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जहां ‘दक्षेश्वर’ बनकर स्वयं विराजते हैं भोलेनाथ

08:54 AM Aug 12, 2024 IST
जहां ‘दक्षेश्वर’ बनकर स्वयं विराजते हैं भोलेनाथ

पौराणिक आख्यान है कि कनखल में ब्रह्मांड के प्रथम स्वयंभू शिवलिंग दक्षेश्वर महादेव हैं जिसकी स्थापना स्वयं भगवान शंकर ने की थी। ब्रह्मा जी ने कनखल में ही दक्षेश्वर महादेव मंदिर के ठीक सामने ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी।

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डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

भारतीय धर्म-साधना में श्रावण का महीना अत्यंत पवित्र माना जाता है और आशुतोष भोले के भक्तों की कांवड़ यात्रा इस वर्ष भी चरम पर पहुंच कर सम्पन्न हो चुकी है। अकेले हर की पैड़ी, हरिद्वार से ही श्रावण मास में लगभग चार करोड़ से कुछ अधिक कांवड़िए गंगाजल भरकर लौट चुके हैं।
आइए, आज शिव और सती की उस कनखल पुण्यभूमि को जानते हैं, जहां महाराज दक्ष को दिया वचन निभाने के लिए श्रावण मास में भोलेनाथ स्वयं ‘दक्षेश्वर’ बनकर विराजते हैं। कहा जाता है कि कनखल नगरी में ‘शक्ति का केंद्र’ पाताल में होता है और ‘शिवत्व की माया’ आकाश में रहती है।
मायापुरी में शिव-शक्ति के दस ज्योतिर्स्थल विद्यमान हैं, जिसे ‘दस महाविद्या केंद्र’ माना जाता है। मान्यता है कि यही वह पुण्यभूमि है, जहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने अपने साथ आए 84 हजार ऋषियों के साथ राजा दक्ष के यज्ञ की पवित्र अग्नि प्रज्वलित की थी।
पौराणिक आख्यान है कि कनखल में ब्रह्मांड के प्रथम स्वयंभू शिवलिंग दक्षेश्वर महादेव हैं जिसकी स्थापना स्वयं भगवान शंकर ने की थी और ब्रह्मा जी ने कनखल में ही दक्षेश्वर महादेव मंदिर के ठीक सामने ब्रह्मेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी।
अनादि देव ब्रह्मा-पुत्र राजा दक्ष की अनोखी नगरी है कनखल। यह वही पुण्य भूमि है जहां शिव दक्ष सुता सती को ब्याहने तो आए थे, लेकिन दक्ष के जीवित रहते फिर दोबारा कभी नहीं आए। इसी पावन भूमि पर ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, नारद आदि देवों की साक्षी में दिग्दिगंत से आए 84000 ऋषियों ने ‘अरणी मंथन’ से यज्ञाग्नि उत्पन्न की थी। धर्म और आस्था की नगरी में शिवत्व का केन्द्र आकाश है और शक्ति का मूल पाताल। यहां शिवत्व भी है, देवत्व भी और महामाया का अपार शक्तिपुंज भी है। मान्यता है कि कनखल के राजा दक्ष को दिया हुआ वचन निभाने के लिए भगवान शंकर अब प्रत्येक सावन माह कनखल में ‘दक्षेश्वर’ बन कर विराजते हैं।
पौराणिक मायापुरी में कनखल का वर्तमान शीतला माता मंदिर वही स्थल है, जहां सती का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि अपनी पुत्री सती द्वारा शिव से विवाह से पिता राजा दक्ष प्रसन्न नहीं थे। इसी कारण जब उन्होंने कनखल में ‘यज्ञ’ का आयोजन किया, तो अपने दामाद भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। सती पुत्री होने के कारण, पति महादेव की अनुमति के बिना ही पिता के यज्ञ में आ गई। वहां जब सती ने अपने पति आशुतोष का अपमान होते देखा, तो वे सहन नहीं कर पाईं और उसी यज्ञ-कुंड में कूद गईं।
यज्ञ-कुंड में दग्ध होने के बाद उनकी पार्थिव देह शिव के गण वीरभद्र ने जिस स्थान पर रखी थी, वह आज की मायादेवी है। यहीं से सती की दग्ध देह को कंधे पर उठाकर कुपित शिव ने तांडव किया था। इसी ताण्डव के कारण सती की देह टूट-टूटकर जहां-जहां गिरी थी, वे ही स्थल आज 52 शक्ति पीठों के रूप में पूजे जाते हैं। शीतला मंदिर, सतीकुंड, माया देवी, चंडी देवी और मनसा देवी मंदिरों को मिलकर शक्ति के पांच ज्योतिर्थल बनते हैं। इनका केंद्र आदि पीठ मायादेवी के गर्भस्थल अर्थात‍् पाताल में माना जाता है और शक्ति की आराधना के केंद्र के रूप में इनकी प्रसिद्धि और मान्यता आज भी है।
शक्ति की भांति शिव के भी पांच ज्योतिर्थल हैं जिनका केंद्र आकाश में हैं। ये भी यहीं हैं, जिनके नाम हैं दक्षेश्वर, बिल्वकेश्वर, नीलेश्वर, वीरभद्र और नीलकंठ। पांच ज्योतिर्स्थलों का केंद्र नीलेश्वर और नीलकंठ से जुड़े ऊंचे कैलास अर्थात‍् आकाश पर है। शिव और शक्ति के ये दसों ज्योतिर केंद्र सावन के महीने में कांवड़ भरने आने वाले शिव भक्तों पर दसों स्थलों से कृपा वृष्टि करते हैं। दसों स्थलों की कृपा होने पर ही शिवभक्त कांवड़ियों की गंगा-यात्रा अपने अपने अभीष्ट शिवालयों तक सकुशल संपन्न हो पाती है।
‘स्कंद पुराण’ के ‘केदारखंड’ के अनुसार श्रावण मास में हिमालय और शिवालिक पर्वतमालाओं का यह भूभाग शिव-शक्ति और मां गंगा की कृपा से युक्त होकर जाग्रत हो उठता है। गंगा माता के भक्तों पर बिन मांगे भी भगवान शिव अपनी कृपा की वृष्टि करते हैं। भारतवर्ष में बैजनाथ धाम, काशी स्थित विश्वनाथ धाम, बर्फानी बाबा का अमरनाथ धाम, महाकाल, सोमनाथ, मल्लिकार्जुन और रामेश्वरम‍् आदि ज्योतिर्लिंगों तक भी ऐसी ही महायात्राएं श्रावण माह में निकाली जाती हैं। इन सभी यात्राओं में हरिद्वार से निकलने वाली ‘श्रावणी कांवड़ यात्रा’ सबसे बड़ी यात्रा मानी जाती है। कांवड़ लेने के लिए उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से कांवड़धारी यात्रियों का आगमन दिन-रात होता रहता है। यह है कनखल का विख्यात दक्ष मंदिर, जहां भगवान आशुतोष इन दिनों दक्षेश्वर बनकर विराजमान हैं।

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