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खोखला विकास
सोलह अक्तूबर के दैनिक ट्रिब्यून का संपादकीय ‘भूख की कसक’ सरकार द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था की विश्व की सबसे बड़ी पांचवीं अर्थव्यवस्था के दावों के बीच कुपोषण, भुखमरी, कई बीमारियों का पर्दाफाश करने वाला था। एक तरफ देश में अनाज के भंडार भरे हैं तो दूसरी तरफ लगभग 18.7 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। देश में कितने भी विदेशी मुद्रा के भंडार हों, शेयर बाजार में तेजी हो, लेकिन यदि बच्चे कुपोषित हों, बीमारियों से पीड़ित हों, लोगों को पौष्टिक तथा संतुलित भोजन न मिले तो सरकार के सारे दावे झूठ साबित होते हैं।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल
जीवन की शिक्षा
चौदह अक्तूबर के अंक में अविजित पाठक का कहना सही है कि यह ‘जीवन लीलती शिक्षा को खारिज करने का वक्त’ है। माता-पिता और अध्यापकों के रूप में हम विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। सरकारें अच्छी शिक्षा के दावे और नौकरियां देने के वादे करते नहीं थकतीं। लेकिन मौजूदा स्थिति बच्चों को एक उज्ज्वल भविष्य की ओर ले जाने के बजाय अंधेरी सुरंग में धकेल रही है। साझे प्रयासों द्वारा ही युवाओं को मौजूदा शिक्षा के नकारात्मक प्रभाव से बचाया जा सकता है।
शोभना विज, पटियाला, पंजाब