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सख्ती जरूरी
नारनौल में कनीना के पास हुए बस हादसे ने सबको विचलित कर दिया। इस स्कूल बस दुर्घटना से कुछ बच्चों की मौत और घायल होने की खबर ने सरकार-प्रशासन को कटघरे में खड़ा कर दिया। अब हर राज्य की सरकार और प्रशासन स्कूलों के बच्चों को ले जाने वाले वाहनों की जांच के लिए कुंभकर्णी नींद से कुछ दिनों के लिए जागेंगे और फिर अगली दुर्घटना तक लंबी तान के सो जाएंगे। स्कूल वाहनों की प्रतिदिन जांच की जानी चाहिए और थोड़ी-सी भी कमी पाए जाने पर स्कूल प्रशासन को इसके प्रति चेतावनी देने और लापरवाही बरतने वालों के प्रति सख्त सजा का प्रावधान भी होना चाहिए।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
धनबल का विकल्प
ग्यारह अप्रैल के दैनिक ट्रिब्यून में विश्वनाथ सचदेव का लेख ‘धनतंत्र के बोझ से कसमसाता लोकतंत्र’ विषय पर चर्चा करने वाला था! चुनाव आयोग के अनुसार उम्मीदवार विधानसभा तथा लोकसभा के चुनाव के लिए क्रमशः 40 लाख तथा 75 लाख रुपए खर्च कर सकता है। इसके अलावा पार्टी भी चुनावों पर खर्च करती है। इस तरह लोकतंत्र पर धनतंत्र हावी है। यहां लोकतंत्र में आम व्यक्ति के चुनाव लड़ने की संभावना शून्य हो जाती है। क्या कोई ऐसी व्यवस्था नहीं अपनाई जा सकती जिसके अनुसार चुनाव का खर्चा सरकार द्वारा उठाया जाए और कुछ शर्तों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को चुनाव लड़ने का मौका मिले।
शामलाल कौशल, रोहतक
मानवीय संवेदना
सात अप्रैल के दैनिक ट्रिब्यून अध्ययन कक्ष अंक में सुभाष नीरव द्वारा अनूदित देविंदर कौर की ‘सुकून के आंसू’ कहानी अत्यंत प्रभावशाली रही। प्रवासी भारतीयों के मन में दया, धर्म संवेदना कूट-कूट कर भरी हैं। अनजान के प्रति मददगार होना संस्कारों का परिणाम है। रेखा मोहन की ‘इंसानियत का पुरस्कार’ लघुकथा में इंसानियत का फर्ज निभाने वाले को सुफल मिला।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल