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मुफ्त की राजनीति
चौदह नवंबर के दैनिक ट्रिब्यून में विश्वनाथ सचदेव का लेख ‘मुफ्त की रेवड़ियों से कठघरे में चुनावी राजनीति’ भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का वर्णन करने वाला था। अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनावी भाषण में 5 किलो अनाज का सिलसिला 2024 के बाद और 5 साल के लिए जारी रखने का निश्चय के बारे में बताया था। लेकिन इस बारे में सवाल उठता है कि जब भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है तो ऐसी क्या बात है जो लोगों को रोजगार नहीं मिलता, महंगाई ज्यादा है, विकास के अवसर कम हैं। फिर क्या वजह है कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को सरकारी खैरात पर निर्भर रहना पड़ता है। दरअसल, सरकारों द्वारा चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की सुविधाएं दी जा रही हैं जिस पर विचार किया जाना चाहिए। आम जनता को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
शामलाल कौशल, रोहतक
बाल दिवस की सार्थकता
प्रत्येक वर्ष बाल-दिवस के उपलक्ष्य में जगह-जगह कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। बच्चों के कल्याण की बातें होती हैं। सवाल उठता है कि क्या सिर्फ यही काफ़ी है? क्या इससे सही अर्थों में समाज के प्रत्येक बच्चे के लिए कल्याण के कार्य होते हैं। आज भी समाज में ऐसे बहुत से बच्चे हैं, जिन्हें इन कार्यक्रमों का न तो मतलब पता है, न ही इन सब से कोई लेना-देना। पता है तो सिर्फ भूख का। सरकार अगर सही मायनों में बाल-दिवस मनाना चाहती है तो इन्हें दिन के कुछ घंटे पढ़ाई मुहैया कराए, आत्मनिर्भर बनाए ताकि इन्हें दो वक्त की रोटी नसीब हो सके।
अभिलाषा गुप्ता, मोहाली
भयावह स्थिति
प्रतिकूल मौसम संबंधी परिस्थितियों के बीच मंगलवार की सुबह दिल्ली में वायु प्रदूषण की स्थिति और ज्यादा खराब हो गई। सोमवार को दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर था। दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में मुंबई और कोलकाता पांचवें और छठे स्थान पर हैं। स्पष्ट है कि दिवाली के बाद प्रदूषण के स्तर में वृद्धि दो कारकों के कारण होती है- पटाखे फोड़ना और खेत में आग लगाना। सरकार को इस पर सख्ती से नियंत्रण करने की जरूरत है।
मोहम्मद तौकीर, पश्चिमी चंपारण