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जन स्वास्थ्य पर सुपरबग का घातक संकट

05:55 AM Nov 23, 2024 IST
जन स्वास्थ्य पर सुपरबग का घातक संकट
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राजेश भाटिया

सौ साल से भी कम समय पहले, एंटीबायोटिक्स की खोज ने एक ऐसे युग की शुरुआत की जिसने चिकित्सा की दुनिया को बदल दिया। इसने लाखों लोगों की जान बचाई, जटिल सर्जरी के विकास और उपयोग में तेज़ी लाई और कैंसर जैसी बीमारियों के बेहतर प्रबंधन में मदद की। सर्वव्यापी जीवाणुओं को नष्ट करने की एंटीबायोटिक्स की क्षमता ने उन्हें ‘जादुई गोलियों’ की उपाधि दी। दुर्भाग्य से, यह उत्साह लंबे समय तक नहीं टिका। मनुष्यों ने रोगाणुओं की जीवटता और जीवित रहने की चतुराई को कम करके आंका क्योंकि उन्होंने एंटीबायोटिक्स के प्रभाव को बेअसर करने के लिए अपनी खुद की प्रतिरोधकता विकसित कर ली। इसके बूते रोगाणु एंटीबायोटिक्स के असर से बच निकलने के काबिल बन गए, जिसे तकनीकी रूप से एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस (एएमआर) कहा जाता है।
दरअसल, मानव स्वास्थ्य, पशु चिकित्सा सेवाओं और कृषि में एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध उपयोग ने कुछ रोगाणुओं की ऐसी जमात बना दी जिस पर एक या कई एंटीबायोटिक्स का कोई असर नहीं हो पा रहा। कुछेक ने तो लगभग सभी किफायती एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है। इन्हें ‘सुपरबग्स’ के नाम से जाना जाता है। प्रतिरोध विकसित कर चुके रोगाणुओं से होने वाले संक्रमण का इलाज करना मुश्किल होता है, इससे अस्पताल में लंबे समय तक रहना पड़ता है, मृत्यु दर और रुग्णता बढ़ती है। आर्थिक नुकसान भी होता है। यह चुनौती पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है।
वैश्विक स्तर पर एएमआर के निहितार्थ बहुत बड़े हैं, जो मानव विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। एएमआर पर बरती निष्क्रियता के चलते अनुमान है कि यदि कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई तो 2050 तक लगभग 1 करोड़ लोग हर साल एंटीबायोटिक्स के विरुद्ध पनपे प्रतिरोधी रोगाणुओं के कारण होने वाली बीमारियों से मर जाएंगे। यह संख्या सड़क दुर्घटनाओं और कैंसर से मरने वालों की कुल संख्या से भी अधिक होगी। इस कालखंड में, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 3.5 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे 100 ट्रिलियन डॉलर का सकल वित्तीय नुकसान होने का अनुमान है। पशुधन उत्पादन में 7.5 प्रतिशत की कमी आएगी, जिससे वैश्विक खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी। अतिरिक्त 2.8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे और 2050 तक वैश्विक निर्यात में 3.8 प्रतिशत की कमी आएगी।
एएमआर का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है और विकासशील देशों में यह कहीं अधिक है। वर्ष 2019 में ही प्रतिरोधी रोगाणुओं की वजह से हुई बीमारियों के कारण 12 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। अनुमान है कि वर्ष 2019 में केवल भारत में ही एएमआर के कारण 2,97,000 मौतें हुईं वहीं इससे संबंधित जटिलताओं के चलते 10,42,500 मौतें हुईं। भारत में एएमआर से होने वाली मौतों की संख्या कैंसर, श्वसन-संक्रमण एवं तपेदिक, आंतों के संक्रमण, मधुमेह और गुर्दे की बीमारियाें और मातृ एवं नवजात विकारों से होने वाली मौतों से अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने माना कि सतत‍् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति पर इस स्थिति का प्रभाव पड़ेगा। 