मानवीय नजरिये का विकास करे शिक्षा
इंग्लिश व्याकरण, थर्मोडायनामिक्स, मध्य-युगीन इतिहास या कंप्यूटर इंजीनियरिंग या फिर फायनेंशल मैनेजमेंट– क्या इनसे परे शिक्षा में कुछ ऐसा है जिसको लेकर एक अध्यापक को चिंता होनी चाहिए? जब हमने हाल ही में शिक्षक दिवस मनाया है तो शायद यह सवाल बेमानी नहीं है। या फिर, वर्तमान कठिन और व्यावहारिक बने रहने वाले समय में, क्या हममें से अधिकांश अध्यापक समाज में तारी हो चुकी सोच से सहज हैं? बीएड या पीएचडी की डिग्री प्राप्त करो, अध्यापक पद के लिए आवेदन कीजिए और यदि खुशकिस्मत हुए तो नौकरी मिल जाएगी, फिर वही 9 से 5 की नौकरी –एक विशेष ताना-बाना, आत्माविहीन ढर्रे की रोजमर्रा। कोई हैरानी नहीं कि बतौर अध्यापक हममें से अधिकांश केवल पाठ्यक्रम पूरा करवाने, परीक्षाएं लेने, बड़े लोगों जैसे कि प्रधानाचार्य, कुलपति या राजनीतिक आकाओं की खुशामद करके खुद को सुरक्षित और स्थाई बनाने में लगे रहते हैं। जैसा कि कई लोग कहेंगे, आरामतलबी और इससे जुड़े भय के युग में, यह आसान नहीं है कि कोई शिक्षा के मायने पुनः निर्धारण करे या देखे कि क्या कोई अध्यापक कक्षा को मुक्त संवाद अथवा बंधनयुक्त माहौल में चलाता है।
तथापि, बतौर एक अध्यापक, हर किस्म के भौतिक और प्रतीकात्मक हिंसा से भरे मौजूदा कठिन और असहिष्णु वक्त में, हमें हर हाल में दिल नहीं छोड़ना है और यह भावना कायम रखनी है कि अच्छा अध्यापक वह नहीं होता जो खुद को सुरक्षित रखने, पाठ्यक्रम पूरा करवाने या परीक्षाओं के लिए विद्यार्थियों को तैयार करवाने तक सीमित रहे। इसकी बजाय, वह तो एक ऐसा उत्प्रेरक है, जो मानववादी स्वभाव के फलने-फूलने में सहायक हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह इतिहास पढ़ाए या गणित, कविता या भौतिकी, एक अच्छा अध्यापक वही है जो एक शिष्य के अर्थ को ‘जिंदगी भर सीखने वाले छात्र’ में परिवर्तित कर दे और एक न्यायप्रिय एवं मानवीय दुनिया बनाने की खोज का पथिक हो। यहां अध्यापन के तीन मूल आदर्शों के बारे में बताना प्रासंगिक है।
पहला, कक्षा वैसी हो जहां पढ़ाई आलोचनात्मक शिक्षा शास्त्र की भावना के अनुसार वास्तव में स्पंदनशील, द्वितर्कपूर्ण और आत्मार्थक बने। यह तभी संभव है जब शिक्षक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएं और सीखने वाले युवाओं को प्रोत्साहित किया जाए कि वे खुद को सवाल पूछने, खोज-पड़ताल करने और दुनिया को पुनर्भाषित करने लायक बनाएं। एक अच्छा अध्यापक बतौर सहयात्री अपने छात्रों के साथ मिलकर काम करता है और उनके साथ नए सवालों और संभावनाओं के जरिये दुनिया का अन्वेषण करता है। केवल रट्टा लगाने, सर्व-ज्ञाता अध्यापक का डर, छात्रों पर लादी निष्क्रियता, तमाम किस्म की एमसीक्यू मानक आधारित परीक्षाओं में सफल होने के दबाव से हटकर खुले माहौल में पढ़ाने-सीखने का अनुभव ही अलग है। सरल ढंग से समझाएं तो, युवा छात्र केवल इस किस्म के आलोचनात्मक शिक्षा-विज्ञान के जरिये वह बौद्धिकता और नैतिक साफगोई पा सकते हैं जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था, जाति आधारित ऊंच-नीच, खोखले रीति-रिवाजों, अंधविश्वासी रिवायतों और भारी सामाजिक-आर्थिक असमानता पर सवाल उठाने लायक होती है। इसी प्रकार, यह आलोचनात्मक शिक्षा विज्ञान की करामाती शक्ति है जो सीखने वाले युवा को प्रोत्साहित करती है कि विज्ञान को विशुद्ध रूप से यांत्रिक या तकनीकी महारत पर आधारित तर्क में बंधने से बचाए और इसे वैज्ञानिक और मानववादी-स्वभाव में परिवर्तित करे - वह जो तार्किक और सृजनात्मक बारीकियों से देखे, व्यवहार करे और जिसका दुनिया से सरोकार हो।
दूसरा आदर्श, एक बढ़िया अध्यापक एकतरफा संवाद बनाने से बचता है, बहुलतावादी आयामों को प्रोत्साहित करता है और अपने विद्यार्थियों में सहानुभूति की ताकत को धार देने को प्रेरित करते हुए उनके अंदर धीरज से सुनने की कला रोपता है। कक्षा में परस्पर संवाद खत्म अर्थात लोकतंत्र की मौत। लोकतंत्र केवल समय-समय पर चुनाव करवाने की रिवायत नहीं है, बल्कि लोकतंत्र संवाद और विचारनीत है, यह विवादों को तार्किक बहस और अनेकवाद के प्रति संवेदनशीलता से सुलझाने की कला है। बतौर अध्यापक, यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिये कि जब हम सुनने की कला को विकसित करते हैं तो जाति-पाति, जातीयता, राष्ट्रीयता और धर्म रूपी सीमाओं से बने दायरे को लांघ जाते हैं। हम महासागर सरीखा बन जाते हैं, जो तमाम धाराओं को समाहित कर ले। कल्पना करें कि एक हिंदू छात्र जलालुद्दीन रूमी के काव्यात्मक ज्ञान का आनंद ले। कल्पना करें, एक ब्राह्मण छात्र बेसब्री से इंतजार करे कि कब शिक्षक ज्योतिराव फुले या बाबा साहेब अंबेडकर के बारे में पढ़ाए। या फिर कल्पना कीजिए कि एक मुस्लिम छात्र और उसका ईसाई अध्यापक महात्मा गांधी द्वारा गीता उपदेशों की मीमांसा को लेकर उत्साहित हो। हालांकि मौजूदा जहरबुझे समय में, इन संभावनाओं के बारे में सोचना भी मुश्किल है, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो अध्यापक संवाद और सुनने की कला को प्रोत्साहित करने का साहस करे, वह बहुत बड़ा काम करता है। वह सत्तावादी आवेग का प्रतिरोध करता है, बहिष्करण की कमियों को उजागर करता है और छात्रों में लोकतांत्रिक सोच बनाने के बीज बोता है।
तीसरा, आशावादी शिक्षा विज्ञान के बिना अर्थपूर्ण अध्यापन व सीखना क्या है? हर तरह की आपदाओं की पहचान बने हमारे मौजूदा समय में सकारात्मक जिंदगी वाला दृष्टिकोण बनाए रखना आसान नहीं है, जब देखते हैं कि लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है, जहां अति-वास्तविक संस्कृति उद्योग सुखवादी उपभोक्तावाद के सिद्धांत के माध्यम से दर्शकों को लुभा रहा है, ऐसा प्रचार तंत्र जो सच को झूठ और मिथ्या को सत्य बना रहा है, समाज की उन्नति मौसमी आपदाओं और जोखिम की एवज पर होने के बावजूद उदासीनता व्याप्त है, और सबसे ऊपर, आत्ममुग्ध राष्ट्रों का बढ़ा अहम और निरंतर बनी हुई युद्ध एवं विध्वंस की आशंका। क्यों न हम इस अंधकार से निकलने और उत्थान की उम्मीद में उस शिक्षा और शिक्षा-विज्ञान की ओर फिर मुड़ने की चाह करें जिससे कि नैतिक, राजनीतिक,बौद्धिक दक्षता प्राप्त हो पाए और आध्यात्मिक उत्थान, पर्यावरणीय संवेदनशीलता और परोपकारी-लोकतांत्रिक दुनिया बनाने के प्रयास हों? क्या अध्यापक इस ऐसी संवेदनशीलता, इच्छा और आशा को प्रफुल्लित-सींचित करने में अग्रणी भूमिका निभाऐंगे?
खैर, हकीकत में इन आदर्शों को निभाना बहुत मुश्किल है। हालांकि, इन आदर्शों के मूल्य का अहसास होने के बाद ही हम शिक्षा को नव-उदारवाद के आघातों और अतिवाद से बचाने का प्रयास करेंगे। और इस तरह, शिक्षक दिवस पर यह प्रार्थना की गयी है। आशा कीजिये कि शिक्षक समाज एकजुट हो और जो कुछ हो रहा है उसका मुकाबला करे, मसलन, शिक्षण पेशे में निरंतर ह्रास, सृजनात्मक स्वतंत्रता बनने से पैदा भय, नूतन शिक्षा-विज्ञान और अन्वेषण पर नुक्ताचीनी, और सबसे अधिक, शिक्षक को लगातार निगरानी में रखकर महज एक मातहत कर्मचारी जैसा बना डालना। आखिरकार, यदि शिक्षण का बतौर बंधनमुक्त कार्य अवसान हो गया तो फिर चाहे कोई कितना भी बड़ा सत्ताधीश क्यों न हो, हमें नहीं बचा पाएगा।
लेखक समाजशास्त्री हैं।