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नवचेतना और नवोत्थान का प्रतीक पर्व

04:00 AM Mar 30, 2025 IST

भारतीय नव संवत्सर की परिकल्पना का आधार ब्रह्मांडीय गणनाओं में शामिल है जो सृष्टि की रचना के समय से जुड़ता है। हालांकि विक्रम संवत्ा् की स्थापना सम्राट विक्रमादित्य द्वारा ईसा पूर्व 57 में की गई। वर्षारंभ का यह मौका काल गणना की वैज्ञानिक एवं तार्किक कसौटी पर खरा है। इस अवसर को जीवन के हरेक पहलू से सार्थक तौर पर संयोजित किया गया है। वहीं यह प्रकृति के नूतन स्वरूप को भी प्रतिबिंबित करता है। नव संवत्सर आत्मसंस्कार का साधन भी है वहीं आध्यात्मिक ऊर्जा आत्मसात करने का उत्सव भी।

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देवेन्द्रराज सुथार
भारतीय नव संवत्सर नवचेतना, नव ऊर्जा तथा नवोत्थान का प्रतीक है। यह पर्व भारतीय दर्शन, खगोलशास्त्र एवं परंपराओं का अद्भुत समन्वय है, जिसमें चंद्र और सौर गणनाओं की वैज्ञानिक पद्धतियां सम्मिलित हैं। संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। भारतीय परंपरा में समय की गणना केवल भौतिक परिवर्तनों के आधार पर ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक परिवर्तनों के समुच्चय से निर्धारित की जाती है। नव संवत्सर का आगमन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भारतीय मनीषियों ने समय की अवधारणा को केवल क्रोनोलॉजिकल प्रगति तक सीमित न रखते हुए उसे जीवन के प्रत्येक स्तर पर सार्थकता प्रदान करने हेतु संयोजित किया।
तार्किक आधार पर निर्धारित गणना
प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उल्लेखित कालगणना की पद्धति यह दर्शाती है कि भारतीय नव संवत्सर की परिकल्पना अत्यंत वैज्ञानिक एवं तार्किक आधार पर की गई थी। विक्रम संवत् की स्थापना सम्राट विक्रमादित्य द्वारा ईसा पूर्व 57 में की गई, जब उन्होंने आक्रांताओं को पराजित कर भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना की थी। इसी कारण इसे विक्रम संवत कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, शक संवत भी प्रचलित है, जिसकी गणना गुप्तकालीन सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल से मानी जाती है। किंतु भारतीय नव संवत्सर की परिकल्पना इनसे भी अधिक प्राचीन है, जिसका आधार ब्रह्मांडीय गणनाओं में निहित है। यह संवत्सर ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की रचना के समय से संबद्ध माना जाता है, जिसका उल्लेख विभिन्न पुराणों एवं वैदिक ग्रंथों में प्राप्त होता है।
प्रकृति के नूतन स्वरूप की झांकी
प्रकृति के नूतन स्वरूप को प्रतिबिंबित करने वाला यह पर्व नवीन ऊर्जा संचारित करता है। जब शीत ऋतु का अंत होता है और वसंत अपनी पूर्णता पर होता है, तब संपूर्ण सृष्टि नवजीवन प्राप्त करती है। वृक्षों पर नवीन कोंपलें प्रस्फुटित होती हैं, पुष्पों की सुवास से वातावरण सुगंधित हो उठता है, कोयल की कूक मन को आनंदित कर देती है तथा खेतों में लहलहाती फसलें धरा को हरीतिमा के साथ स्वर्णिम आभा लिये आभूषण प्रदान करती हैं।
आत्मसंस्कार का साधन
भारतीय संस्कृति में नव संवत्सर का पर्व केवल भौतिक परिवर्तन नहीं, अपितु मानसिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जागरण का भी परिचायक है। भारतीय मनीषियों ने नव संवत्सर को केवल एक तिथि परिवर्तन का अवसर न मानते हुए इसे आत्मावलोकन एवं आत्मसंस्कार का साधन बताया है। इस अवसर पर व्यक्ति अपने जीवन के गत वर्ष का कई दृष्टियों से अवलोकन करता है, मूल्यांकन यानी समीक्षा करता है तथा उससे सीख लेकर आगामी वर्ष के लिए नूतन संकल्प ग्रहण करता है। यह दिवस आत्मशुद्धि, चिंतन तथा समाजोत्थान की प्रेरणा प्रदान करता है।
आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्ति का पावन अवसर
भारतीय नव संवत्सर के शुभ अवसर पर लोग प्रातःकाल स्नानादि कर पवित्रता का अनुभव करते हैं, नवीन वस्त्र धारण कर घरों में मांगलिक अनुष्ठान संपन्न करते हैं एवं देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं। विशेष रूप से इस दिन देवी दुर्गा की उपासना का विशेष महत्व होता है, क्योंकि यही समय चैत्र नवरात्र के शुभारंभ का होता है। नौ दिवसीय इस पर्व में शक्ति की आराधना कर साधक आत्मबल, संयम तथा आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करता है। देश के कई राज्यों यानी भूभागों के मुताबिक स्थानीय देवताओं की पूजा व अनुष्ठान किये जाते हैं। यह पर्व विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से प्रसिद्ध है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा अन्य कई राज्यों में इसे उल्लासपूर्वक नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इस पर्व पर विशेष प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं एवं परिवारजन सामूहिक रूप से नववर्ष का स्वागत करते हैं।
ऐतिहासिक तथा खगोलीय महत्व भी
नव संवत्सर पर्व का महत्व केवल धार्मिक अथवा सांस्कृतिक ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक तथा खगोलीय भी है। इस तिथि को भगवान राम के जन्मोत्सव से जोड़कर देखा जाता है, क्योंकि राम नवमी इसी मास में आती है। इसी दिन मां दुर्गा की उपासना का प्रारंभ भी होता है, जो महिषासुर संहार के रूप में धर्म की पुनर्स्थापना का प्रतीक है। खगोलीय दृष्टि से भी यह समय अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस समय सूर्य भूमध्य रेखा के समीप होता है तथा ऋतु परिवर्तन के साथ दिन और रात की अवधि में संतुलन स्थापित होने लगता है। यह काल खगोलीय संतुलन का भी द्योतक है, जो प्रकृति के चक्र के अनुरूप जीवन की गतिविधियों को प्रभावित करता है।
भारतीय पंचांग के आधार स्तंभ
भारतीय कालगणना की पद्धति अपनी वैज्ञानिकता के कारण विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक परिष्कृत पद्धतियों में से एक मानी जाती है। विक्रम संवत और शक संवत दोनों ही भारतीय पंचांग के आधार स्तंभ हैं, जिनमें ग्रहों, नक्षत्रों तथा चंद्र-सौर गणनाओं का सम्यक् समन्वय देखा जाता है। जब आधुनिक विज्ञान समय की गणना को लेकर विभिन्न शोध कर रहा है, तब भारतीय कालगणना की प्रामाणिकता और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। भारतीय पंचांग केवल धार्मिक अनुष्ठानों के लिए नहीं, बल्कि कृषि, ऋतुचक्र तथा सामाजिक गतिविधियों के निर्धारण के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है। यह दर्शाता है कि हमारी कालगणना केवल काल प्रवाह की निरूपण प्रक्रिया नहीं, अपितु जीवन की समग्रता को वैज्ञानिक आधार पर व्यवस्थित करने की एक उच्च कोटि की पद्धति है।
समाज कल्याण का संकल्प दिवस
आज जब समस्त विश्व ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाकर पश्चिमी नववर्ष को भौतिक उत्सव के रूप में मनाने में व्यस्त है, तब भारतीय नव संवत्सर हमें हमारी प्राचीन परंपराओं एवं सांस्कृतिक जड़ों से पुनः परिचित कराता है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि नववर्ष केवल तिथि परिवर्तन का प्रतीक नहीं, अपितु आत्मचिंतन, आत्मविकास तथा समाज कल्याण के संकल्प का दिवस है। यह पर्व आत्मशुद्धि, नवचेतना तथा सामाजिक समरसता का प्रतीक बनकर हमें अपने कर्तव्यों की पुनर्स्मृति कराता है।

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