हिन्दी की वाचिक परंपरा और संवाद
डॉ. नीरोत्तमा शर्मा
हिन्दी साहित्यकारों में गोष्ठियों की परंपरा तो दशकों से रही है, लेकिन वाचिक परंपरा पर पुस्तकों की उपलब्धता लगभग नगण्य है। बहुआयामी साहित्यकार उद्भ्रान्त द्वारा संपादित पुस्तक ‘हिन्दी की वाचिक परंपरा का समकालीन परिदृश्य’ सुधिजनों के लिए किसी उपहार से कम नहीं है।
प्रस्तुत कृति में 20वीं सदी के अंतिम दशक से लेकर 21वीं सदी के प्रारंभिक दशक तक के नामचीन साहित्यकारों की वार्ता को पुस्तकीय रूप में संजोया गया है, जिसमें डॉ. नामवर सिंह से लेकर पंकज शर्मा तक, सभी विधाओं के लेखक और कवि शामिल हैं। इन्होंने हिन्दी की विभिन्न विधाओं में समकालीन रचनाशीलता और चिंतन के अनेक पक्षों पर अपने उद्गार व्यक्त किए हैं।
उद्भ्रान्त द्वारा प्रकाशित पुस्तकों पर आयोजित गोष्ठियों में तीन पीढ़ियों के साहित्यकारों द्वारा साथी लेखकों पर की गई टिप्पणियां बेबाक और बेलाग हैं, जिन्हें पढ़कर पाठक रोमांचित भी होता है। बहुत हद तक चौंकता भी है, क्योंकि जो लिखित रूप से कहने में रह जाता है, वह वाचिक रूप में बेधड़क सामने आ जाता है। इसमें गंभीर बहसें भी हैं, तो चुटीले संवाद भी। सहज आलोचनाएं हैं, तो घात-प्रतिघात भी। लेकिन यदि पाठक इसमें विशुद्ध शास्त्रीय आलोचना खोजने का प्रयास करेगा, तो निराशा हाथ लगेगी।
वैचारिक पक्ष शिथिल होने पर भी यह कृति एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें संपादक ने समकालीन लेखकों को एक मंच पर एकत्रित करने का प्रयास किया है और इसमें वे सफल भी रहे हैं। मूर्धन्य साहित्यकारों द्वारा विविध रचनाओं पर दिए गए उद्गार साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यह पुस्तक शिक्षकों, शोधार्थियों तथा हिन्दी की वाचिक परंपरा में रुचि रखने वालों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
पुस्तक : हिन्दी की वाचिक परंपरा का समकालीन परिदृश्य सम्पादक : उद्भ्रान्त प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 380 मूल्य : रु. 1050.