रेवड़ियों की मिठास के पीछे छिपी कड़वाहट समझें
किसको किसने कितनी रेवड़ियां बांटी, यह सवाल भले ही किसी लंबी-चौड़ी गणना की अपेक्षा करता हो, पर यह बात सब मान रहे हैं कि हाल के चुनावों में खूब रेवड़ियां बंटी। नहीं, चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों द्वारा मतदाता को चुपचाप बांटे जाने वाले रुपयों की बात नहीं है, बल्कि उन रेवड़ियों की बात हो रही है जिन्हें बांटने वाले लंबी-चौड़ी घोषणाओं के साथ बांटते हैं। चुनाव-परिणाम का विश्लेषण करने वाले जिस एक बात पर सहमत दिखाई देते हैं, वह यह है कि इन रेवड़ियों ने परिणामों पर निर्णायक प्रभाव डाला है। ऐसी ही एक रेवड़ी को महाराष्ट्र में ‘लाड़की बहीण’ के नाम से जोड़ा गया है और झारखंड में इसे ‘मंइयां सम्मान योजना’ नाम दिया गया है।
भाजपा का दावा है कि सबसे पहले मध्य प्रदेश में ‘लाड़ले मामा’ ने अपनी ‘लाड़ली बहनों’ को प्रतिमाह नकद राशि देने की घोषणा की थी, और इसे चुनाव-परिणामों पर निर्णायक प्रभाव डालने वाला कदम बताया गया था। अब महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाली ‘महायुती’ ने ऐसा ही किया और यह दावा किया जा रहा है कि महाराष्ट्र की जीत में इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हाथ रहा है। वैसे महाराष्ट्र की ‘महाअगाड़ी’ ने भी भाजपा के 1500 रुपये प्रति माह के योगदान को बढ़ाकर 3000 करने का वादा किया था, पर मतदाता ने बैंक खाते में जमा हो चुके रुपयों का भरोसा करना बेहतर समझा। कहा तो यह भी जा रहा है कि महाराष्ट्र के चुनावों को दो माह इसलिए टाला गया था कि महिलाओं के बैंक खातों में ‘रेवड़ियां’ पहुंच जाएं तो बेहतर परिणाम आएगा।
बहरहाल, कारण और भी हो सकते हैं, पर इससे परिणाम पर ‘रेवड़ियों’ के असर का महत्व कम नहीं हो जाता। यह रेवड़ियां बांटना कोई नयी बात नहीं है। शायद इसकी शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा राज्य की लड़कियों को साइकिलें बांटने से हुई थी। फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो बिजली, पानी, आदि मुफ्त बांटकर जैसे एक नयी परंपरा ही शुरू कर दी थी रेवड़ियां बांटने की! बिहार, उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में तो यह काम प्रतिस्पर्धा की तरह हुआ।
ऐसा नहीं है कि इस ‘मुफ्तखोरी’ की आलोचना नहीं हुई। मतदाता को आर्थिक सहायता देने की इस प्रथा की आलोचना स्वयं प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हैं। शायद इस तरह मतदाता को रिझाने की कोशिश को रेवड़ियां बांटने की संज्ञा भी उन्होंने ही दी थी। यह बात दूसरी है कि अब वे स्वयं मतदाता को इस तरह रिझाने के पक्षधर बन गये लगते हैं।
यूं तो चुनाव घोषणापत्रों में जो वादे किये जाते हैं, उन्हें भी मतदाता को दी जाने वाली रिश्वत कहा जा सकता है, पर इस तरह नकद राशि बांटने को किसी और तरह से नहीं समझाया जा सकता। रेवड़ियां बांटने वाले इस रिश्वत को कल्याणकारी राज्य के अनुरूप आचरण बताते हैं। हम भले ही आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था बनने का दावा करते हों, पर इस हकीकत से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि आज हमारे देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को सरकार की ओर से मुफ्त अनाज देकर उसका पेट भरा जा रहा है। सरकार भले ही इसे कुछ भी कह ले, पर यह तथ्य यही बताता है कि गरीबी हटाओ के सारे दावों और वादों के बावजूद आज भी स्वतंत्र भारत का नागरिक अपने श्रम से अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने लायक नहीं बन पाया है। आज़ादी के शुरुआती सालों में तो यह बात फिर भी समझ आती थी कि नया देश नई चुनौतियों का मुकाबला कर रहा था, हालात सुधारने में वक्त लगना था। पर आज़ाद होने के सत्तर-अस्सी साल बाद भी यदि देश की जनता रेवड़ियों से रिझाई जा सकती है तो इसका सीधा-सा मतलब यही है कि हमारी नीतियों-रीतियों में कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है। हमारी त्रासदी यह भी है कि गड़बड़ी का पता लगाने और उसे ठीक करने की ईमानदार कोशिश करने के बजाय हम रेवड़ियां बांटकर काम चलाना चाहते हैं।
