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संकट में साथ

12:42 PM Aug 28, 2021 IST

अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद हालात जिस तेजी से बदले हैं, उसने पूरी दुनिया को गहरी चिंता में डाल दिया है। केंद्र सरकार भी अपने स्तर पर भारतीयों को अफगानिस्तान से निकालने के प्रयासों में जुटी है। इस मुद्दे पर विपक्ष को विश्वास में लेने के क्रम में बृहस्पतिवार को आयोजित सर्वदलीय बैठक के निष्कर्षों ने हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती को ही उजागर किया है। तमाम मुद्दों पर सरकार पर हमलावर रहने वाले विपक्ष ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर जिस संयत व्यवहार का परिचय दिया, उससे देशवासियों में अच्छा संदेश गया। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस समेत सभी दलों ने यह संदेश दिया कि अफगानिस्तान में तेजी से बदलते घटनाक्रम से उपजी चुनौती पूरे देश की समस्या है, जिसमें राजनीतिक सर्वसम्मति वक्त की दरकार है। निस्संदेह इससे जहां हमारी लोकतंत्र की अवधारणा को बल मिला, वहीं अब सरकार को अपनी विदेश नीति क्रियान्वित करने में सुविधा होगी, जिसका अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी सकारात्मक संदेश जाएगा। कह सकते हैं कि विपक्ष को विश्वास में लेने की सरकार की कवायद सिरे चढ़ी है। यह जरूरी भी था क्योंकि बृहस्पतिवार को काबुल हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती हमले में बड़ी संख्या में अफगान नागरिकों व अमेरिकी सैनिकों की मौत जैसी तमाम घटनाएं हर भारतीय को विचलित कर रही हैं। उन तमाम परिवारों की धड़कनें थमी हुई हैं, जिनके परिजन अभी भी अफगानिस्तान में फंसे हैं। ऐसे में विपक्ष के नेता एकला चलो की नीति का अनुसरण करते तो निश्चित ही देश की जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं जाता। ऐसे में विपक्षी दलों के सकारात्मक रुझान से एक संदेश तो स्पष्ट गया कि संकट के मौकों पर विपक्षी दल भी राष्ट्रीय सरोकारों के अनुरूप व्यवहार करते हैं। ये मोदी सरकार की रणनीति की भी कामयाबी कही जायेगी। वैसे भी अफगानिस्तान से भारतीयों के दशकों से भावनात्मक रिश्ते रहे हैं। अफगान लोग भी भारत को एक विश्वसनीय मित्र के रूप में देखते रहे हैं। भारत ने भी अरबों डॉलर का निवेश अफगानिस्तान की विकास योजनाओं में किया है।

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निश्चित रूप से अफगानिस्तान का हालिया घटनाक्रम देर-सवेर दक्षिण एशिया की राजनीति व समाज को गहरे तक प्रभावित करेगा। तालिबान व पाकिस्तान की जुगलबंदी और चीन का उसमें तीसरे कोण के रूप में शामिल होना हमारी चिंता का विषय बन गया है। ऐसे में वहां की राजनीतिक अस्थिरता से हम अछूते नहीं रह सकते। हमें अपने नागरिकों की रक्षा के साथ भारी-भरकम निवेश की भी फिक्र है। विपक्षी दलों से हुई बैठक में भी ऐसे तमाम पहलुओं पर मंथन हुआ। सरकार ने बताया कि वह तब तक बचाव अभियान चलाती रहेगी जब तक कोई भारतीय नागरिक अफगानिस्तान में फंसा रहता है। वहीं तालिबान के सत्ता में आने पर संवाद के अन्य विकल्पों पर भी विचार किया जाएगा। मसलन मित्र देशों के जरिये अपने हितों की रक्षा की जायेगी। अभी तो पूरा अफगानिस्तान ही अराजकता की चपेट में है। निस्संदेह देर-सवेर नई सरकार का गठन होगा। तब बदले हालात में भारत को अपनी भूमिका को तलाशना होगा। हालांकि, बृहस्पतिवार के आईएसआईएस के घातक हमले ने चिंता बढ़ा दी है कि क्या नई सरकार का गठन शांतिपूर्ण ढंग से हो पायेगा। वह भी तब जब कई विकसित देशों ने अफगानों को बाहर निकालने का काम बंद कर दिया है। हालांकि अमेरिका ने कहा है कि वह देश छोड़कर जा रहे लोगों को निकालने का अभियान जारी रखेगा और हमलावरों को खोजकर सबक सिखायेगा। लेकिन आने वाले दिन बेहद चुनौतीपूर्ण बने रहने की प्रबल संभावना है। जाहिर बात है कि भारत को धैर्य व संयम से हालात पर नजर रखनी होगी। वह भी ऐसे वक्त में जब तालिबान दोहा शांति समझौते की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है। वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुपालन व अल्पसंख्यक समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करने के वादे से मुकरता नजर आ रहा है। यही वजह है कि बड़ी संख्या में अफगानी देश छोड़ने पर आमादा हैं। इसके बावजूद वक्त का तकाजा है कि अफगानिस्तान में नई सरकार का स्वरूप सामने आने तक भारत सरकार को धैर्य से हालात पर नजर रखते हुए अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी।

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