2016 और 2024 में अपनी उच्च स्तरीय बैठकों के माध्यम से, यूएनजीए ने 2019 को आधार वर्ष मानकर 2030 तक प्रतिरोधी रोगाणुओं के कारण होने वाली मृत्यु दर को 10 प्रतिशत तक कम करने के लिए तत्काल, वैश्विक रूप से समन्वित राष्ट्रीय कार्रवाई का आह्वान किया है। आर्थिक सहयोग के लिए अंतर-सरकारी मंचों की हाल की बैठकों, अर्थात‍् जी-20 (भारत, 2023) और जी-7 (इटली, 2024) बैठकों में एएमआर से निपटने के महत्व को दृढ़ता से व्यक्त किया गया है। पशु चिकित्सा क्षेत्र में भी संक्रमण का उपचार अथवा इसकी रोकथाम के लिए एंटीबायोटिक्स का उपयोग बड़े पैमाने पर होता है। कई बार इनका इस्तेमाल इस लक्ष्य के साथ किया जाता है कि इनके उपयोग से पशु के शरीर का आकार (मांस) बढ़ेगा, जिससे कि ज्यादा आर्थिक लाभ मिलेगा। अनेक देशों में रोक के बावजूद जागरूकता की कमी और गरीबी के कारण यह भारत में जारी है। पशुओं में एंटीबायोटिक्स का ऐसा अंधाधुंध उपयोग उनके अंदर प्रतिरोधी जीवाणुओं व रोगाणुओं के फैलाव को बढ़ावा देता है।
चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर द्वारा हाल ही में चंडीगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और उत्तराखंड से आए दस्त के मरीजों के अध्ययन से पता चला है कि रोग की वजह ऐसे रोगाणु हैं जिन्होंने कई एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ एएमआर विकसित कर ली।
भारत में मांसाहार की लगातार बढ़ती मांग के साथ पशुधन स्वास्थ्य क्षेत्र में एंटीबायोटिक का उपयोग और अधिक होता गया, लिहाजा खाद्य-शृंखला के जरिए उनमें बना एएमआर मनुष्यों में स्थानंातरित होता गया। जिससे कि उनके अंदर भी सिप्रोफ्लोसिन, एम्पीसिलीन, टेट्रासाइक्लिन और तीसरी पीढ़ी के सेफ्लोस्पोरिन के खिलाफ उन रोगाणुओं के विरुद्ध उच्च एएमआर बनता देखा जा रहा है। फलत: इलाज मुश्किल हो जाता है।
हालांकि, एएमआर की समस्या राजनीतिक, वित्तीय, कार्यक्रम संबंधी, तकनीकी, विनियामक और बहु-क्षेत्रीय रूप से ध्यान खींच रही है, लेकिन इसे रोकने के वैश्विक प्रयासों में जनता की भूमिका भी एक प्रमुख हितधारक के रूप में है। सभी क्षेत्रों के एंटीबायोटिक्स लिखकर देने वाले डॉक्टर और उपयोगकर्ताओं को एएमआर के छिपे खतरे को समझना चाहिए। किफायती एंटीबायोटिक दवाओं के अभाव में, एक छोटी-सी चोट भी घातक हो सकती है। बीमारियां जैसे कि टाइफाइड बुखार, हैजा, निमोनिया, मेनिन्जाइटिस आदि ठीक होना मुश्किल होता जाएगा। सर्जरी विफल होने का बहुत खतरा होगा। जीवन बचाने के नवीन चिकित्सा ढंग निष्फल हो सकते हैं।
एंटीबायोटिक उपयोगकर्ता कोे शिक्षित किया जाए कि प्रतिरोधी रोगाणु बनने पर वे कैसी मुसीबत ला सकते हैं। इस वैश्विक तबाही को कम करने में वे स्वयं कैसी भूमिका निभा सकते हैं। बिना डॉक्टर की लिखी पर्ची के एंटीबायोटिक्स खरीदना, तयशुदा खुराक और बताई अवधि तक एंटीबायोटिक्स न लेना, स्व-चिकित्सा करना, किसी भी बुखार के लिए बची हुई एंटीबायोटिक्स का उपयोग करना व्यक्ति के अपने स्वास्थ्य के साथ-साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु भी हानिकारक है। इसके लिए नियामक प्राधिकरणों द्वारा सतत‍् एवं साक्ष्य-आधारित प्रयास और केंद्रीय एवं राज्यों के स्वास्थ्य शिक्षा संस्थानों द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु व्यापक प्रयास जरूरी हैं।
विश्वविद्यालय, नागरिक समाज और गैर सरकारी संगठन इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। हमें एक राष्ट्रीय व्यापक जोखिम विस्तार एवं सामुदायिक सहभागिता रणनीति की आवश्यकता है, जो हमारी विविधता भरी आबादी के लिए व्यवहार्य हो, सामाजिक मिथकों को तोड़ने वाली और अनुभवी विशेषज्ञों के माध्यम से कार्यान्वित की जाए। केंद्र व राज्य सरकारों, को इस प्रयास में उचित निवेश करना चाहिए। लोगों की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम कभी सफल नहीं हुआ है। यह एएमआर नियंत्रण और दुनिया को एंटीबायोटिक असफल होने के बाद वाले भयानक युग से बचाएगी।

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लेखक डब्ल्यूएचओ दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र, संचारी रोग के पूर्व निदेशक हैं।

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