For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

जहां तैयार हुए उच्च जीवन मूल्यों के शूरवीर

07:29 AM Jan 16, 2024 IST
जहां तैयार हुए उच्च जीवन मूल्यों के शूरवीर
Advertisement

ले. जन. एसएस मेहता (अ.प्रा.)
मैं उस वक्त 16 साल का भी नहीं था जब राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) में दाखिला मिला था और इस महीने मैं 80 बरस का हो जाऊंगा। हम चार भाई फौज में रहे, तीन राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के प्रशिक्षु रहे तो चौथा इस अकादमी में प्रशिक्षक-अफसर रहा। मेरे बेटे ने भी एनडीए से प्रशिक्षण लिया है, जिसने आगे चलकर एक रेजीमेंट का बतौर कमांडेंट नेतृत्व किया। फौज में कमीशन मिलने पर मेरी नियुक्ति 63वीं कैवेलरी में हुई। अपने पांच नज़दीकी रिश्तेदारों में, हम चार भाइयों, मेरे बेटे और जीजा ने भी 1971 का युद्ध लड़ा।
बा-वर्दी में और बिना-वर्दी दिनों की यादें गर्माइश भरी हैं। एनडीए की वीथियों से होकर कम उम्र में फौज में आने का लाभ है यह प्रशिक्षण में बेफिक्री, भाईचारा, अनुशासन, टीम-भावना, रणनीतिक दृष्टि, प्रभावशाली रूप से समझाने की काबिलियत और लचीला रुख भर दिया जाता है। नतीजतन, हिम्मत न हारो, अनेकता में एकता और स्वयं से पहले सेवा की भावना बनती है। यह भाव ‘मेरे लिए राष्ट्र सर्वप्रथम, सदैव और हरहाल में’ वाला मूलमंत्र बन जाता है ।
एनडीए कोर्स में प्रवेश ‘सेना बतौर एक इकाई’ होता है। हालांकि इसकी संरचना लगभग एक दर्जन अलहदा विधाओं से हुई है। यह विविधता ढल जाने और सकल प्रभावशीलता में प्रवीणता बनाती है क्योंकि प्रत्येक प्रवेश संस्थान प्रशिक्षु में एक नेतृत्वकर्ता और फौजी होने के लिए जो आयाम आवश्यक है, उस हेतु विलक्षण कौशल और अनुभव से लैस कर देता है।
नव फौजी अफसर पैदा करने वाली यह ‘सैन्य नर्सरी’ लोकतांत्रिक मूल्य भरने के लिए भी जानी जाती है, सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन एनडीए के लिए यही सच है। आज जब यह अपनी स्थापना के 75 साल पूरे कर रही है, यहां से तैयार होकर निकले प्रशिक्षुओं में जो बात सबसे निराली है, वह यह कि यहां की पढ़ाई सैन्य नेतृत्वकर्ताओं में ऐसी सपाट एवं एकांगी दृढ़ता बनाती है, जो अपने प्रशिक्षुओं को संविधान के प्रति ली सौंगध से भटकने की इज़ाजत नहीं देती।
1970 और 80 के बीच ऐसा वक्त था जब भारत पूरबी और पश्चिमी ओर से सत्ता पर सैन्य तानाशाह काबिज मुल्कों में घिरा था। तथ्य यह है कि, जहां हमारे पश्चिमी पड़ोसी के सैन्य प्रशिक्षण संस्थान भावी सैन्य-तानाशाह तैयार करते हैं वहीं एनडीए की टकसाल में निरोल पेशेवर फौजी ढलते हैं, जो अपने देश और मातहतों के हितार्थ अपनी जान को जोखिम में डालने को तत्पर रहते हैं, यह जज्बा एनडीए के आदर्श वाक्य ‘सेवा परमोधर्म:’ या ‘स्वयं से पूर्व सेवा’ को सही मायने में चरितार्थ करता है। बतौर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत की सफलता के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे सैन्य नेतृत्व के कृत्यों और ज़हन में सत्ता का लालच बिल्कुल नहीं है, जबकि दुनियाभर में औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुए अनेकानेक मुल्कों की फौज में यह लिप्सा कभी न कभी तारी हो गई।
