धार्मिक व सांस्कृतिक समन्वय की अनूठी झांकी
राजेंद्र कुमार शर्मा
सभी सार्वजनिक धार्मिक अनुष्ठान प्रेम, भाईचारा और सौहार्द का संदेश देते है। हम ईश्वर की व्यापकता को सीमित और संकुचित दायरों में बांधने का प्रयत्न करते हैं। सभी धार्मिक अनुष्ठान सूक्ष्म रूप से हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित करते है। सभी धार्मिक अनुष्ठान प्रतीकात्मक रूप से हमें अध्यात्म कर गूढ़ अर्थ को सूक्ष्म स्तर पर समझाने के लिए होते हैं। परंतु हम इसके मूल में न जाकर धार्मिक अनुष्ठानों को भी दिखावे का रूप देने का प्रयत्न करते हैं। उड़ीसा या उत्कल प्रदेश के प्रधान देव के रूप में भगवान विष्णु के अवतार भगवान जगन्नाथ जी हैं। भगवान जगन्नाथ जी का मंदिर पुरी, उड़ीसा का एक महत्वपूर्ण मंदिर होने के साथ ही हिंदुओं की आस्था का प्रमुख केंद्र भी है।
विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा के आयोजन के पीछे गूढ़ अध्यात्म को समझने की आवश्यकता है। सांख्य दर्शन मानता है कि शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा का वास होता है। रथ का रूप श्रद्धा-रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता है। रथयात्रा के रथों के नाम जैसे दर्प दलन अर्थातzwj;् अहंकार को नष्ट करने वाला, रक्ष तल अर्थातzwj;् राक्षसों (बुराइयों) की संख्या कम करने वाला आदि जीवन के उच्च आदर्शों को अपनाने की ओर संकेत करते है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं।
इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल का प्रतीक है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मायुक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे संचालित करती है माया। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि यानी 20 जून को भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा निकाली जाएगी। यह रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है। इस यात्रा में शामिल होने के लिए दुनिया के कोने-कोने से लोग आते हैं। पुराणों के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की बहन देवी सुभद्रा ने एक बार नगर देखने के लिए अपनी इच्छा जाहिर की। जिसके बाद जगन्नाथ जी और बलभद्र अपनी बहन सुभद्रा के रथ पर बैठकर नगर घूमने गए। जिसके बाद वो मौसी के घर गुंडिचा भी गए और 8 दिन तक यहां रुके। आषाढ़ शुक्ल के 10वें दिन रथ पुनः मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। 11वें दिन मंदिर के द्वार खोले जाते हैं। इस दिन भक्तगण स्नान कर भगवान के दर्शन करते हैं। तभी से ये रथयात्रा निकालने की परंपरा चली आ रही है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदzwj;्युम्न की पत्नी थी, इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिन रास्तों से भगवान का रथ गुजरता है, वो मार्ग पावन हो जाता है तथा रथयात्रा में भाग लेने वाले व्यक्ति के कष्ट निवारण के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है।
रथ यात्रा की तैयारी हर वर्ष वसंत पंचमी से ही शुरू कर दी जाती है। ऐसा साल में एक बार होता है जब मंदिर के गर्भ से मूर्तियों को बाहर निकाला जाता है और इनकी रथयात्रा कराई जाती है। इसके बाद इन्हें वापस स्थान पर स्थापित कर दिया जाता है। यात्रा में सम्मिलित 3 रथों के क्रमानुसार सबसे आगे बलराम का रथ, तालध्वज रहता है, दूसरा रथ बहन देवी सुभद्रा का जिसे दर्प दलन कहा जाता है तथा अंतिम रथ श्रीकृष्ण, जिसे नंदीघोष या गरुड़ध्वज नाम से जाना जाता है।
रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दस अवतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध भी है। अनेक कथाओं से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मों, मतों और विश्वासों का अद्भुत संगम है। माना जाता है कि सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर निर्माण में स्वर्ण दान किया था। पुरी का जगन्नाथ मन्दिर अपने आप में धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द का अद्भुत उदाहरण है।
रथयात्रा के दौरान उपस्थित होने वाले सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य को सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का प्रसाद ग्रहण करते हैं वो ‘वसुधैव कुटुंबकमzwj;्’ की भावना को दर्शाता है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को देश की सांस्कृतिक, धार्मिक एकता तथा सहज समन्वय को एक धागे में पिरोने वाली माना जा सकता है।