसल, उपवास के समय पाचनशक्ति अधिक दुर्बल हो जाती है। अत: उपवास खोलते समय सावधानी के साथ अत्यधिक हल्का व सुपाच्य भोजन कम मात्रा में लिया जाना चाहिए। उपवास खोलने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले जल के समान तरल पदार्थ लेने चाहिए। इसमें फलों का रस या सब्जियों का रस यानी सूप लिया जा सकता है। कुछ दिनों तक यह क्रम जारी रखने के बाद कुछ तरल भोज्य पदार्थ जैसे खिचड़ी (पतली और सादी) कम मात्रा में लेनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे उसकी मात्रा और ठोसपन को बढ़ाना चाहिए। इसी क्रम को अपनाते हुए साधारण भोजन पर आना चाहिए।

व्रत किस समय तोड़ें

चिकित्सीय दृष्टि से रखे जाने वाले व्रत तब खोले जाने चाहिए, जब वास्तविक भूख लगे। यानी गले और मुंह में उसकी संवेदना महसूस हो रही हो। जब उपवास में जीभ पर जमी मैल साफ हो जाए। व्यक्ति की नाड़ी सही गति से चलने लगे। जब शरीर का तापमान सामान्य होने लगे।

शरीर में व्रत के लाभ

महत्वपूर्ण बात यह है कि उपवास के बाद वास्तविक भूख लगती है। हम अधिकांश खाना समयबद्धता के कारण खाते हैं। वहीं उपवास के बाद त्वचा शुद्ध रक्त के प्रभाव से मुलायम-लचीली बन जाती है। इसके उपरांत शरीर हल्का महसूस होने लगता है। तन-मन में अलग-सी स्फूर्ति उत्पन्न होती है।

उपवास चिकित्सा के साइड इफेक्ट

दरअसल, आधुनिक चिकित्सा तंत्र के उपचार के चलते लंबे समय से दबी बीमारियां उपवास काल में बाहर निकलनी शुरू हो जाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा की भाषा में इसे रोगों का उभाड़ कहा जाता है। यह समस्या अक्सर दीर्घकालीन उपवास के दौरान उत्पन्न होती है। उपवास के दौरान शरीर की गंदगी बाहर निकलती है। जिससे मुंह का स्वाद कड़वा व कसैला हो जाता है। कई बार उपवास काल के दौरान उभाड़ के लक्षण इतने तीव्र होते हैं कि कई लोग घबराकर उपवास तोड़ देते हैं। इसका दुष्प्रभाव यह होता है कि उपवास बीच में खत्म करने से रोग की तकलीफ अधिक बढ़ जाती है।

उपवास काल के उपद्रव

लंबी उपवास चिकित्सा के दौरान किस रोगी को दिमाग में रक्त के पर्याप्त मात्रा में न पहुंचने से मूर्छा आ सकती है, ऐसे रोगी को सीधा लिटाकर पैर ऊपर करने चाहिए। इससे मस्तिष्क को पर्याप्त मात्रा में रक्त मिलता है। यदि चक्कर आते हैं तो इसकी वजह व उपचार मूर्छा के समान ही होता है। ऐसी दशा में रोगी का सिर ऊपर रखना चाहिए। उसे खुली हवा में विश्राम देना चाहिए। उपवास में यदि पानी अधिक पिया जाए मगर मूत्राशय को खाली करने का उपाय न किया जाये तो मूत्रावरोध हो सकता है। इस अवस्था में ठंडा मेहन स्नान किया जाना चाहिए। पेड़ू पर गर्म और ठंडा स्प्रे लाभकारी होता है। उपचार के आरंभ में प्राय: सिरदर्द का लक्षण पाया जाता है। इसके लिये धैर्य के साथ ठीक होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस दौरान नाड़ी गति मंद होने की शिकायत हो सकती है, लेकिन यह सामान्य बात है। इसमें गर्म पानी में स्नान से लाभ मिलता है। इस दौरान उपवास चिकित्सा करा रहे रोगी के लिये हल्का व्यायाम लाभकारी हो सकता है। मसाज भी लाभकारी होता है। वहीं यदि दीर्घकालीन उपवास में नाड़ी की गति तेज होती है तो ठंडे पानी की सलाह दी जाती है। ऐसी अगर किसी रोगी को उपवास के दौरान इसके उपद्रव से जूझना पड़ता है तो गर्म पानी पीने से आमाशय के उत्तेजक पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। लेकिन उपवास चिकित्सा किसी योग्य प्राकृतिक चिकित्सक की देखरेख में ही की जानी चाहिए।

उपचार के अनुरूप उपवास

व्रत प्राकृतिक चिकित्सक की सलाह पर रोग की प्रकृति के अनुसार किये जाते हैं। उदाहरणत: प्रात:कालीन उपवास के मायने हैं सुबह का नाश्ता छोड़ना। सायंकालीन उपवास यानी अद्धोकाम (रात का भोजन) छोड़ना। एकारोपवास यानी एक ही आहार पर निर्भरता। रसोपवास- फल रस या सूप के साथ उपवास। दुग्धोपवास या दुग्धकल्प (दूध गाय का हो तो ज्यादा लाभदायक है) में केवल दूध के साथ उपवास। वहीं मठोपवास- मट्ठा कल्प, जो हमारी पाचन शक्ति बढ़ाता है। वहीं पूर्णोपवास जिसमें पानी के अलावा कुछ नहीं खाना होता है। साप्ताहिक उपवास- सप्ताह में एक बार व्रत रखकर आम लोगों व कर्मचारियों की सेहत का संवर्धन करना। इसी तरह लघु उपवास- तीन से सात दिन का होता है। कड़ा उपवास- असाध्य रोगों के लिए किया जाता है। टूट उपवास- दो से सात दिन का होता है। इसमें तीन दिन के बाद हल्के प्राकृतिक भोजन पर निर्भरता रहती है। इसे दीर्घ उपवास भी कह सकते हैं।

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