हमारे संस्थानों में सेना एक जीता-जागता उदाहरण है, जिसके आदर्शों को स्वरूप देश के संस्थापकों ने दिया था। केवल एक आदर्शवादी ही देश के लिए जान देने के लिए तैयार-बर-तैयार रहता है और सेवानिवृत्ति उपरांत घर पर अपने पोते-पोतियों को गाथाओं से प्रेरित करता है। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में अंतर्निहित रहे कालजयी आदर्शवादी मूल्य और रिवायतों की हमारी सेना मुंह बोलता उदाहरण है। इस खासियत ने एनडीए और इस जैसे अन्य भारतीय सैन्य संस्थानों को विश्व की सर्वोत्तम रक्षा सेवा प्रवेश अकादमियों में स्थान दिलवाया है, जहां पर बिना अपवाद भावी पेशेवर फौजी अफसर तैयार किए जाते हैं। और, बेशक, उनमें कुछ ने खुद को विश्व-स्तरीय सैन्य कमांडर एवं रणनीतिज्ञ सिद्ध कर दिखाया है।
भारत ने जितने युद्ध लड़े हैं उनमें सबमें सैन्य बलों का व्यवहार, अपने-अपने प्रशिक्षण संस्थानों द्वारा भरे गए मूल्यों के प्रति सर्वोत्तम प्रतिबद्धता का प्रतीक रहा है। यदि भारतीय सेना ने बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़े युद्ध के बाद, नव-स्थापित आजाद सरकार की ‘सहायता’ के नाम पर वहीं न बने रहकर, शीघ्र वतन वापसी करी, तो इसके पीछे बहुत श्रेय जाता है दिवंगत जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) सैम मानेकशॉ के मूल्यपरक नेतृत्व गुणों को, यह वह सबक है जिस पर एनडीए के वर्तमान और पूर्व-प्रशिक्षकों को नाज़ है। 1971 के घटनाक्रम को अक्सर ‘न्याय युद्ध’ वह लोग कहते हैं जिनको अटल विश्वास है यह कार्रवाई पाकिस्तानी सेना द्वारा बरपाए नरसंहार और बलात्कारों के प्रतिकर्म स्वरूप की गई थी। इसने बांग्लादेश को आज़ादी दिलवाई और अपने लोगों को भावी हिंसा से बचाया। ‘जायज और नाजायज युद्ध’ नामक शोध पर किताब के लेखक माइकल वॉल्ज़र के अनुसार यह लड़ाई 20वीं सदी के तमाम युद्धों में सही मायनों में मानवीय आधार पर की गई एकमात्र सैन्य दखलअंदाजी थी। और इस न्याय युद्ध में भाग लेने वाले अफसरों और अन्य साथी फौजियों की नैतिकता की रीढ़ के पीछे एनडीए प्रदत्त मूल्य थे।
जिस बर्बर और विषैले दुश्मन के साथ भीषण लडाई लड़ी हो, युद्धोपरांत उसी के साथ नरमी से पेश आना बहुत मुश्किल होता है, वह भी तब जब बतौर युद्धबंदी उसकी भलाई आपके रहमोकरम पर हो। बांग्लादेश में आत्मसमर्पण करने वाले 90000 से अधिक युद्धबंदियों का प्रबंधन करना एक बहुत बड़ा और विकट काम था।
