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कमजोर रिश्तों की डोर
अठारह जुलाई को दैनिक ट्रिब्यून के संपादकीय पृष्ठ पर सोनम लववंशी का लेख ‘आधुनिकता की कोख में उपजा संत्रास’ आज की भागम-भाग ज़िंदगी में एक विचारणीय विषय बन चुका है। आधुनिकता के नाम पर मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। दौलत एवं शोहरत बटोरने की आपाधापी में व्यक्ति के जीवन से संवेदना, नैतिकता एवं निष्ठा जैसे शब्दों का पलायन हो रहा है। आदमी के सामाजिक जीवन में सभी रिश्तों की बुनियाद विश्वास होता है। लेकिन अब विश्वास के स्थान पर धन हो गया है। रिश्तों की बुनियाद अर्थ प्रधान होती जा रही है। भारतीय दाम्पत्य जीवन और सामाजिक संरचना समस्त विश्व में सराहना पाते रहे हैं।
सुरेन्द्र सिंह ‘बागी’ , महम
बीमार मानसिकता
पंद्रह जुलाई के दैनिक ट्रिब्यून में विश्वनाथ सचदेव का लेख ‘बीमार मानसिकता पर चोट करे समाज’ आदिवासी पुरुष पर पेशाब करने को लेकर विश्लेषण करने वाला था। एक सिरफिरे व्यक्ति का एक आदिवासी से ऐसा बर्ताव करना निंदनीय, घृणित तथा संवेदनहीन कुकृत्य है। सवाल यह है कि यह सब कुछ हुआ क्यों? समता तथा बंधुता कहां दफन हो गई है। देश में इस बीमार मानसिकता के कारण ही अनुसूचित जाति पर अत्याचार करने वाले डेढ़ लाख से ज्यादा मुकदमे चल रहे हैं। यह समाज में विकृत मानसिकता का द्योतक है!
शामलाल कौशल, रोहतक
बचाव की पहल
सोलह जुलाई के दैनिक ट्रिब्यून लहरें अंक में मेजर जनरल अरविंद यादव का ‘मानसून में मनमोहक परिंदों की चहचहाहट’ लेख मनभावन, ज्ञानवर्धक रहा। प्रकृति के परिंदों का सचित्र वर्णन काबिले तारीफ रहा। वृक्षों की शाखाओं पर कलरव गान वातावरण की छटा को निखारते हैं। सरकार को लुप्त होती पक्षियों की प्रजातियों के बचाव के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल