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यूक्रेन संकट से बाधित विश्व आपूर्ति शृंखला

11:48 AM Jul 07, 2022 IST

जी. पार्थसारथी

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जब 1992 में सोवियत संघ का पतन हुआ तब शक्तिशाली रूसी संघ और इसके पड़ोसी इस्लामिक जनतंत्रों के बीच भविष्य में संघर्ष होते रहने का डर बना था। लेकिन यह हुआ नहीं। रूस के पूरबी पड़ोस में, मुस्लिम बहुल गणतंत्र—अज़रबैजान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीज़िया और कजाखस्तान में सत्ता हस्तांतरण निर्विघ्न और शांतिपूर्ण रहा। लेकिन दीगर पड़ोसी जनतंत्रों के राष्ट्रीय सामान्य कामकाज में जिस हद तक रूसी दखलअंदाज़ी रही, उससे मतभेद बनते रहे। यह मतांतर हालांकि नियंत्रण योग्य स्थिति में रहे, किंतु सबसे ज्यादा गंभीर रार एकदम पड़ोसी गणतंत्र यूक्रेन से बनी, जिस पर कभी दो शताब्दियों तक रूस का राज था और दोनों का रिवायती और धार्मिक जुड़ाव काफी है। यूक्रेन के साथ रूस का झगड़ा इसलिए भी ज्यादा बना क्योंकि क्रीमिया और काला सागर तटों तक रूस के पहंुच मार्ग यूक्रेन के दक्षिणी हिस्से से होकर हैं। इसके अलावा यूक्रेन और क्रीमिया, दोनों में बड़ी संख्या में रूसी लोग रहते हैं।

यूक्रेन को लेकर रूस का संशय लगातार बढ़ता जा रहा था, जिसमें आगे उफान तब आया जब हाल ही में उसने अमेरिका के साथ रिश्तों के विस्तार को तेजी दी। 1 नवम्बर, 2021 को अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिन्केन और उनके यूक्रेनी समकक्ष के एक संधि पर दस्तख्त करने से रूस भड़क उठा। यह समझौता एक तरह से रक्षा संधि है, जो वस्तुतः रूस के खिलाफ है। इसके प्रावधानों में कुछ बिंदु इस तरह हैं ‘रूसी आक्रमण के खिलाफ इकट्ठा होकर खड़े होना’, ‘सामरिक रक्षा सहयोग प्रगाढ़ करना’ और ‘यूक्रेन को रक्षा सहायता मुहैया करवाना’। लगता है अमेरिका और यूक्रेन ऐसा करके रूस की लंबे समय से रक्षा संबंधी चिंताओं और दक्षिण यूक्रेन के रास्ते बाल्टिक सागर तक उसके एकमात्र पहुंच मार्ग की जरूरत को नज़रअंदाज़ करने में बजिद थे। सागर तक अपनी अबाध पहुंच की गारंटी अक्षुण्ण रखने को लेकर बने तनाव का नतीजा था कि रूस ने 2014 में क्रीमिया को कब्जा लिया। दक्षिण यूक्रेन की तरह क्रीमिया में भी बड़ी तादाद में रूसी मूल के लोग रहते हैं, जिन्होंने इस रूसी कब्जे का समर्थन किया।

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पहले-पहल यूक्रेन में रूसी सैन्य अभियान का ज्यादा ध्यान राजधानी कीव पर था। यह होना द्वेषपूर्ण रुख रखने वाली बाइडेन सरकार और युवा एवं स्पष्टवादी किंतु राजनीतिक रूप से अपरिपक्व वोलोदिमीर जेलेंस्की के बीच बढ़ते सैन्य एवं राजनीतिक संबंधों की एवज में रूसी चिंताओं से अवश्यम्भावी था। लेकिन रूसी सैन्य कार्रवाई ने उसके कुछ पड़ोसी मुल्कों को चिंतित कर दिया है और उनमें एक फिनलैंड ने नाटो संगठन की सदस्यता ले ली है। फिलहाल रूसी आक्रमण का मुख्य ध्येय पूरा हो चुका है यानी यूक्रेन के दोनेस्तक से लेकर मारियुपोल तक के दक्षिणी-पूरबी इलाके और काला सागर तटों तक कब्जा कायम करना और यह रणनीति समझ आने लायक भी है, लेकिन पश्चिम की ओर बढ़ते हुए राजधानी कीव तक पहुंचने के आरंभिक प्रयासों की योजना राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक रूप से सही नहीं थी। जैसा कि अनुमान था, पश्चिमी जगत ने रूसी आक्रमण को यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन बताया।

हालांकि रूस ने जल्द नीति बदली और अब समूचा लुहान्सक क्षेत्र उसके कब्जे में है जो कि ऐतिहासिक रूप से काला सागर तक उसके पहुंच मार्गों की गारंटी रहा है। पश्चिमी ताकतें जैसे कि अमेरिका, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर रूस की भर्त्सना करने वाले प्रस्ताव भले ही पारित करवा रही हैं, लेकिन इनको अमेरिकी राष्ट्रपति की अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास ज्यादा माना जा रहा है। जहां पश्चिमी जगत द्वारा लगाए आर्थिक प्रतिबंधों का असर रूस पर होना स्वाभाविक है वहीं रूस इस स्थिति में है कि अपनी आपूर्ति शृंखला और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मार्गों को खुला रख पाए। उसने अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा लगाए मुद्रा प्रतिबंधों का भी तोड़ निकाल लिया है।

