हक के लिए संघर्ष की प्रेरणा से लाडली को बनाएं सक्षम
अकसर बेटियों की परवरिश में बराबरी की बात कही जाती है। खुद की शिक्षा, कैरियर और विवाह से जुड़े फैसले लेने में स्वतंत्रता के नारे भी आम हैं। लेकिन हकीकत में लैंगिक भेदभाव जगजाहिर है। वहीं लड़कियों से घर में ऐसी बातें बोल दी जाती हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास कम होता है। सजग मां अपनी बेटी को प्रेरित करती है कि वह हर चुनौती पर पार पाने में सक्षम है।
अंतरा पटेल
बेटी ज़िंदगीभर के लिए बेटी ही रहती है, जबकि बेटा उस समय तक ही बेटा रहता है, जब तक कि उसका विवाह नहीं हो जाता। यह बात अंग्रेज़ी की एक कहावत से ली गयी है। लेकिन क्या हम बेटी को बेटी रहने देते हैं, भले ही वह कितनी लाडली हो या ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के कितने ही लुभावने नारे हों? लगता है कि पितृसत्तात्मक समाज में बेटी पर जेल के कैदियों की तरह पाबंदियां हैं। हम गर्व से कहते हैं कि बेटियां परिवार का अनमोल हिस्सा हैं, लक्ष्मी हैं, माता-पिता की लाडली हैं और पेरेंट्स उनके प्यार में व परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन क्या यह बात वाकई सच है? बेटी के जन्म पर कभी बेटे के जन्म जैसी ख़ुशी देखी है? ज्यादातर मामलों में बेटी के पैदा होते ही तो सारे परिवार का मुंह उतर जाता है। जबकि लड़के की चाहत में एक के बाद एक लड़कियों को जन्म देते रहते हैं। यहां एक मिसाल समीचीन है। कुश्ती में अंतिम पंघाल बहुत बड़ा नाम है। आप सोच रहे होंगे कि यह कैसा नाम है- अंतिम? दरअसल, उनके पेरेंट्स को चौथी लड़की के बाद और लड़की नहीं चाहिए थी, इसलिए उन्होंने इसका नाम अंतिम रख दिया कि भगवान उन्हें लड़कियां देने के सिलसिले का अंत करे। आज वही लड़की उनके परिवार व देश का नाम रोशन कर रही है।
अहम फैसले लेने की आजादी
इसके बावजूद लड़कियां न अपनी मर्जी से पढ़ सकती हैं, न अपनी पसंद का कैरियर चुन सकती हैं और अपनी पसंद से विवाह करने पर तो परिवार व बिरादरी से लेकर पूरे समाज की निगाहें रहती हैं। ‘ऑनर किलिंग’ जैसी घटनाएं भी अक्सर अख़बार की सुर्खियां बनती हैं। लड़कियां निश्चित समय के बाद घर से अकेली नहीं निकल सकतीं, भले ही तथाकथित सुरक्षा के लिए सियासी जुमला हो कि लड़कियां अब रात में भी अकेली सड़कों पर निकल सकती हैं।
लैंगिक भेदभाव से डोलता आत्मविश्वास
बचपन की बातें याद करें तो घर में जब भी फल आदि खाने की कोई चीज़ बाज़ार से आती, तो अकसर मां कहती है-साफ-साफ अपने भैया के लिए रख दे और दागदार को तू काट-छांट कर खा ले, जैसे लड़कियों का अधिकार सिर्फ़ गली-सड़ी चीज़ों पर ही हो। यह लैंगिक भेदभाव घर से ही शुरू हो जाता है। लड़कियों की परवरिश उस तरह से नहीं हो पाती जिस तरह से होनी चाहिए। लड़कियों से अक्सर घर में ऐसी बातें बोल दी जाती हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास प्रभावित होता है। वे संशय में पड़ जाती हैं। ऐसी बातों की एक लम्बी सूची है, लेकिन माता-पिता को विशेष रूप से इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि अपनी बेटी से कभी पांच बातें जाने-अनजाने में भी न बोलें -
‘तुम्हारे बस की यह बात नहीं’
आज लड़कियां क्या नहीं कर सकतीं - सुनीता विलियम्स स्पेस में जा सकती हैं और द्रौपदी मुर्मू भारत की राष्ट्रपति बन सकती हैं। इसके बावजूद कुछ कामों के लिए पुरुषों को एक्सक्लूसिव अधिकार देने का प्रयास किया जाता है जैसे वह काम लड़कियां कर ही न सकती हों। एक सजग मां इस विचार का विरोध करती है और अपनी बेटी से कभी यह नहीं कहती कि तुम्हारे बस की यह बात नहीं है। ऐसा कहने से बेटी का आत्मविश्वास कम हो सकता है और वह खुद को कमज़ोर समझ सकती है। सही अर्थों में लैंगिक समानता की सोच रखने वाली मां अपनी बेटी को महसूस कराती है, उसे प्रेरित करती है कि वह हर चुनौती को पार करने में सक्षम है।
‘अभी सहन करना सीख लो’
अकसर देखा गया है कि विपरीत स्थितियों में अक्सर मां बाप अपनी बेटियों को दिलासा देते हैं कि अभी बर्दाश्त कर लो, शादी के बाद सब बदल जायेगा, जैसे लड़की के जीवन का एकमात्र लक्ष्य विवाह करना ही हो। यह बात ठीक नहीं है।
बार-बार शादी का ज़िक्र
बार-बार शादी का ज़िक्र करने से बेटी के मन में अनावश्यक दबाव बन सकता है। एक समझदार मां अपनी बेटी के लिए चाहती है कि वह पहले अपने सपनों और कैरियर पर ध्यान दे। उससे कभी शादी की बात करती ही नहीं। दरअसल वह जब शादी के लिए तैयार होगी तो अपने आप हामी भर देगी।
‘लड़कों की तरह मत बना करो’
यह लेखिका अपनी एक दोस्त के घर पर बैठी कॉफ़ी का आनंद ले रही थी कि तभी उसकी लड़की शर्ट व पैंट पहने हुए कहीं बाहर जाने लगी। उसकी मां ने उसे टोक दिया , ‘ तुमसे कितनी बार कहा है कि लड़कों की तरह मत बना करो।’ लेखिका को यह बात अच्छी नहीं लगी और अपनी दोस्त से कहा, ‘बेटियों को उनके स्वाभाविक व्यक्तित्व को अपनाने की आज़ादी दें। उन्हें यह महसूस न कराएं कि लड़कियों को सिर्फ़ एक निश्चित तरीके से ही व्यवहार करना चाहिए।’
‘लोग क्या कहेंगे...’
दुनिया में सबसे बड़ा रोग यह है कि लोग क्या कहेंगे। लड़कियों पर पेरेंट्स की तरफ से अधिकतर टोकाटाकी इस भय के कारण होती है कि दूसरे क्या सोचेंगे? दूसरों की सोच का दबाव अपनी बेटी पर डालना दुरुस्त नहीं है। इस दबाव में तो वह अपने फैसले स्वतंत्र रूप से ले ही नहीं पायेगी। नयी सोच से लैस मां हमेशा अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाना चाहती है ताकि वह अपने फैसलों पर गर्व कर सके। गलती चाहे जिसकी हो, हर हाल में समझौता करने का दबाव बेटी पर ही डाला जाता है। एक जागरूक मां अपनी बेटी को समझौते का सबक पढ़ाने की बजाय उसे अपने हक़ के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती है। चाहती है कि वह इस हकीकत को जान ले कि इज़्ज़त के साथ जीना और खुद को वरीयता देना गलत नहीं है। -इ.रि.सें.