ऐसा नहीं है कि आज़ादी के इन सत्तर-अस्सी सालों में हमने कुछ किया नहीं है। बहुत कुछ अर्जित किया है हमने। चांद-सितारों को छू रहे हैं हमारे हाथ। पर जितना कुछ किया है, उससे कई गुना अधिक किया जाना बाकी है। अपनी उपलब्धियों पर गर्व कर सकते हैं हम, पर हमें यह नहीं भूलना है कि जितना रास्ता हमने पार किया है, उससे कई गुना लंबा रास्ता अभी पार करना बाकी है। विकसित भारत के सपने देख रहे हैं हम, पर हम यह याद रखना नहीं चाहते कि सबका साथ और सबका विकास की चुनौती तभी स्वीकार की जा सकती है जब हमारी कोशिशों में बुनियादी ईमानदारी हो। विकास की सही और सच्ची परिभाषा हमारे सामने हो। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कभी कहा था कि उनका दायित्व देश के हर नागरिक को एक समस्या मानकर उसका समाधान करना है। यह तब की बात है जब देश आज़ाद हुआ था। लगभग 40 करोड़ की आबादी थी तब देश की। आज हम 140 करोड़ हैं। आवश्यकता हर भारतीय के जीवन को विकसित जीवन शैली के अनुरूप बनाना है। और नागरिक की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हों। हर नागरिक को विकास का समान अवसर मिले। वह जो सपने देखे उन्हें पूरा करने की उमंग भी हो उसमें। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि हमारे देश का हर नागरिक अपने भारतीय होने पर गर्व करे, उसका विवेक जाग्रत हो, वह गर्व से सिर ऊंचा करके चल सके।
मुफ्त अनाज देकर या लाड़ली बहनों के खातों में हर महीने पंद्रह सौ, दो हज़ार जमा कर के उसे सर ऊंचा करके चलने के लायक नहीं बनाया जा सकता। ऐसे प्रयास सिर्फ भरमाते भर हैं। सक्षम नहीं बनाते। आवश्यकता हर नागरिक को सक्षम बनाने की है। हमारे संविधान ने हमें समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता का अधिकार दिया है तो इसके साथ कुछ कर्तव्य भी जोड़े हैं, जिन्हें निभाना ही एक स्वतंत्र देश का योग्य नागरिक बनने की सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। यदि हमें बोलने की आज़ादी मिली है तो उचित बोलने की शर्त भी उसके साथ जुड़ी है; यदि हमें समानता का अधिकार मिला है तो उसके साथ यह कर्तव्य भी जुड़ा है कि हम देश के हर नागरिक को अपने समान समझें; यदि हमें न्याय पाने का अधिकार है तो न्याय का तकाज़ा है कि हम दूसरों के न्याय पाने के अधिकार की भी रक्षा करें। यह सब तभी संभव है जब हम स्वयं में यह क्षमता पैदा कर लेंगे कि रेवड़ियों से हमें भरमाने की कोशिश करने वालों के इरादों को समझ सकें।
जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का प्रमाण यही है कि हर नागरिक अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सावधान हो। सतत जागरूकता ही वह मंत्र है जो हमें जनतंत्र का योग्य नागरिक बनने लायक बन सकता है। रेवड़ियां बुरी नहीं होतीं, पर रेवड़ियां बांटने वाले के इरादों की सच्चाई परखनी ज़रूरी है। राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए बांटी जाने वाली रेवड़ियों की मिठास के पीछे छिपी कड़वाहट को समझना भी ज़रूरी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।