तथापि यूक्रेन-रूस युद्ध ने विश्व में ध्रुवीकरण को बढ़ाया है, जिसमें एक तरफ चीन का साथ प्राप्त रूस है तो दूसरी तरफ अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी। इससे ज्यादा अहम यह है कि अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा रूस पर लगाए प्रतिबंधों का विपरीत असर वैश्विक व्यापार, निवेश और आर्थिक विकास पर हो रहा है। हालिया घटनाक्रम ने वैश्विक खाद्य संकट और मुद्रास्फीति में इजाफे का भय बना डाला है। बहुत से यूरोपियन मुल्क, जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध लगाने में अमेरिका का साथ दिया है, वे खुद अपनी ऊर्जा जरूरतों, खासकर तेल और गैस को लेकर बहुत हद तक रूस पर निर्भर हैं। रूस की ऊर्जा से होने वाली कमाई में इनका हिस्सा 75 प्रतिशत है। हालांकि, अमेरिका अपने तटीय क्षेत्र में उपलब्ध तेल और गैस भंडारों के बूते ऊर्जा संबंधी जरूरतों पर निश्चिंत है लेकिन यूरोप के अग्रणी राष्ट्रों तक के सामने रूसी गैस के बिना ठंड में जमने का जोखिम मुंहबाये खड़ा है। इस स्थिति ने वैश्विक तेल कीमतों में तीखी बढ़ोतरी कर डाली है, जिससे न केवल विकसित देशों की आर्थिकी पर बोझ बढ़ा है बल्कि विकासशील देशों पर बहुत ज्यादा मारक प्रभाव हो रहा है।

भारत द्वारा रूस से तेल आयात पर कुछ यूरोपियन देशों के एतराजों का जवाब देते हुए विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा ‘क्या रूसी गैस खरीदना युद्ध के लिए धन देना नहीं है?’ उन्होंने बेबाकी से आगे कहा—‘यूरोप को अपनी सोच से बाहर निकलना होगा कि यूरोप की समस्या तो बाकी की दुनिया की समस्या है लेकिन विश्व की समस्या यूरोप की नहीं है।’ अमेरिका और यूरोप के दोहरे मापदंड न अपनाने के पीछे भारत के पास अच्छी वजहें हैं। भारत विश्व में तेल का तीसरा सबसे बड़ा खपतकार है, पिछले साल 119.2 बिलियन डॉलर मूल्य का तेल आयात किया है। बढ़ती तेल कीमतों ने भारत में आम आदमी के जीवन को दूभर किया है, जाहिर है भारत सरकार के लिए रूस द्वारा कम कीमत पर तेल देने की पेशकश स्वीकार करना नैसर्गिक है। बढ़ती वैश्विक कीमतों के बीच रूस से तेल, गैस और खाद का अधिक आयात भारत के हित में है। हालांकि ऐसा करने की एवज में भारत के विरुद्ध व्यापार प्रतिबंध लगाने की अमेरिकी संसद की धमकी हाल में आनी शुरू हुई है।

यूक्रेन से होकर काला सागर तट तक अपने पहुंच मार्गों का नियंत्रण करने वाला उद्देश्य रूस बहुत हद तक पूरा कर चुका है। फिलहाल दोनेस्तक से लेकर क्रीमिया तक का इलाका उसके कब्जे में है। यह देखना बाकी है कि क्या रूस पूरब की ओर बढ़कर यूक्रेन के सबसे सामरिक महत्व के ओडेसा बंदरगाह को भी अपने नियंत्रण में लेगा या नहीं। इससे लंबी और खूनी लड़ाई होने का अंदेशा है। हालांकि शेष विश्व युद्धविराम जल्द होने का स्वागत करने को बेचैन है, खासकर अफ्रीका और बांग्लादेश जैसे मुल्क जो गेहूं के लिए यूक्रेन पर निर्भर हैं। भारत का सीमित मात्रा में अतिरिक्त गेहूं भंडार जाहिर है केवल चुनींदा देशों की मदद के लिए होगा। जहां फ्रांस और जर्मनी जैसी बड़ी यूरोपियन शक्तियां शांति बहाली की अहमियत समझती हैं, वहीं बाइडेन प्रशासन, यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की और ब्रिटिश सरकार यूक्रेन में रूस को जख्मी बनाए रखने पर अडिग हैं। यह रुझान हालिया जी-7 शिखर वार्ता में हुए संवाद में साफ नजर आया।

रूस-अमेरिका के बीच जारी होड़ से शेष विश्व में चिंताएं बढ़ रही हैं क्योंकि डर है कि मिस्र समेत अफ्रीका के तटों तक पहुंचने वाला रूसी और यूक्रेनी गेहूं का निर्यात बेतरह प्रभावित होगा। जहां 8 बिलियन डॉलर मूल्य का गेहूं निर्यात करने वाला रूस दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है, वहीं 3.5 बिलियन डॉलर मूल्य का सालाना गेहूं बेचकर यूक्रेन पांचवें स्थान पर है।

लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

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