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पीछे छूटते राष्ट्रीय जीवन के मूल्य

12:38 PM Aug 13, 2022 IST

लक्ष्मीकांता चावला

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भारत की स्वतंत्रता के लिए जो ऐतिहासिक, उल्लेखनीय आंदोलन भारतवासियों ने किए, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की यातनाएं सहीं, जेलों में गए, उनमें से 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन विशेष स्मरणीय है। इसके बाद जैसे विदेशी शासकों को यह पूरी तरह अनुभव हो गया था कि उनकी जड़ें हिल गई हैं, अब वे भारत पर राज नहीं कर सकते। हमारे राष्ट्रीय नेताओं का संकल्प और स्वप्न अंग्रेजों को भारत से निकालना था। इसके साथ ही अंग्रेजियत से भी भारतीय जनमानस को मुक्त करना रहा।

हिंदुस्तान के हर घर पर तिरंगा लहराए और गली-गली में तिरंगा यात्रा के साथ भारत माता की जय-जयकार हो, ये तैयारियां पूरे देश में जारी हैं। तिरंगा लहरा भी रहा है, तिरंगा यात्राएं चल रही हैं। यद्यपि राजनीति की संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त देश के ही कुछ नेता तिरंगा यात्रा में भी मन से भाग नहीं लेना चाहते। केवल मीन-मेख निकालकर ही विपक्ष में बैठने की पीड़ा जाने-अनजाने प्रकट कर रहे हैं। जो भी है, हमारी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव है। नि:संदेह, इन 75 वर्षों में हम बहुत आगे बढ़े हैं। विश्व की आर्थिक शक्ति बन रहे हैं, सैन्य शक्ति बनने के बहुत निकट हैं। हमारे राष्ट्रीय नेताओं को दुनिया सुनती है। वे विश्व भ्रमण के लिए जाएं तो उनकी एक झलक पाने को लालायित लोग उमड़-घुमड़ कर चले आते हैं और जो भारतवासी पूरी दुनिया में बसे हैं वे तो मानो पलक-पांवड़े बिछाकर अपने भारत राष्ट्र के नेताओं का बांहें फैलाकर स्वागत करने के लिए तैयार रहते हैं।

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लेकिन इस बीच हम क्या खो बैठे, इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं। आजादी के बाद अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों, अपनी भाषा, अपने रीति-रिवाजों को हम छोड़ते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, विदेशी जीवन मूल्यों को भारतीय जीवन मूल्यों से ज्यादा महत्व दे रहे हैं। यह निश्चय ही हर सहृदय राष्ट्रभक्त भारतीय को पीड़ा देता है। कभी अपने बड़े-बड़े शहरों में विदेशी भाषा के प्रभुत्व का रोग फैलना प्रारंभ हुआ था। आज तो छोटे-छोटे कस्बे, यहां तक कि गांवों में भी उस भाषा का प्रभुत्व है जिस भाषा में कभी डायर ने जलियांवाला बाग में गोलियां चलाने का आदेश दिया था। जिस भाषा में हमारे देश के क्रांतिकारी वीरों को फांसी पर लटकाने के हुक्म जारी हुए थे, जिस भाषा के पढ़ने-पढ़ाने के बाद मैकाले ने यह कहा था कि अगर भारत में मैकाले द्वारा तैयार की शिक्षा पद्धति चलती रही तो आने वाले पचास वर्षों में भारत के लोग हर उस चीज को श्रेष्ठ मानेंगे जो भारतीय नहीं है।

मैकाले का स्वप्न स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में बहुत हद तक सड़कों में पूरा होता दिखाई दे रहा है। अमृतसर जैसा परंपराओं से जुड़ा शहर भी अब इसी अंग्रेजी आंधी में उड़ने लगा है। होटलों के नाम, सार्वजनिक स्थलों जैसे विवाह आदि के लिए बने बड़े-बड़े भवनों के नाम, यहां तक कि नए बसे मोहल्लों के नाम भी अब अंग्रेजी में ही रखे जा रहे हैं।

कटु सत्य यह है कि कभी हिंदी और पंजाबी के लिए आंदोलन करने वाले, जेलों में जाने वाले, हिंदी-पंजाबी के नाम पर दो समुदायों में बंट जाने वाले लोगों को भी अब डायर की भाषा मां के दूध की तरह अच्छी लगने लगी है। हस्ताक्षर के नाम पर हिंदुस्तानी भाषा बहुत कठिनाई से कहीं-कहीं​ दिखाई देती है। जितने स्कूल भारतीय भाषाओं और भारतीय जीवन पद्धति से दूर रखते हैं, उतने ही ज्यादा महंगे हैं। सरकारी मजबूरी देखिए, पंजाब सरकार ने जो स्मार्ट स्कूल नाम से अभियान चलाया उसमें स्मार्ट स्कूल की परिभाषा यह है कि जहां​ विद्यार्थियों के गले में नेकटाई और मुंह में अंग्रेजी भाषा हो। अपने देश में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ना मुश्किल हो गया और विदेशी भाषा का माध्यम अपनाने के लिए पंजाब सरकार की तरह अन्य अनेक सरकारें संभवत: घुटने टेक चुकी हैं। घरों में कम से कम उत्तर भारत में मां जैसा पवित्र शब्द भी अब अपरिचित है और दीपक जलाकर खुशियां मनाने वाले देश में अब दीपक बुझाकर भारतीयता से कोसों दूर जाकर हजारों तरह की मिठाइयां छोड़कर केवल मोमबत्तियां बुझाने और केक काटने में ही सारे त्योहार सिमटकर रह जा रहे हैं। जिन बच्चों को हम कुलदीपक कहते हैं, उन बच्चों का जन्मदिन, विवाह की वर्षगांठ बुझे दीपकों के साथ तालियां बजाकर मनाई जाती है। यह भारतीयता से दूर हो जाना अमृत महोत्सव को मीठा नहीं रहने देता और जिन विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में हमारी नई पीढ़ी भविष्य की चुनौतियां स्वीकार करने, भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए तैयार हो रही हैं, वहां भी उन्हें स्नातक बनने के साथ ही फिर अंग्रेजों की नकल, काले गाउन पहनकर ही दीक्षांत समारोह की दीक्षा का तथाकथित सम्मान दिया जाता है। हमारे देश के नेताओं की क्या मजबूरी है जो हिंदी के खूब जानकार हैं, वे भी इस भुलेखे में हो गए कि अंग्रेजी बोलेंगे तभी जनता को अधिक प्रभावी नेता लगेंगे। यह विश्वास ही खत्म हो गया, जो आजादी से पहले था :-

अपनी भाषा है भली

भलो अपनो देश

जो कछु है अपनो भलो

यही राष्ट्र संदेश।

भारतेंदु जी ने तो यहां तक कह दिया था :-

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल।

इस अमृत महोत्सव के जश्न में हमें याद करना और करवाना है कि हम दुनिया के साथ आगे बढ़ेंगे, लेकिन यह याद रखना होगा कि मन, वचन, कर्म से हिंदुस्तानी रहेंगे, तभी हमारी इज्जत होगी, हमारी पहचान बनी रहेगी।

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