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जानने का हक
समाचार ‘नागरिकों को चंदे का स्रोत जानने का हक नहीं’ विषय में एटार्नी जनरल द्वारा दिए गए तर्क समझ से परे हैं। सवाल उठता है कि जिस दानदाता ने कर दायित्वों का पालन करते हुए दान दिया हो, उसे गोपनीयता की ज़रूरत क्या है। राजनीतिक दलों को दी जाने वाली दान की मोटी रकम महज दानशीलता की परिचायक हो, ऐसा तो नहीं लगता। लिहाजा, पारदर्शिता का ढोल पीटने वाले दलों को चाहिए कि दान का स्रोत जानने का हक पाने की बजाय खुद अपने लेखा पुस्तकों में दर्शाई गई वार्षिक आय-व्यय विवरणी को सार्वजनिक करें।
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल
युद्ध की विभीषिका
संपादकीय ‘असमंजस की अनुपस्थिति’ में उल्लेख है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक युद्धविराम के पक्ष में 120, विरोध में 14 तथा 45 देश अनुपस्थित रहे। इससे स्पष्ट है युद्धविराम होना चाहिए किंतु अनुपस्थित देशों में भारत की मंशा युद्ध विराम से अधिक आतंक समाप्ति पर जोर देने की रही है। वस्तुत: 8000 से अधिक फलस्तीनी मारे जा चुके हैं और 20 लाख संघर्षरत हैं। इसी तरह इस्राइलियों की स्थिति भी बदतर ही हो रही है। आतंकवाद जब तक समाप्त नहीं होगा तब तक विश्व के अधिकांश देशों की परेशानियां कम नहीं होने वाली।
बीएल शर्मा, तराना, उज्जैन
उत्पीड़न की हद
मेरठ में एक दलित को गोली मारकर शव को लटका कर शासन प्रशासन को खुली चुनौती देना अत्याचार एवं उत्पीड़न की पराकाष्ठा है। सरकार द्वारा प्रशासन को कठोर कार्रवाई के लिए अविलंब दिशा-निर्देश जारी करना चाहिए। अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को लगता है कि सरकार का कोई खौफ नहीं है। आजादी के अमृतकाल में भी यदि किसी राज्य के दलित, बेसहारा, भूमिहीन, कमजोर मजदूर को निर्ममतापूर्वक मारा जाता है तो यह राज्य सरकार के लिए बेहद कमजोर स्थिति है।
वीरेंद्र कुमार जाटव, दिल्ली
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