दशलक्षण धर्म-मानवता के उच्च स्तर के प्रतीक
धर्म शब्द व्याकरण की दृष्टि से धृज् धारणे धातु के आगे मन प्रत्यय लगाने से बनता है। धर्म शब्द का धातुगत अर्थ धरण है, निरुक्त शब्द नियम से लिया है। इन दोनों के संयोग से धर्म का वास्तविक अर्थ है जिसे धारण किया जाये वही धर्म है। जैसे शासन में ‘वत्थु सहावो धम्मो’ कहा गया है अर्थात् ‘वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म सभी प्रज्ञाओं का धारण तथा रक्षण करता है और धारण करने के कारण ही उसे धर्म कहा जाता है।’
आचार्यों ने दश धर्म-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन एवं ब्रह्मचर्य का निर्धारण इस सुव्यवस्थित ढंग से किया है कि जिसका जीवन में प्रवेश हमें मानव बनाये रखने में कारण बनता है। सामान्यतया आज जिसे धर्म समझा जाता है वह धर्म नहीं सम्प्रदाय है, धर्म तो व्यक्ति समाज और विश्व के दैनिक क्रियाकलापों में एक नैतिक हस्तक्षेप है। अगर यह हस्तक्षेप नहीं रहेगा तो समाज में अपराध, भ्रष्टाचार तथा दुराचार का वर्चस्व प्रतिष्ठापित हो जाता है।
धर्म एक समग्र भाव है। धर्म का व्यापक धरातल स्वकल्याण पर आधारित होता है, इसमें निमित्त और उपादान दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। मानव के माध्यम से ये ही धार्मिक मूल्य समाज में रूपायित होकर किसी भी समाज को सुसंस्कृत एवं श्रेष्ठ समाज या राष्ट्र बना देते हैं, यही इनकी गरिमा और महिमा है, जब सारा संसार इस प्रकार के मूल्यों को अपनाकर तुच्छ वैयक्तिक तथा देशीय स्वार्थों से ऊपर उठकर मानव मात्र को अपनाकर, उसके सुख-दुःख को अपनाकर समग्र मानवता के कल्याण की ओर अग्रसर होगा तभी संसार में शांति बढ़ सकेगी। यही सच्ची मानवता की आधार भूमि होगी, यदि जीवन में इन दशलक्षण धर्म को दृढ़ता से अपना लिया जाये तो जीवन के रंग प्रशस्त होंगे, आकर्षक एवं सृजनात्मक होंगे।
दशलक्षण व्रत ऐसा महापर्व है जिसमें प्रत्येक मनुष्य यह कोशिश करता है कि उसने जो वर्षभर सांसारिक गतिविधियों में लिप्त होकर पाप किये हैं, उनसे प्रायश्चित के रूप में वह ज्यादा से ज्यादा नियम धारण कर अपने आप को धर्म से जोड़ सके.. कुछ नियम से अवगत हों :-
1. अहिंसा अणुव्रत (संकल्पित हिंसा का त्याग)। 2. सत्य अणुव्रत (ऐसा सच/झूठ नहीं बोलना जिससे किसी के प्राण चले जाएं)। 3. अचौर्य अणुव्रत (किसी की छूटी, गिरी, रखी, भूली हुई वस्तु को नहीं उठाना)। 4. ब्रह्मचर्य अणुव्रत (वैवाहिक रिश्तों के अतिरिक्त सभी के प्रति माता, बहिन, पुत्री अथवा पिता, भाई, पुत्र के समान दृष्टि रखना)। 5. परिग्रह परिमाण अणुव्रत 6. जुआ त्याग 7. मांस त्याग 8. शराब त्याग 9. वैश्यागमन त्याग 10. शिकार त्याग। 11. चोरी त्याग 12. परस्त्री गमन का त्याग। 13. नित्य देवदर्शन का नियम। 14. रात्रि भोजन त्याग (सिर्फ औषधि की छूट)। 15. चमड़े की वस्तु का त्याग। 16. नेल पॉलिस, लिपस्टिक का त्याग। 17. बड़ के फल का त्याग। 18. पीपल फल का त्याग 19. उमर के फल का त्याग। 20. पाकर के फल का त्याग 21. कठूमर के फल का त्याग 22. शहद का त्याग 23. मृत्यु भोज/तेरहवीं भोजन का त्याग। 24. आत्महंता त्याग। 25. गर्भपात का कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग। 26. जीव आकृति वाली वस्तु खाने का त्याग। 27. पूरे जीवन में पांच विधान करने का नियम। 28. पूरे जीवन में किसी एक मंत्र की सवा लाख आवृत्ति। 29. जीवन में मन्दिर में एक उपकरण देना। 30. पूरे जीवन में 21 बार आरती। 31. किसी प्रिय खाद्य वस्तु का त्याग। 32. मिथ्यात्व का त्याग 33. मोबाइल संयमन। 34. रोज एक नेक काम का नियम। ऐसे बहुत से नियम हैं जो श्रावक धारण कर अपने जीवन को मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं।