‘पीली क्रांति’ को पुनर्जीवित करने का वक्त
देविंदर शर्मा
कुछ दिन पहले केंद्रीय कैबिनेट ने देश के अंदर पाम ऑयल का उत्पादन बढ़ाने को राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-पाम ऑयल नामक योजना के अंतर्गत 11040 करोड़ मूल्य की प्रोत्साहन राशि को मंजूरी दी है ताकि इस आयातित खाद्य तेल पर निर्भरता कम हो सके। इस बाबत मैंने एक टेलीविजन चैनल पर हुई वार्ता में भाग लिया, जिसमें देश के खाद्य तेल उत्पादन के परिदृश्य पर चर्चा हुई थी। एक अन्य भागीदार, जो कि नीति आयोग के सदस्य हैं, ने बताया कि इस योजना का उद्देश्य पाम ऑयल पर आधारित देश की कुल मांग का 40 फीसदी से ज्यादा अंश देश में पैदा करने का है। यह बात हैरानी भरी है, यह जानते हुए कि स्वास्थ्य, पर्यावरणीय और पारिस्थितिकी कारणों से पाम ऑयल विवादित रहा है।
यह पाकर कि पाम ऑयल अपेक्षाकृत सस्ता है, अक्सर विवेकहीन व्यापारी ज्यादा मुनाफा बनाने को स्थानीय उत्पाद और मांग के मुताबिक इसकी मिलावट अन्य उपलब्ध खाद्य तेलों में कर देते हैं। वैसे भी स्वास्थ्य के हिसाब से सही माने जाने वाले कुछ अन्य तेल जैसे कि सरसों, सूरजमुखी, मूंगफली, तिल, नारियल और नाइजर इत्यादि वह विकल्प हैं, जिन पर भारतीय रिवायती तौर पर निर्भर रहे हैं। यही कारण है कि अधिकांश भारतीय घरों में खाना पकाने में पाम ऑयल को ज्यादा तरजीह नहीं मिल पाई है। पाम ऑयल की ज्यादातर खपत जंक फूड, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, शृंगार और अन्य उपभोक्ता वस्तुएं जैसे कि शैम्पू, डिटर्जेंट, मोमबत्ती और टूथपेस्ट इत्यादि में होती है।
फिर भी, आइए पहले जानते हैं कि पाम ऑयल का उत्पादन बढ़ाने की यह प्रस्तावित योजना क्या है। प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में वर्ष 2025-26 तक पाम ऑयल की खेती 10 लाख हेक्टेयर रकबे में करने का ध्येय है, आगे विस्तार करते हुए इसको वर्ष 2029-30 तक 16.7 लाख हेक्टेयर करना है। ज्यादातर नयी खेती पारिस्थितिकी रूप से नाजुक उत्तर-पूर्वी राज्य और अंडमान-निकोबार द्वीप समूहों पर होनी है।
इसके लिए जरूरी मूल अवयवों पर सब्सिडी का प्रावधान करने के अलावा आरंभिक सालों में खाद पर आई लागत 100 फीसदी किसान को वापस मिलेगी, उत्पादकों को लुभाने के लिए न्यूनतम खरीद मूल्य की गारंटी का वायदा किया जा रहा है ताकि बाजार भाव में उतार-चढ़ाव का फर्क न पड़े। अस्थिरता-मूल्य की भरपाई पिछले पांच सालों के औसत थोक मूल्य सूचकांक को आधार बनाकर, इसमें 14.3 प्रतिशत जोड़कर होगी। उस मामले में, जहां कहीं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग किसान को वायदा मूल्य देने में असमर्थ होगा, सरकार की ओर से उद्योगों को सीपीओ मूल्य का दो फीसदी बतौर प्रोत्साहन दिया जाएगा।
हालांकि भारत अपनी खाद्य तेल जरूरतों का लगभग 55 से 60 फीसदी हिस्सा आयात से पूरा करता है, मौजूदा समय में स्वदेशी उत्पादन और आयातित तेलों के बीच सालाना 75000 करोड़ का अंतर है। पाम ऑयल को बढ़ावा देने की घोषणा ऐसे वक्त पर हुई है जब पर्यावरण बदलाव पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने बारम्बार वन कटाई और जैव-विविधता विनाश को अप्रत्याशित बनते मौसम का मुख्य कारक बताया है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि प्राकृतिक वर्षा से वनों को साफ करके एकल-फसल वाले पेड़ लगाने से न केवल अपने वजूद पर संकट झेल रही प्रजातियों का आशियाना उजड़ता है बल्कि इससे कार्बन उत्सर्जन की मात्रा में भी इजाफा होता है।
इंडियन कांउसिल फॉर फॉरेस्ट्री एंड एजुकेशन ने भी अपनी जनवरी 2020 की रिपोर्ट में जैव विविधता सपन्न क्षेत्रों में पाम ऑयल के पेड़ लगाने के विरुद्ध चेताया है। इसी बीच श्रीलंका ने नये पाम ऑयल पेड़ लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया है और पुराने वृक्ष वक्त के साथ खत्म करने को कहा है।