प्रत्येक ऐसे युद्धबंदी को यह संदेश साफ मिल गया था कि यह विजय सैन्य शासन पर लोकतंत्र की और बर्बरता पर मानवीयता की है, जेनेवा युद्धबंदी अंतर्राष्ट्रीय संधि के प्रावधानों पर भी यह व्यवहार पूरी तरह खरा उतरा। आगे चलकर, कारगिल और अन्य युद्ध मोर्चों पर जो स्थितियां सामने आईं, लगता है हमारा दिखाया मानवीय रवैया किसी काम न आया। वर्तमान में विश्वभर में जो भयावह परिदृश्य है, उसके परिप्रेक्ष्य में इसे देखकर अफसोस होता है।
यहां तक कि जब श्रीलंका में भारतीय शांति सेना को बहुत भारी जानी नुकसान झेलना पड़ा तब भी भारतीय सेना ने सिविलियनों की आड़ में छिपकर हमले कर रहे एलटीटीई आतंकियों पर जवाबी गोलीबारी करने से खुद को रोके रखा। वियतनाम युद्ध को निर्दोष ग्रामीणों पर बरपाए माई लाई नरसंहार और अन्य ज्यादतियों भरे प्रसंगों के लिए जाना जाता है, लेकिन ठीक इस जैसी परिस्थितियों में भारतीय सेना की कार्रवाई की गाथाएं एकदम उलट हैं– अर्थात भारतीय फौजी अफसर वह होता है जो सिविलयनों का जानी नुकसान न्यूनतम रखने की एवज में खुद अपने पर और अपने फौजियों पर भारी पीड़ा झेलने को मानसिक रूप से तैयार रहता है। यदि विदेशी आक्रमणकारियों और घरेलू विद्रोहियों से लड़े प्रत्येक युद्ध के बाद भी यह रिवायत कायम है, तो यह तभी हो पाया क्योंकि हमारी सैन्य अकादमियों में अफसरों में मानवता एवं मानववादी आचरण कायम रखने के बारे में सिखाया जाता है।
भारतीय फौजियों ने लचीलापन, शौर्य एवं प्रतिबद्धता का अनवरत प्रदर्शन कायम रखा है। 1999 में कारगिल युद्ध में भारतीय सैनिकों ने तमाम विपरीत स्थितियों में पर्वत शिखर युद्धकौशल और राजनीतिक इच्छाशक्ति द्वारा तय परिधि के भीतर रहकर, वास्तविक सीमा रेखा पार किए बिना घुसपैठियों को खदेड़ डाला। मेरी जानकारी में आधुनिक इतिहास में ऐसा कोई अन्य उदाहरण नहीं है कि दुश्मन की फौरी और शर्मिंदगी भरी हार सुनिश्चित करने में साहसिक सैन्य कार्रवाई के साथ-साथ उतने अनुपात में अनुशासनात्मकता भी दिखाई गयी हो।
कोई हैरानी नहीं कि हमारे संस्थानों ने ऐसा सैन्य नेतृत्व तैयार किया है जिसे अपने पारितोष की एवज में सत्ता कब्जाने की लालसा डिगा नहीं पाती। बड़े से बड़ा लालच –निरंकुश सत्ता- के सम्मुख भी दिमाग में अनुशासन को सर्वोपरि रखना कोई आसान काम नहीं है और इस प्रयास को एनडीए ने सफलतापूर्वक सिद्ध कर दिखाया है, अतएव दुनियाभर की रक्षा अकादमियों में एनडीए सोपान का मानदंड बनी हुई है।
आज जब एनडीए अपने स्थापना का 75वां साल मना रहा है, अपने इस और अन्य रक्षा प्रवेश संस्थानों के तमाम साथियों एवं सैनिकों को सम्मान-सलामी देना एकदम वाजिब है। यह विशेषता, रक्षा प्रशिक्षण प्रदाता की तमाम धाराओं से बना वह सम्मिलित सरमाया है, जो हमें एक दुर्जेय सेना एवं दुनिया की नज़र में आकर्षण का बिंदु बनाती है।
अगर मुझे पुनः जीवन मिले तो 16वें साल में फिर से वही दोहराना चाहूंगा, जैसा कि 11 दिसम्बर, 1962 के दिन एनडीए के 22वें कोर्स में दाखिला पाकर किया था।

लेखक पश्चिमी सेना मुख्यालय के  पूर्व कमांडर हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×