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गंगा फिर भी मैली
बारह नवंबर के दैनिक ट्रिब्यून का संपादकीय ‘गंगा फिर भी मैली’ विश्लेषण करने वाला था। ‘नमामि गंगे’ अभियान के तहत पिछले दस वर्षों में चालीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद गंगा नदी का प्रदूषण लगातार जारी है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अनुसार, प्रयागराज में गंगा का पानी आचमन के लायक भी नहीं है, जबकि कुंभ मेला में करोड़ों श्रद्धालु गंगा स्नान करने आएंगे। गंगा के प्रदूषण के मुख्य कारणों में उद्योगों का अपशिष्ट और गंदे नालों का नदी में मिलना शामिल हैं। इसकी सफाई के लिए सरकार के साथ-साथ जन जागरूकता भी जरूरी है। गंगा किनारे बसे शहरों में उचित सीवरेज प्रणाली, जल शोधन संयंत्र और पौधारोपण जैसी पहल करनी चाहिए।
शामलाल कौशल, रोहतक
सद्भाव की कमी
घटनाक्रम कर्नाटक राज्य के मांडया जिले के कालभैरवेश्वर मंदिर का है, जहां प्रशासन की अनुमति के बावजूद उच्च जाति के लोगों ने दलितों को मंदिर प्रवेश से रोका। पुलिस प्रशासन की निगरानी में दलितों ने मंदिर में प्रवेश किया, तो उच्च जाति के समुदाय ने प्रतिरोध किया। जिससे क्षेत्रीय माहौल तनावपूर्ण हो गया। हालांकि, स्थानीय प्रशासन ने उच्च जाति के लोगों को समझाकर सभी वर्गों के श्रद्धालुओं को एक साथ मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी, जिससे स्थिति सामान्य हुई। यह घटना समाज में दलितों के प्रति सद्भाव की कमी और जातिवाद के गंभीर रूप को उजागर करती है।
वीरेंद्र कुमार जाटव, दिल्ली
लोकतंत्र के लिये घातक
राजनीतिक पार्टियां चुनावी घोषणा-पत्रों में मुफ्त रेवड़ी बांटने के वादे करती जा रही हैं, चाहे वह झारखंड हो या महाराष्ट्र। महिलाओं, बेरोजगारों और अन्य वर्गों के लिए बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं, जैसे प्रति माह 2,100-4,000 रुपये, 25 लाख तक का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा आदि। यह वादे पूरी करने में कई पार्टियां असफल रही हैं, फिर भी चुनावों में इन्हें दोहराया जा रहा है। हालांकि, यह रवैया देश की अर्थव्यवस्था और विकास के लिए हानिकारक है, क्योंकि टैक्स का सदुपयोग होना चाहिए।
शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर, म.प्र