आर्थिक नजरिए से भले ही स्वदेशी पाम ऑयल उत्पादन को बढ़ावा देना समझदारी लग सकती है ताकि आयात पर भारी भरकम खर्च में कमी लाई जा सके, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा पाम ऑयल आयातक आखिर बना कैसे, जबकि वर्ष 1993-94 में खाद्य तेलों की कुल खपत का 97 फीसदी देश में ही पैदा होने से आत्म निर्भरता थी। वर्ष 1985-86 में तिलहन उत्पादन में बढ़ोतरी हेतु शुरू किए गए तिलहन तकनीक मिशन के साथ घरेलू प्रसंस्करण उद्योग को सुदृढ़ किया गया, जिसे आगे चलकर ‘पीली क्रांति’ कहा गया।
‘पीली क्रांति’ से हासिल हुआ यह फायदा विश्व व्यापार संगठन की लगाई शर्तों का पालन करते हुए आयात शुल्कों में क्रमवार हुई कमी की वजह से जाता रहा। कृषि पर विश्व व्यापार संगठन की संधि के अनुसार भारत सोयाबीन तेल को छोड़कर शेष खाद्य तेलों पर आयात शुल्क 300 फीसदी रखने को बाध्य है। लेकिन इतना उंचा शुल्क रखने की छूट मिलने के बावजूद आयात-लॉबी और देश के ‘मुख्यधारा अर्थशास्त्रियों’ के दबाव के कारण आयात शुल्क घटा दिए गए। यहां तक कि एक समय आयात शुल्क लगभग शून्य हो गया था। इससे आयातित खाद्य तेल का सैलाब आ गया और घरेलू तिलहन उत्पादकों को अन्य फसलों का रुख करना पड़ा।
दुबारा वहां वापस आते हुए जहां हमने ‘पीली क्रांति’ की राह भटकने की बात छोड़ी थी, खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका है तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना। यदि सरकार पाम ऑयल पैदावार की गारंटीयुक्त कीमत देने की इच्छुक हो सकती है तो फिर कोई वजह नहीं कि इसी किस्म की वायदा-कीमत तिलहन उत्पादक किसानों को न दी जाए, जबकि इसकी पैदावार करने वाले अधिकांश छोटे कृषक हैं। यह समझकर कि किसान आर्थिकी की सीढ़ी में सबसे निचले पायदान पर आता है, तो तिलहन उत्पादन को वायदा-मूल्य एवं सुचारु विपणन व्यवस्था बनाने से एक तरह से कृषि में पुनः जान फूंकी जा सकती है। यहां तक कि पंजाब के किसान भी पानी डकारने वाली चावल की फसल उगाने की बजाय तिलहन को व्यवहार्य विकल्प पाकर इनका रुख कर सकते हैं।
इसके अलावा, पाम ऑयल वृक्ष की पैदावार, जिसका ज्यादा फायदा दूर से बैठकर खेतीहरों के जरिए काम चलाने वाले भू-मालिकों और चंद महाकाय उद्योगपितयों को होगा, इसकी बजाय तिलहन की खेती को बढ़ावा देने से करोड़ों छोटे किसानों के लिए खेती आर्थिक रूप से व्यवहार्य बन सकती है। ऐसा होने पर ‘पीली क्रांति’ के अवसान के बाद तिलहन उत्पादकों की संख्या में जो भारी कमी हुई थी, वह अवश्य ही ऊपर उठने लगेगी। इससे आगे, तिलहन के अंतर्गत आती भूमि के लिए न तो प्राकृतिक वनों की कटाई की जरूरत है, न ही जैव-विविधता स्रोतों को नुकसान होगा। ऐसे वक्त में जब खेती के माहिर गेहूं-चावल वाले फसल चक्र से भूमिगत जल में हुए अत्यंत ह्रास के लिए आलोचना कर रहे हैं, एक अन्य पानी डकारने वाली पाम ऑयल फसल को अपनाने की क्या तुक है। सनद रहे कि पाम ऑयल का एक पेड़ रोजाना 300 लीटर पानी पी जाता है! अब इसको एक हेक्टेयर में लगने वाले पेड़ों से गुणा करने के बाद देखें तो यह प्रजाति एक तरह से भूमिगत पानी सोखने की मशीन है। इसलिए इससे पहले कि हम एक ओर पर्यावरणीय संकट में जा फंसे, ‘मूल्य-मुनाफा’ रेशो निकालने के लिए गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है।
एक उद्योग विशेष के सुझाए मतलबी नुस्खे पर अमल करते हुए पाम ऑयल के अंतर्गत रकबे में विस्तार करने की बजाय ‘पीली क्रांति’ पुनर्जीवित करने की फौरी जरूरत है। खाद्य तेल में स्थाई आत्मनिर्भरता बनाने का सतत उपाय यही है।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।