जो बोल में हों, वो कर्म भी दिखे
सद्गुरु माता सुदीक्षा
ब्रह्मज्ञान का प्रकाश जब ज़िन्दगी में आता है तो एक सही दिशा मिलती है। जिस तरह से समुद्र में नाव की पाल को हवा की दिशा के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है। यदि पाल को व्यवस्थित न करें तो हम वहीं पहुंचेंगे जहां हमें हवा ले जाएगी। हम अपनी मंजिल पर नहीं पहुंच पाएंगे। आज दुनिया में इसी तरह हो रहा है। माया का बहाव हमें जहां ले जाता है, हम उधर ही बहते चले जाते हैं। हम अपने वास्तविक लक्ष्य इस रमे राम के दर्शन करना भूलकर, किसी और दिशा में चले जा रहे हैं।
भक्ति किसी उम्र की मोहताज नहीं होती। भक्ति किसी भी उम्र, बचपन, युवावस्था या बुजुर्गों की अवस्था में हो सकती है। हमें इस रमे राम के दर्शन करने हैं और फिर भक्ति करनी है क्योंकि बिना देखे वास्तव में भक्ति हो ही नहीं सकती। हम सबने भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कहानी सुनी है। भक्त प्रह्लाद उम्र में बहुत छोटा था और कहने वाले कहते हैं कि बच्चों को बड़ों का अनुसरण करना चाहिए लेकिन उसके जीवन में तो बिल्कुल उलट ही हुआ। हिरण्यकश्यप अभिमानी था और प्रह्लाद प्रेम, नम्रता, विशालता आदि सन्तों वाले गुणों से युक्त था। अब यह विश्लेषण हमें करना है कि हम किसके जैसे बनना चाहते हैं। हम अभिमानी बनना चाहते हैं या प्रीत-प्यार अपनाना चाहते हैं? देखा जाता है कि जब जीवन में अपनाने की बात आती है। तब हम करते तो अभिमान हैं और गुणगान भगवान श्रीराम जी का करते हैं। यह हमारी ही चतुराई है कि जो हमारे बोल में है, वह कर्म में नहीं है। फिर वही बात आ जाती है कि हम बोलते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं।
ज़िन्दगी की घड़ी की सुइयां आगे बढ़ती चली जा रही हैं, उनको हम उल्टा नहीं घुमा सकते। जितना भी जीवन जी लिया, वह बीते समय की बात हो गई पर हम आगे का जीवन बेहतर कर सकते हैं। चाहे उम्र कुछ भी हो, हम इस तरह से जिएं कि ब्रह्मज्ञान की दात प्राप्त कर के ही दुनिया से जाएं, खाली हाथ न जाएं। निरंकार को अंग-संग जान लिया तो हम कोई भी गलती जान-बूझकर नहीं करेंगे। यदि भूल से कोई गलती होती भी है तो उसी समय सुमिरण- ‘तूं ही निरंकार, मैं तेरी शरण हां, मैंनू बख्श लो’ करके हम क्षमा मांग लें। अगर हर पल निरंकार का अहसास करेंगे तो काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार, इन विकारों का जीवन में प्रभाव नहीं होगा, फिर हम गलतियां भी कम से कम करेंगे।
निरंकार कृपा करे कि सत्संग के विस्तार की जो नींव रखी गई है, हम इसमें बढ़-चढ़कर सत्संग करें। अपने जीवन में हम ऐसे गुण लायें कि हमारे सम्पर्क में जो भी आए, वह खुद हमसे पूछे कि आपके जीवन में ऐसा क्या है जिसके कारण आप इतने अलग, इतने सकारात्मक दिखते हैं। सबसे अच्छा प्रचार अच्छे कर्मों द्वारा ही होता है। निरंकार कृपा करे, एक-एक बच्चा, युवा और बुजुर्ग, सब जीवन में अपने कर्म द्वारा प्रचार कर सकें।