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आसान नहीं राह
वर्ष 1967 तक देश में सभी चुनाव एक साथ ही होते रहे, किंतु परिस्थितियों के अनुसार बदलाव होते रहे। 2018 के बाद से इस दिशा में तेजी से प्रयास हो रहे हैं, किंतु संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन हेतु निश्चित प्रक्रिया का पालन होने के बाद अमलीजामा पहनाने में समय लंबा लगता है। संपादकीय ‘तीर के कई निशाने’ में उल्लेख है कि एक साथ चुनाव करवाने में कई कानूनी पेचिदगियों का सामना करना होगा, क्योंकि यह काम चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा है। बढ़ते मतदाता, प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्थिति, ईवीएम, सुरक्षा व्यवस्था व मतदान दल के मद्देनजर अधिक चौकसी बरतनी होगी।
बीएल शर्मा, तराना, उज्जैन
अंतर्विरोध के स्वर
इंडिया गठबंधन की मुंबई बैठक के बाद लगातार विरोधाभासी स्वर स्पष्ट संकेत है कि गठबंधन में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। बैठक में किसी संयोजक का चुनाव न होना, जातिगत जनगणना पर एक मत का अभाव गठबंधन के नेताओं के लिए चिंता का विषय है। एक और बड़ी दिक्कत गठबंधन के नेताओं के दिए गए वक्तव्य गठबंधन घटक दलों पर भारी पड़ते है। एनडीए के घटक दल ही नहीं बल्कि इंडिया गठबंधन के अंदर विरोध के स्वर भी दिखाई दिए हैं। शिवसेना उद्धव गुट इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करेगा बल्कि शिवसेना की राजनीति का आधार ही हिंदुत्व है।
वीरेन्द्र कुमार जाटव, दिल्ली
विभाजन की सोच
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र उदयनिधि स्टालिन के बयान की जितनी निंदा की जाए उतनी कम है। भारत का संविधान किसी भी नागरिक को अपनी पसंद के धर्म को धारण करने का अधिकार तो देता है पर दूसरों के धर्म के प्रति विवादास्पद टिप्पणी करने का हक किसी को नहीं देता। राजनीतिक और सामाजिक रूप से पहले से ही विभक्त समाज को एक और ध्रुवीकरण के लिए उकसाने के इस प्रयास का स्वत: संज्ञान लेकर न्यायपालिका को उदयनिधि स्टालिन को जवाब देने के लिए तलब करना चाहिए।
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल