साम्प्रदायिक राजनीति का परिण्ााम है हिंसा
हरियाणा के नूंह जिले में अब स्थिति सामान्य हो रही है। प्रशासन सामान्य का क्या अर्थ लगाता है यह वही जाने, पर नूंह में हुई ‘साम्प्रदायिक हिंसा’ जहां एक तरफ कुछ हैरान करने वाली थी, वहीं यह चिंता की बात भी है कि सांप्रदायिकता के तनाव से ग्रस्त इलाकों में हरियाणा का यह अपेक्षाकृत शांत क्षेत्र भी शामिल हो गया है। हरियाणा और पड़ोसी राजस्थान में फैला यह मेवात क्षेत्र है तो मुस्लिम बहुल पर हकीकत यह भी है कि यह क्षेत्र कुल मिलाकर हिंदू-मुसलमान की राजनीति से बचा हुआ था। इस स्थिति का एक कारण शायद यह भी है कि मेवात के मुसलमान धर्मांतरण किए हुए हैं। आज भी इन मुस्लिम परिवारों में नकुल, सहदेव, अर्जुन जैसे नाम मिल जाते हैं।
यह तो जांच के परिणामों से ही पता चल पायेगा कि ब्रजमंडल जलाभिषेक यात्रा के दौरान हिंसा कैसे हुई और कौन इसके लिए ज़िम्मेदार है, पर यह बात तो आसानी से समझ आ जाती है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंसा की ऐसी अन्य घटनाओं की तरह ही यह भी सांप्रदायिकता की राजनीति का ही एक परिणाम है। पिछले डेढ़-दो सौ सालों का इतिहास रहा है देश में सांप्रदायिक हिंसा का। पहले अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अनुसार काम करते हुए सांप्रदायिकता की आग को हवा दी थी जिसके परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ और आज़ादी मिलने के बाद से ही सांप्रदायिकता अलग-अलग वर्गों के राजनीतिक स्वार्थों को साधने का एक माध्यम बन गयी।
क्या यह मात्र एक संयोग है कि आज देश के उत्तर-पूर्वी इलाके मणिपुर में भी एक तरह से सांप्रदायिकता की आग सुलग रही है और हरियाणा का मेवात जैसा शांत क्षेत्र भी सांप्रदायिकता का शिकार बनाया जा रहा है? मणिपुर की हिंसा का एक पक्ष यह भी है कि वहां मैदानी इलाकों में रहने वाले बहुसंख्यक हिंदू हैं और पहाड़ी इलाकों में ईसाई बसते हैं। निश्चित रूप से यह एकमात्र कारण नहीं हो सकता मणिपुर में हिंसा का, पर यह बात विचारणीय तो है कि सांप्रदायिकता हमारी राजनीति का हथियार क्यों बनती रहती है? इस प्रश्न को यूं उठाना बेहतर होगा कि सांप्रदायिकता को हम क्यों पनपने देते हैं? देश का बहुमत निश्चित रूप से सांप्रदायिकता में विश्वास नहीं करता, पर शायद यह बात भी बेबुनियाद नहीं है कि सांप्रदायिकता हमारी राजनीति का हथियार बनायी जा रही है और सर्व धर्म समभाव में विश्वास करने वाला बहुसंख्यक भारतीय समाज सांप्रदायिक ताकतों के हाथों छला जा रहा है।
आज़ादी के बाद जब हमारे नेताओं ने देश का संविधान बनाया तो इस बात को बार-बार रेखांकित किया गया कि हमारा भारत गंगा- जमुनी संस्कृति में विश्वास करता है। जिस समता की बात हमारे संविधान के आमुख में की गयी है, उसमें धर्म के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न होने की बात अंतर्निहित है। यह सही है कि देश की अस्सी प्रतिशत आबादी हिंदू है, लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं ने इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि शेष बीस प्रतिशत मुसलमान, सिख, जैन, बौद्ध आदि किसी भी दृष्टि से स्वयं को कमतर समझे जाने के लिए बाध्य न किये जाएं।
