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सोच भी बदले
पश्चिम बंगाल में एक जूनियर महिला डॉक्टर के यौन शोषण और हत्या के बाद देशभर में आक्रोश फैल गया। अब प. बंगाल सरकार ने अपराधियों को दंडित करने के लिए सख्त कानून बना दिया है। बावजूद सख्त कानून के अपराधों की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और कानून का प्रभावी ढंग से पालन एक चुनौती बन गया है। अपराधी को जल्दी फांसी देने का कानून तो बन गया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि अपराधियों की पहचान और कानूनी प्रक्रिया में समय लगता है। इसके अतिरिक्त, पहचान के डर से अपराधी पीड़ितों की हत्या भी कर सकते हैं। ऐसे मामलों में सख्त कानून अक्सर कागज तक ही सीमित रह जाते हैं। इसलिए, सख्त कानूनों के साथ-साथ समाज में महिलाओं के प्रति आदर की भावना बढ़ाने के लिए व्यापक जन जागरण अभियान चलाना भी आवश्यक है।
लक्ष्मीकांता चावला, अमृतसर
सुधार जरूरी
तीन सितंबर के दैनिक ट्रिब्यून के संपादकीय में ‘न्याय जैसा न्याय हो’ शीर्षक के तहत न्यायालयों में मामलों के निपटारे में देरी और इसके परिणामस्वरूप लोगों के विश्वास में कमी पर चर्चा की गई है। संपादकीय के अनुसार, निचली अदालतों में लगभग साढ़े चार करोड़ मामले लंबित हैं, जो शीघ्र न्याय की राह में बड़ी बाधा बनते हैं। इसका मुख्य कारण निचली अदालतों और पुलिस विभाग की ओर से मामलों की प्रक्रिया में अत्यधिक देरी है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार निचली अदालतों की प्रक्रियाओं में सुधार की आवश्यकता को उजागर किया है।
शामलाल कौशल, रोहतक
अन्याय का बुलडोजर
चार सितंबर के दैनिक ट्रिब्यून का संपादकीय ‘अन्याय का बुलडोजर’ सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय पर प्रकाश डालता है कि अपराध साबित होने से पहले किसी के आशियाने या व्यावसायिक संस्थान को सरकार द्वारा बुलडोजर चलाकर गिराया जाना गैरकानूनी कार्रवाई है। नि:संदेह अपराधी साबित होने से पहले किसी के घर को बुलडोजर से गिराकर बेघर करना अन्याय है। अवैध निर्माण, सरकारी मिलीभगत, और बुलडोजर संस्कृति पर लगाम लगाने से ही अन्याय से बचा जा सकता है।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल