देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिके करुनानिधि रोए
मोहन मैत्रेय
वासुदेव-देवकी की अष्टम संतान श्री कृष्ण का अवतार द्वापर में हुआ, जिसका लक्ष्य था धर्म की स्थापना। श्रीमद्भगवद्गीता में इसी का उद्घोष है :
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
श्री कृष्ण मानवीय मूल्यों के संस्थापक एवं मित्र धर्म के निर्वाहक थे। धार्मिक जगत के वह नेता तथा भागवत धर्म के प्रवर्तक थे। वह युगावतार थे, युगपुरुष थे। उनका उद्घोष है :
परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।।
श्री कृष्ण की महत्ता इसी तथ्य में निहित है कि उनके समकालीन ज्ञानी-विज्ञानी, धर्मात्मा, तपस्वी एवं शूरवीर उनका सम्मान करते थे। व्यास जैसे महर्षि, युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा, विदुर जैसे नीतिज्ञ, अर्जुन-भीम जैसे योद्धा, भीष्म पितामह सदृश तेज संपन्न महापुरुष उन्हें अपना आदर्श मानते थे।
श्री कृष्ण एक ओर बंसी की मधुर धुन गुंजारते हैं, तो उनके हाथ में सुदर्शन चक्र भी है। संदेश स्पष्ट है कि प्रेम की बंसी की धुन पर सबको अपना साथी बनाओ, जो सन्मार्ग में बाधक बनता है, उसके लिए सुदर्शन चक्र का प्रहार निश्चित है।
श्री कृष्ण को अपने प्रिय मित्र अर्जुन का महाभारत के समर में ‘रणछोड़’ कहलाना कदापि स्वीकार नहीं था। उन्होंने रणभूमि में गीता का उपदेश सुनाकर उसका आत्मभाव जाग्रत किया। वह कह उठा ‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ मैं संशय रहित होकर आपके आदेश का पालन करूंगा।
सुदामा एवं श्री कृष्ण गुरुकुल में सहपाठी थे। श्री कृष्ण को ज्ञात था कि सुदामा दीन है, हीन नहीं। सुदामा की पत्नी ने हठ करके मुट्ठीभर ‘तंदुल’ की भेंट का प्रबंध कर सहायतार्थ उसे श्री कृष्ण के पास भेजा। श्री कृष्ण ने मित्र के चरण धोने हेतु जल मंगवाया। पांवों को स्पर्श किया, फटे हुए पांव, कांटे लगे हुए, उनका हृदय कराह उठा :
हाय! महा दुख पायो सखा तुम, आए इतै न कितै दिन खोये। देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिके करुनानिधि रोए।। पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये।
मानवीय मूल्यों के प्रसार-प्रचार हेतु श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में मानवता को जो उपहार दिया, उसके लिए वह सदा सर्वदा अभिनंदनीय रहेंगे। गीता में आत्मा की अजरता-अमरता का संदेश है, जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने वस्त्र त्याग कर नये धारण करता है, इसी प्रकार आत्मा पुराने-जर्जर शरीर का परित्याग कर नये शरीर को अपना आवास बना लेती है। कुछ लोगों की धारणा है कि गीता तो व्यक्ति को गृहस्थ से मुंह मोड़, संन्यास की ओर ले जायेगी। यह धारणा संगत नहीं। गीता के उपदेश ने ही अर्जुन को कर्तव्यपथ पर पुन: खड़ा कर दिया। गीता के अध्ययन तथा इसके साथ-साथ उसे अंत:करण में उतारने में ही जीवन की सार्थकता है।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि: सृता।