इस सबके बावजूद यह एक परेशान करने वाली दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि आज राजनीतिक स्वार्थों के लिए अथवा अपनी नासमझी के चलते कुछ तत्व जाने-अनजाने भारतीय समाज को हिंदू-मुसलमान में बांटने लगे हैं। पीड़ा तो तब और बढ़ जाती है जब विभाजनकारी बात कहने वाला या समझने वाला हमारी संसद में सम्मानित स्थान पाता है।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है। सांप्रदायिकता की आग बुझनी ही चाहिए। हमारी एक सच्चाई यह भी है कि कभी हिंदू माताएं अपने बच्चों को आशीर्वाद दिलाने को ताजिए के जुलूसों में ले जाया करती थीं और आज भी मुंबई के गणेशोत्सव के अवसर पर मुसलमान युवक गणेशभक्तों को वड़ा-पाव खिलाते हैं, शरबत पिलाते हैं।
बहुत छोटी लगती हैं यह बातें, पर बहुत बड़ा महत्व है इनका। चाहे किसी भी धर्म को मानने वाला हो, देश का हर नागरिक पहले भारतीय है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा कहीं भी जाएं हम, यह बात नहीं भुलायी जानी चाहिए कि ईश्वर ने हर व्यक्ति को इंसान बनाकर भेजा था, उसको हिंदू-मुसलमान तो हमने बना दिया। आज इस बात को समझने की ज़रूरत है। समझना होगा हमें कि धर्म के नाम पर बांटने वाले तत्व हमारे हित के लिए नहीं, अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए हम में फूट डालते हैं। यह एक षड्यंत्र है। हमारे मनुष्य बने रहने की शर्त का तकाज़ा है कि हम ऐसे किसी भी षड्यंत्र को सफल न होने दें।
हरियाणा की हाल की सांप्रदायिक हिंसा के दौरान भी ऐसे षड्यंत्र को सफल बनाने की कोशिशें हमने देखी हैं। मुस्लिम मेवातियों ने आगे बढ़कर अपने अल्पसंख्यक हिंदू भाइयों की रक्षा के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं और हिंदुओं ने भी उचित प्रतिसाद दिया है। भाई-चारे का यह उदाहरण हमारा आदर्श होना चाहिए।
यह संयोग ही है कि जिस दिन मेवात की हिंसा की खबरें प्रसारित हो रही थीं उसी दिन फेसबुक पर बरसों पुराना एक चित्र दिख गया था। सात साल पुराने इस चित्र में एक व्यक्ति तीन महिलाओं को हाथ जोड़ रहा है। दो महिलाएं हैरानी और खुशी से उस व्यक्ति के हाथों को देख रही हैं- उनकी आंखों में आंसू है। चित्र में एक और व्यक्ति भी है जो सबको मुस्कुराते हुए देख रहा है। उसकी आंखों में एक संतोष झलक रहा है। इसमें हाथ जोड़े हुए व्यक्ति अफगानिस्तानी सेना का जांबाज सिपाही अब्दुल रहीम है। वह लड़ाई में अपने दोनों हाथ खो चुका था। मरने से पहले केरल के जोसेफ ने उसे अपने दोनों हाथ दान कर दिये थे। आंखों में छलकते आंसुओं वाली जोसेफ की बेटी और पत्नी भाव-विह्वल हैं। वह जो निश्छल हंसी हंस रहा है, वह डॉक्टर सुब्रमण्यम अय्यर हैं, जिन्होंने उन हाथों का सफल ऑपरेशन किया था। हिंदू डॉक्टर, मुस्लिम लाभार्थी और ईसाई अंग-दाता! सांप्रदायिक एकता का इससे बढ़िया और क्या उदाहरण हो सकता है!
हम किसी भी धर्म के मानने वालों क्यों न हों, पहले हम इंसान हैं। हर धर्म हमें इंसान बने रहने की ही शिक्षा देता है। यह बात हम में से हर एक को समझनी होगी। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च यह सब आराधना के स्थल हैं, हमें यह सिखाने वाले हैं कि हम सब ईश्वर या अल्लाह या गॉड की ही संतान हैं। हमें बांटने वाला हमारा हितैषी हो ही नहीं सकता। कब समझेंगे हम यह बात?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।